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अंतरिक्ष में निजीकरण : कमजोर संभावनाएं और अपरिहार्य ख़तरे

भारत और इसरो के अंतरिक्ष प्रयास, राष्ट्रव्यापी घमंड बढ़ाने या नाटकीय चीजों से प्रेरित न होकर आत्मनिर्भरता पर आधारित रहे हैं। यह बड़े पैमाने पर विकास में सहायक चीजों की तरफ़ झुके रहे हैं।
अंतरिक्ष में निजीकरण

कोरोना महामारी से प्रभावित अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की थी। इस दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र प्राइवेट सेक्टर के लिए खोलने की घोषणा की थी। उस दौरान कहा गया कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम अब मूलत: रणनीतिक क्षेत्रों में काम करेंगे। बाकी के क्षेत्रों का निजीकरण किया जाएगा। अब स्पेस सेक्टर को भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। 

वित्तमंत्री की घोषणा के बाद 24 जून, 2020 को कैबिनेट ने एक फ़ैसला दिया, जिसके उद्देश्य ''स्पेस सेक्टर की सभी गतिविधियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना था, इसमें प्रक्षेपण, सेटेलाइट, यहां तक कि स्पेस में नए खोजबीन भी शामिल थी। प्रेस को जारी किए गए इस स्टेटमेंट में कहा गया, ''यह फ़ैसला प्रधानमंत्री मोदी के लंबे वक़्त में भारत में आमूल-चूल बदलावों को ध्यान में रखा गया है और इससे भारत को आत्मनिर्भर और तकनीकी क्षेत्र में उन्नत बनाया जाएगा।''

नया ढांचा और संस्थान

उसी कैबिनेट बैठक में अंतरिक्ष विभाग के अंतर्गत नेशनल स्पेस प्रोमोशन एंड ऑथराइज़ेशन सेंटर (IN-SPACe) बनाने का फ़ैसला लिया गया। इसका उद्देश्य ''मित्रवत् नियामक माहौल और प्रोत्साहन देने वाली नीतियों के ज़रिए, निजी कंपनियों को भारतीय स्पेस इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल करने की अनुमति देकर, उन्हें अंतरिक्ष गतिविधियों में प्रोत्साहन और दिशा देना है।''

कई मीडिया संस्थानों ने गलत तरीके से यह रिपोर्ट किया कि न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) नाम की एक नई सार्वजनिक ईकाई बनाई जा रही है, ताकि निजी क्षेत्र का समन्वय बढ़ाया जा सके। असल में NSIL की घोषणा 6 मार्च, 2019 को की गई थी, ताकि स्पेस एजेंसियों के शोध और सेटेलाइट लॉन्च का व्यवसायीकरण किया जा सके, साथ में दूसरी कंपनियों के साथ मिलकर रॉकेट लांचर्स और सेटेलाइट बनाए जा सकें। साथ में ISRO सर्विस की बाज़ारू जिम्मेदारियों को पूरा किया जा सके। एंट्रिक्स कॉरपोरेशन पूरी तरह भ्रष्टाचार और मुआवज़े के दावों से टूट चुकी है, साफ़ तौर पर उससे पिंड छुड़ा लिया गया है।

पिंक प्रेस के कुछ टिप्पणीकारों ने इस घोषणा पर जानी-पहचानी तालियां बजाईं। ISRO के निजीकरण को लेकर भी बहुत सारे अंदाजे लगाए जा रहे थे। 

इन चीजों के बारे में विस्तार से बात करने के पहले यह साफ़ करने देना चाहिए कि ISRO का निजीकरण नहीं किया जा रहा है, कम से कम अब तक तो नहीं। दूसरी बात अंतरिक्ष को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने से कई तरह के ख़तरों को न्योता दिया जा रहा है। तीसरी बात, जैसा अनुमान लगाया जा रहा है कि एक बड़ी निजी क्षेत्र की भारतीय अंतरिक्ष इंडस्ट्री खड़ी हो जाएगी, वैसा होने के कम ही आसार हैं। ऐसा भारत में निजी क्षेत्र के कमजोर क्षमताएं और ढांचागत् कमजोरियों के कारण है।

