क्या बिहार फिर रोक पाएगा भाजपा का रथ?
कहते हैं, इतिहास खुद को दुहराता है। तो क्या बिहार एक बार फिर 1977, 1990 या फिर 2015 की कहानी को दुहाराएगा?
इस सवाल का जवाब भले अभी न दिया जा सके, लेकिन जो तैयारियां होती दिख रही है, उससे कहा जा सकता है कि वर्तमान, इतिहास दुहरा कर भविष्य की एक नई इबारत लिखने के लिए बेकरार है।
पिछले 8 साल के दौरान केंद्र की सत्ता के खिलाफ जब भी किसान, मजदूर, छात्र, युवा सड़क पर उतरे, एक मजबूत विपक्ष का साथ उन्हें कभी नहीं मिला। यानी, एक कुशल राजनीतिक नेतृत्व की कमी हमेशा ऐसे जनांदोलनों में देखने को मिली। लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से देश में विपक्षी एकता की बातें उभर कर सामने आ रही हैं और ख़ास कर बिहार में जिस तेजी और आश्चर्यजनक तरीके से सत्ता में बदलाव हुआ, उसकी धमक भाजपा के सबसे कद्दावर नेता नरेंद्र मोदी के मन-मस्तिष्क पर साफ़ देखने को मिली। तभी तो उन्हें कहना पड़ा की भ्रष्टाचारियों का गठजोड़ बन रहा है। जबकि वहीं नीतीश कुमार चंद दिनों पहले तक उनके सत्ताई भागीदार थे।
जेपी की राह पर नीतीश!
1977 में कांग्रेस के खिलाफ चिंगारी भले गुजरात में भड़की थी, लेकिन वह शोला बिहार आ कर ही बनी, जब जेपी ने इंदिरा विरोध की कमान खुद अपने कन्धों पर उठा ली। उस वक्त भी बस एक ऐसे चेहरे की तालाश थी, जो नेतृत्व दे सके, जिस पर भरोसा हो, जिसकी छवि पाक-साफ़ हो। आज भी भाजपाई “पप्पू-पलटू” प्रोपेगेंडा के बीच, नीतीश कुमार एक ऐसे चेहरे हैं, जिनकी व्यक्तिगत छवि स्वच्छ है। रह गयी बात पीएम पद की, तो नीतीश कुमार ने खुद कह दिया है कि उनका लक्ष्य भाजपा को शिकस्त देना है न कि पीएम बनना। खैर, पीएम बनना किसी भी राजनेता का सपना हो सकता है और ऐसी आकांक्षा रखना कहीं से गलत भी नहीं है। लेकिन, पद से इतर परिवर्तन की इस लड़ाई में नीतीश कुमार अभी जिस तेजी से विपक्षी नेताओं से मिल रहे हैं, उन्हें एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, वह रास्ता एक राजनेता के जेपी बनने की दिशा में ही जाता दिख रहा है।
प्रचंड जीत का “उद्दंड रथ” रूकेगा!
बिहार कांग्रेस के प्रवक्त असितनाथ तिवारी न्यूज़क्लिक के लिए बात करते हुए कहते है, “बिहार महागठबंधन में इतनी क्षमता है कि वह भाजपा के प्रचंड जीत के उद्दंड रथ को रोक सकती है।” लेकिन, साथ ही असितनाथ यह आशंका भी जाहिर करते है कि भाजपा 2024 में फिर से कम्युनल कार्ड खेलेगी और महागठबंधन को उसमें फंसने के बजाय अपने एजेंडे पर टिके रहना होगा। एक और महत्वपूर्ण बात असित बताते हैं कि इस वक्त महागठबंधन के पास करीब 55 फीसदी वोट (2020 के विधानसभा चुनाव के आधार पर) हैं और अगर 5 फीसदी फ्लोटर वोट (कम्युनल कार्ड से प्रभावित होने की स्थिति में) को छोड़ दे, तब भी महागठबंधन का सामाजिक-राजनीतिक समीकरण अजेय है। जाहिर है, 2015 बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम से भी उपरोक्त दावा सही साबित होता दिखता है। 2020 के मुकाबले 2015 में महागठबंधन के पास 46 फीसदी वोट ही थे, लेकिन सीटों के मामले में इसने भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया था।
हालांकि, एक तर्क यह भी होता है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग-अलग मुद्दों पर लडे जाते है और इस लिहाज से लोकसभा चुनाव में भाजपा को 2019 की तरह ही 2024 में भी बढ़त मिल सकती है। लेकिन, इस तर्क की हवा तब निकल जाती है, जब यह दिखता है कि 2014 हो या 2019, दोनों ही समय भाजपा ने पूरे देश के भीतर अगर किसी एक राज्य में सबसे बड़ा गठबंधन किया था, तो वह बिहार था। 2014 में रालोसपा, लोजपा साथ थी तो 2019 में जद(यू) भी साथ थी। भाजपा ने कभी अकेले दम पर बिहार में लोकसभा चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई।
10 से नीचे भाजपा!
