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महिलाएँ आधे से ज़्यादा आसमान की मालिक हैं

हाल ही में जारी हुए श्रम बल सर्वेक्षण पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली 73.2% महिला श्रमिक कृषि क्षेत्र में काम करती हैं; वे किसान हैं, खेत मज़दूर हैं और कारीगर हैं।
Women Hold Up More Than Half the Sky
जुनैना मुहम्मद (भारत) / यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स, कोरई के खेतों में काम करती एक महिला, जहाँ महिलाएँ अक्सर कम उम्र से ही जीविकोपार्जन के लिए काम करने लगती हैं

रिमाइंडर: भारत के किसान और खेत मज़दूर तीन कृषि बिलों, जिन्हें सितंबर 2020 में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने क़ानून बना दिया था, के ख़िलाफ़ देश भर में आंदोलन कर रहे हैं। जून 2021 में प्रकाशित हमारे डोज़ियर ने इस स्थिति का सार संक्षेप स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया था:

यह स्पष्ट है कि भारतीय कृषि में समस्या बहुत अधिक संस्थागत समर्थन नहीं है, बल्कि संस्थानों के अपर्याप्त और असमान विस्तार के साथ-साथ ग्रामीण समाज में अंतर्निहित असमानताओं को दूर करने के लिए इन संस्थानों की अनिच्छा है। इस बात का कोई सबूत नहीं है कि कृषि व्यवसाय फ़र्म बुनियादी ढाँचे का विकास करेगा, कृषि बाज़ारों को बढ़ाएगा, या किसानों को तकनीकी सहायता प्रदान करेगा। किसानों के सामने ये सभी बातें स्पष्ट हैं।

किसानों का विरोध, जो अक्टूबर 2020 में शुरू हुआ, उस स्पष्टता का संकेत है जिसके साथ किसानों ने कृषि संकट को लेकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और साफ़ तौर पर कहा है कि उन तीन क़ानूनों से कृषि संकट और गहरा होगा। सरकार का कोई भी प्रयास - जिसमें धार्मिक आधार पर किसानों को उकसाने की कोशिश भी शामिल है - किसानों की एकता को तोड़ने में सफल नहीं हुआ है। एक नयी पीढ़ी है जिसने विरोध करना सीख लिया है, और वो पूरे भारत में अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है।

जनवरी 2021 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने किसान आंदोलन के बारे में कई याचिकाओं पर सुनवाई की। मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने चौंकाने वाली टिप्पणी के साथ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की: 'हमें यह भी समझ में नहीं आता है कि विरोध प्रदर्शनों में बुज़ुर्गों और महिलाओं को क्यों रखा जाता है'। 'रखा जाता है'? क्या मुख्य न्यायाधीश का मानना ​​था कि महिलाएँ किसान नहीं हैं या कि किसान महिलाएँ अपनी मर्ज़ी से विरोध प्रदर्शन में नहीं आ रही हैं? उनकी टिप्पणी से यही समझ में आता है।

हाल ही में जारी हुए श्रम बल सर्वेक्षण पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली 73.2% महिला श्रमिक कृषि क्षेत्र में काम करती हैं; वे किसान हैं, खेत मज़दूर हैं और कारीगर हैं। जबकि, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले केवल 55% पुरुष श्रमिक कृषि कार्यों में लगे हैं। यह भी बताया जाना ज़रूरी है कि केवल 12.8% महिला किसानों के पास ही ज़मीन है। इससे भारत में व्याप्त लैंगिक असमानता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, और संभवत: यही मुख्य न्यायाधीश की पूर्वग्रहों से भरी इस टिप्पणी का कारण रहा हो।

संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ़एओ) ने एक दशक पहले कहा था कि 'केवल कृषि उत्पादनों में लैंगिक अंतर को ख़त्म करने से 10-15 करोड़ लोगों को भुखमरी से बाहर लाया जा सकता है'। हमारे समय में भुखमरी की भयावह समस्या -जिसे पिछले सप्ताह के न्यूज़लेटर में हमने उजागर किया था- को देखते हुए कृषि में महिलाओं को, जैसा कि एफ़एओ का मानना है, 'समान भागीदार माना जाना चाहिए'।

करुणा पाइयस पी (भारत) / यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स, ईंट का काम, स्थानीय ढंग से इसे 'पक्का में काम' कहा जाता है।

ट्राईकॉन्टिनेंटल रिसर्च सर्विसेज़ (दिल्ली) से भारत की महिलाओं की स्थिति पर एक नया डोज़ियर "समानता की कठिन राह पर भारत की महिलाएँ" (संख्या 45, अक्टूबर 2021) जारी होने जा रहा है। डोज़ियर के शुरुआत में एक ईंट भट्ठे पर काम करने वाली पाँच महिलाओं का एक चित्र है। जब मैंने वह चित्र देखा, तो मुझे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की नेता वृंदा करात द्वारा महिला निर्माण श्रमिकों के श्रम के बारे में किए गए एक हिसाब की याद आ गई। झारखंड की राजधानी राँची में काम करने वाली एक नौजवान महिला बीना, एक बहुमंज़िला इमारत में मिस्त्रियों तक 1,500 से 2,000 ईंटें ढोकर ले जाती है। बीना हर दिन कम-से-कम 3,000 किलोग्राम ईंटें उठाती हैं, जिनमें से प्रत्येक का वज़न 2.5 किलोग्राम है, फिर भी वह एक दिन में 150 ($2) से भी कम कमाती है और उसके शरीर में दर्द होता रहता है। बीना ने करात से कहा, 'दर्द मेरे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है। मुझे ऐसा एक दिन भी याद नहीं जो बिना इस दर्द के बीता हो'।