इसरो का निजी क्षेत्र से मौजूदा सहयोग

सार्वजनिक या निजी बाहरी कंपनियों को भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में उतारने का विचार भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम जितना ही पुराना है। विचार यह था कि धीरे-धीरे भारतीय उद्योग में क्षमताओं का विकास कर औद्योगिक आधार को बड़ा किया जाएगा और उन्नत तकनीकों के लिए एक नई आपूर्ति श्रंख्ला खोली जाएगी। दूसरी तरफ इसरो सिर्फ शोध और विकास, नई तकनीकों, अंतरिक्ष खोज और रक्षा आधारित उपकरणों पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी।

भारत की दूसरी शोध संस्थाओं या फिर अमेरिका की नासा की तरह इसरो भी बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए नहीं बनी है। इसलिए लंबे वक्त से अपने लिए जरूरी चीजों के ठेके देती रही है। इसमें औज़ार उत्पादन, सेटेलाइट के लिए रॉकेट लॉन्चर्स शामिल हैं। यह ठेके निजी और सार्वजनिक क्षेत्र, दोनों तरह की कंपनियों को मिलते रहे हैं। इस दौरान मूल लॉन्चिंग प्रक्रिया और सिस्टम इंटीग्रेशन समेत सभी अहम गतिविधियां इसरो के पास ही रही हैं।

आज इसरो सालाना 10 सेटेलाइट लॉन्च करती है, कई सारी नई योजनाएं भी इंतज़ार में हैं, विदेशों से भी लॉन्चिंग का ऑर्डर मिलता है। जैसे-जैसे इसरो पर काम का भार बढ़ता गया, इसरो पर अपने उत्पादन की जिम्मेदारी को दूसरों को सौंपने का दबाव भी तेज होता गया। इसके तहत उच्च स्तर वाले साझेदारों की जरूरत है।

इसरो पहले से ही 150 कंपनियों के साथ काम करती है। इनमें से ज़्यादातर निजी क्षेत्र की हैं, इस तरह का गठबंधन साल दर साल बढ़ता जा रहा है। तुलना के लिए हम देख सकते हैं कि नासा 400 निजी कंपनियों के साथ काम करती है। भारत में सेटेलाइट निर्माण के काम का एक बड़ा हिस्सा पहले से ही बाहरी एजेंसियों के हाथ में है। बुरी किस्मत वाले चंद्रयान-2 मिशन में कई निजी कंपनियां, जिनमें पुरानी और नई इंजीनियरिंग फर्म्स शामिल हैं, जैसे L&T, गोदरेज समूह, लक्ष्मी मशील टूल्स, आईनॉक्स टेक्नोलॉजीज़ और कर्नाटक हायब्रिड माइक्रो डिवाइस आदि। इन कंपनियों ने इंजन के निर्माण और उसकी टेस्टिंग, जीएसएलवी लॉन्चर के बूस्टर और थ्रस्टर्स के निर्माण में अहम किरदार अदा किया था।

बेंगलुरू की अल्फा डिज़ाइन टेक्नोलॉजी पहले ही इसरो के दो सफल लॉन्च के साथ जुड़ी रही है। इसरो डिज़ाइन, गुणवत्ता नियंत्रण और औज़ारों पर नज़र रखती है। इन औज़ारों में भी कई बाहर से मंगाए गए होते हैं। इसरो अगले तीन सालों में 27 नए सेटेलाइट को बनाने में तीन कंपनियों- अल्फा डिज़ाइन, रक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक कंपनी भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) और टाटा एडवांस्ड सिस्टम को अपने साथ जोड़ने की योजना बना रही है।

पीएसएलवी के निर्माण के लिए ज्वाइंट वेंचर बनाने या इसका भार कर करने वाले शुरुआती विचारों को अब NSIL के द्वारा अंजाम दिया जाएगा। अब इसरो के पास केवल लॉन्च, ट्रैकिंग और टेलीमेट्री का काम ही बचा है।

NSIL छोटे सेटेलाइट बनाएगी और ‘’स्मॉल सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल (SSLV)’’ बनाएगी। यह एक नया लॉन्चर है, जिसे इसरो इस क्षेत्र के दूसरे साझेदारों के साथ मिलकर विकसित कर रही है। NSIL अगस्त 2019 में ही अपना पहला ग्राहक अमेरिकी स्पेस सर्विस प्रोवाइडर स्पेसफ्लाइट को बना चुकी है। स्पेसफ्लाइट SSLV द्वारा दूसरी उड़ान का फायदा उठाएगी, इसमें कंपनी कई माइक्रो सेटेलाइट को ‘’लो अर्थ और सन सिंक्रोमस’’ ऑरबिट्स में भेजेगी। यह सेटेलाइट एक गैर घोषित अमेरिकी सेटेलाइट ग्राहक से लिए जाएंगे।