सीपीआई (एमएल) महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने न्यूज़क्लिक के लिए बात करने पर कहा कि बिहार में जो बदलाव हुआ है, उससे भाजपा अलग-थलग पड़ गयी है और इससे पूरे देश के विपक्ष में उम्मीद जगी है कि हम भाजपा को रोक सकते हैं।" वे कहते हैं, "बिहार में हम 2019 के परिणाम को रिवर्स भी कर सकते है।” गौरतलब है कि 2019 में एनडीए को बिहार की 40 में से 39 सीटें मिली थी। उस वक्त जदयू भी भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ी थी। भट्टाचार्य की बात अगर सच होती है और 2024 का परिणाम रिवर्स होता है, तो भाजपा सीधे 300 के आंकड़े से एकदम नीचे आ जाएगी और बकौल दीपंकर, बिहार का असर यूपी और पड़ोस के राज्यों पर भी हो सकता है, जहां से भाजपा को सर्वाधिक सीटें मिली हैं। ऐसी स्थिति में 272 का जादुई आंकड़ा पार कर पाना भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं होगा।
लेकिन, क्या ऐसा हो पाना संभव होगा और अगर हां, तो कैसे? इस पर दीपंकर भट्टाचार्य कहते हैं, "मौजूदा बिहार सरकार को दो काम करने होंगे। पहला तो यह की सरकार को परफॉर्म करना होगा, लोगों को लगना चाहिए कि सरकार वाकई उनकी समस्याओं को ले कर गंभीर है और इसीलिए हमने सरकार को एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर काम करने का भी अनुरोध किया है। और दूसरा कि इस वक्त देश के विपक्ष का एजेंडा कमजोर है। विपक्ष को किसान, रोजगार, झूठे मुकदमें, अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला जैसे मुद्दों को अपना एजेंडा बनाना होगा। यह सब काम हम कर सकें, तो निश्चित ही बिहार में वह क्षमता है, जिससे भाजपा को 2024 में रोका जा सकता है।”
रुकते रहे हैं रथ
सोमनाथ से निकली लाल कृष्ण आडवानी की रथयात्रा अगर कहीं रुकी थी तो वह बिहार ही था और नेता भी वही थे, जिनका दल और जिनकी विरासत इस वक्त बिहार में सरकार में है। 1990 के अक्टूबर में जब आडवानी का रथ बिहार के समस्तीपुर पहुँचा थी, तभी तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया था। इंदिरा गांधी की तानाशाही हो या भाजपा का कम्युनल एजेंडा, सबके रथ बिहार में ही रोके गए हैं। बिहार कांग्रेस प्रवक्ता असितनाथ तिवारी के शब्दों में कहें तो भाजपा की प्रचंड जीत का “उद्दंड रथ” भी अगर बिहार राज्य में ही आ कर रुक जाए तो “सावन में जन्में” और “भादों का बाढ़” देख कर “भूतो न भविष्यति” टाइप राजनीतिक विश्लेषण करने वालों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।