यह आशा लगाई जा रही है कि इसरो और NSIL सेटेलाइट तकनीकों के ज़्यादा स्वदेशीकरण में काम करेंगे। फिलहाल 40 से 50 फीसदी सामान को हमें विदेशों से आयात करवाना पड़ता है।

पैदा होने वाले खतरे

ऊपर बताई गई चीजों समेत आपूर्ति श्रंखला बनाना सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाईयों के लिए सामान्य है। लेकिन असली खतरा इस बात में है कि भविष्य में अंतरिक्ष के दिशा निर्देश इसरो के बजाए सरकार की तरफ से दिए जाएंगे। अब इसरो के पास उन्हें मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता।

IN-SPACEe के कार्यक्षेत्र के लिए जो भाषा इस्तेमाल की जा रही है, वही दूसरे सरकारी नियंत्रको द्वारा बिजली, टेलीकॉम, बीमा और उड्डयन में उपयोग होती है। जहां नियंत्रक के निर्देश निजी क्षेत्र की कंपनियों की क्षमताओं और उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए होते हैं। ताकि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में प्रतिस्पर्धा के लिए एक सी ज़मीन बनाई जा सके।

लेकिन व्यवहार में यह दरअसल सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को सिकोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, निजी क्षेत्र के हितों को तरजीह दी जाती है। इस तरह नियंत्रक निजी क्षेत्र के ऊपर अपना हाथ रखे होता है। इस तरह के ढांचे का मतलब है कि अपने लक्ष्यों को पाने, तकनीकी विकल्प, क्रियान्वयन और कीमत निर्धारण में सामाजिक जरूरतों के बजाए बाज़ारू ताकतों का प्रभाव होगा। लगभग सभी मामलों में इस तरह का ढांचा अपनाने से बढ़ी हुई कीमतें, गरीब़ वर्ग के लिए कम पहुंच और निजी मुनाफ़े की तुलना में सार्वजनिक उत्पाद का कम उत्पादन होता है।

इसका अंतरिक्ष क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव हो सकता है।

अपनी आजादी के बाद शुरुआती दौर से ही भारत के स्पेस प्रोग्राम ने दूसरे देशों से अलग दिशा अपनाई है। अंतरिक्ष खोज और राष्ट्रीय घमंड को बढ़ाने वाले कदम उठाने के बजाए, भारत और इसरो के प्रयास आत्म निर्भर बनने, रिमोट सेंसिंग, कार्टोग्राफी, जियो-स्पाशियल रिसोर्स मैपिंग, भू-उपयोग में आने वाले बदलावों की समेत जंगलों और शहरी क्षेत्र का मापन, दुनिया के सबसे शुरुआती सेटेलाइट शिक्षा कार्यक्रम, मछुआरों के लिए उपयोग, संचार में उपयोग और कुछ सैन्य कार्यक्रमों में उपयोग जैसे विकास के तत्वों की तरफ केंद्रित रहा है। 

अगर बाज़ारू ताकतें और निजी खिलाड़ियों के हित यहां हावी हो जाते हैं, तो कोई भी इन विकास तत्वों वाले अंतरिक्ष कार्यक्रमों में गिरावट देख सकता है। सरकार का अनुदान कम हो जाएगा और ISRO को निजी ग्राहकों से पैसा जुटाना पड़ेगा, यह निजी ग्राहक इन विकास कार्यक्रमों में से कई के पक्ष में नहीं होंगे।  केवल कम्यूनिकेशन, जियो लोकेशन जैसी कुछ अंतरिक्ष गतिविधियां ही जिंदा रह पाएंगी, वहीं कई उपयोगी कार्यक्रम सिकुड़ जाएंगे। बच जाएगा सिर्फ बड़ी कीमत वाला अंतरिक्ष खोज कार्यक्रम और अंतरिक्ष में इंसान ले जाने वाली फ्लाइट का कार्यक्रम। अमेरिका में सरकार ऊंची कीमत और कोई कमाई न होने का रोना अकसर रोती रहती है। आत्म निर्भरता पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है, क्योंकि व्यवसायिक खिलाड़ी दूसरे देशों की लॉन्च सर्विस को प्राथमिकता देंगे। या फिर वे सेटेलाइट और औज़ारों के लिए विदेशी सहयोग भी ले सकते हैं।

दूसरा खतरा रणनीतिक क्षेत्र में है। ज़्यादातर अंतरिक्ष उपयोग दो तरह के होते हैं, पहला नागरिक और दूसरा सैन्य। कई देशों में नागरिक प्रक्षेपण और मिसाईलों में एक ही तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। कई देशों में एक ही रॉकेट इंजन भी इस्तेमाल किया जाता है। इसरो ने अंतरिक्ष तकनीकों में आत्मनिर्भरता को पाने के लिए बहुत दर्द सहा है, इसलिए बिना कड़े नियंत्रण के ऐसी तकनीकों को निजी क्षेत्र के साथ साझा करने से अनचाहे नतीज़े निकल सकते हैं।

जब बोईंग या लॉकहीड मार्टिन जैसी अमेरिकी कंपनियां नागरिक और सैन्य दोनों क्षेत्रों में काम करती हैं और नासा खुद का ईंजन नहीं बनाती, तो यह चीज अहम समझ में नहीं आती।  लेकिन अमेरिका में तो निजी सैन्य औद्योगिक कॉम्प्लेक्स भी राज्य का हिस्सा है। दुर्भाग्य से मौजूदा सरकार रक्षा निर्माण क्षेत्र को विदेशी रक्षा कंपनियों के लिए खोलने को कोई खतरा नहीं मानती और खुशी-खुशी घरेलू निजी कंपनियों को विदेशी कंपनियों के साथ गठजोड़ करने की अनुमति देती है। अगर सरकार का आत्मनिर्भरता का यह दृष्टिकोण है, तो स्पेस सेक्टर को खोलने में भी इसी तरह के खतरों का अंदेशा आसानी से हो जाता है।

काल्पनिक अनुमान

जब इन ‘सुधारों’ की घोषणा की जा रही है, तब सरकार ने कुछ बढ़ा-चढ़ाकर दावे किए हैं। इन कदमों को ‘हमारे देश को तकनीकी तौर पर उन्नत बनाने की दिशा में एक और कदम बताया गया।’ लेकिन यह नहीं बताया गया कि ऐसा कैसे होगा। निजी क्षेत्र को उन्नत तकनीक तक पहुंच और कांट्रेक्ट से फायदा होगा और लेकिन यह लोग इसरो की तकनीक पर निर्भर रहेंगे। भारत में किसी भी तकनीकी क्षेत्र में निजी क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र से आगे नहीं है। खुद सरकारी नीति यह कहती है कि हर तरह का शोध इसरो के द्वारा किया जाएगा और यह किया भी जा रहा है। किसी भी तरह के नए शोध या इनपुट का वायदा निजी क्षेत्र की तरफ से नहीं है। तो यह समझना मुश्किल है कि कैसे निजी क्षेत्र की सहभागिता से तकनीकी उन्नति होगी।

इसी तरह सरकार का प्रेस नोट कहता है कि सुधारों के ज़रिए, ‘इस क्षेत्र को नई ऊर्जा और गति मिलेगी और देश को अंतरिक्ष की गतिविधियों में अगला कदम उठाने में मदद मिलेगी।’ एक बार फिर, तकनीक, क्षमता या इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए यहां भी कोई दृष्टिकोण, निवेश या मिशन दिखाई नहीं देता। इन तकनीकों से ‘भारतीय उद्योगों को वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में अहम खिलाड़ी बनने में मदद मिलेगी’ या ‘इनसे तकनीकी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोज़गार पैदा होंगे और भारत वैश्विक स्तर पर तकनीक का पॉवरहाउस बन जाएगा’, इस तरह के दावे केवल दिन में देखे जाने वाले कोरे सपने हैं, इनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है।

इस कोरे सपने के लिए पुरस्कार के तौर पर किस चीज की अपेक्षा की जा रही है। माना जा रहा है कि निजी क्षेत्र अंतरिक्ष खोजबीन में सहभागिता निभाएगा। भारत में निजी कंपनियां ऐतिहासिक तौर पर लगातार औद्योगिक या तकनीकी शोध से दूर भागती रही हैं। अब हम उनसे अपेक्षा कर रहे हैं कि यह निजी कंपनियां अपना पैसा अंतरिक्ष में खर्च करेंगी? ऐसा हो सकता है, बशर्ते सरकार किसी क्रॉनी कैपिटलिस्ट को चांद जैसे किसी ग्रह-उपग्रह पर खनन अधिकार का वायदा कर दे?

मूल आलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Privatisation in Space: Poor Prospects and the Inevitable Lurking Danger

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