डेनिएला रग्गेरी (अर्जेंटीना) / ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान, शिशु देखभाल केंद्र के कार्यकर्ता मोदी सरकार के महिला व श्रमिक-विरोधी व्यवहार का विरोध करते हुए

रिमाइंडर: भारत में महिलाएँ किसानों के आंदोलन, मज़दूरों के आंदोलन और लोकतंत्र के विस्तार के आंदोलन का अभिन्न अंग रही हैं। क्या यह कहने की ज़रूरत है? ऐसा लगता है कि इतने स्पष्ट तथ्य को भी बार-बार दोहराए जाने की ज़रूरत है। 

इस महामारी के दौरान, महिला सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और महिला शिशु देखभाल कार्यकर्ताओं ने समाज को एक साथ बाँधे रखने में केंद्रीय भूमिका निभाई है, जबकि उनकी उपेक्षा जारी रही और उनके काम को महत्वहीन समझा जाता रहा। 24 सितंबर 2021 को, एक करोड़ आशा कार्यकर्ताओं और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने स्थायी रोज़गार और कोविड-19 महामारी के दौरान अपने काम के लिए बेहतर सुरक्षा की माँग करते हुए हड़ताल की। उन्होंने कहा कि, 'अति-धनाढ्य वर्ग पर टैक्स लगाओ', कृषि बिलों को निरस्त करो, सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण बंद करो और महिला श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करो।

पिछले सालों में, आशा कार्यकर्ता नियमित उत्पीड़न, यहाँ तक कि यौन उत्पीड़न की भी शिकायत कर चुकी हैं। 2013 में, भारत सरकार संगठित और असंगठित दोनों तरह के श्रमिकों की सुरक्षा के लिए महिलाओं का कार्यस्‍थल पर लैंगिक उत्‍पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम लागू किया था। आशा व इस तरह की अन्य सरकारी स्कीमों के लिए इस अधिनियम के तहत कोई नियम नहीं बनाए गए हैं, और न ही ये कार्यकर्ता अपने उत्पीड़न के अनुभवों को कॉर्पोरेट मीडिया के पहले पन्ने पर ला पाने में सक्षम हैं।

पितृसत्तात्मक शोषण और हिंसा की व्यापकता को ध्यान से समझते हुए हमारे डोज़ियर में विभिन्न वर्गों की महिलाओं पर इसके अलग-अलग प्रभावों का उल्लेख किया गया है। यूनियनों और वामपंथी संगठनों की मज़दूर वर्ग की महिलाओं ने एक तरह की जन संवेदनशीलता का निर्माण किया है; नतीजतन, उनके संघर्षों में अब पितृसत्ता के ख़िलाफ़ माँगें शामिल हैं जो अन्यथा उनके जीवन से परे थीं। उदाहरण के लिए, कामकाजी वर्ग की अधिकतर महिलाओं को अब यह स्पष्ट हो गया है कि उन्हें मातृत्व अवकाश, समान काम के लिए समान वेतन, क्रेच की सुविधा की गारंटी, और कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ निवारण और रोकथाम तंत्र जैसी अपनी माँगों को जीतना होगा। इस तरह की माँगों पर हासिल जीत परिवार और समुदाय तक जाती है, जहाँ घरों पर होने वाली पितृसत्तात्मक हिंसा के ख़िलाफ़ हमारे संघर्ष और अन्य संघर्षों के माध्यम से भारत के लोकतांत्रिक आंदोलनों का विस्तार किया जा सकता है।

विकास ठाकुर (भारत) / ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान, पुदुक्कोट्टई, तमिलनाडु में एक साइकिल प्रशिक्षण शिविर

महिला आंदोलन के लिए किसान आंदोलन के महत्व के बारे में इन कुछ शब्दों के साथ हमारा डोज़ियर समाप्त होता है: 

हालाँकि भारत के महिला आंदोलन ने दशकों में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन इसकी ऊर्जा न केवल बरक़रार है बल्कि इस आंदोलन ने बदलती सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल ढल कर, अपने विस्तार की जगह भी बनाई है। वर्तमान स्थिति जन आंदोलनों को मज़बूत करने तथा महिलाओं व श्रमिकों के अधिकारों और आजीविका की ओर समाज का ध्यान केंद्रित करने का अवसर प्रदान कर सकती है। किसान आंदोलन, जो महामारी से पहले शुरू हुआ था और लगातार मज़बूती से डटा हुआ है, इस तरह के एजेंडे को देश भर की आम बातचीत में शामिल करवाने का अवसर प्रदान करता है। दिल्ली के बोर्डरों पर बारी-बारी से बैठने के लिए विभिन्न राज्यों से यात्रा कर आने वाली ग्रामीण महिलाओं की ज़बरदस्त भागीदारी एक ऐतिहासिक घटना है। किसान आंदोलन में उनकी उपस्थिति महामारी के बाद के भविष्य में महिला आंदोलन के लिए आशा प्रदान करती है।

रिमाइंडर: किसानों की तरफ़ से उठाए जाने वाले नारों में कुछ भी अनोखा नहीं है। इनमें से अधिकतर लंबे समय से किए जा रहे दावे हैं। विरोध स्थलों पर महिला किसानों द्वारा की गई और किसान संगठनों द्वारा दोहराई जा रही माँगें राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा अप्रैल 2008 में सामने रखी गई 'ड्राफ़्ट नेशनल पॉलिसी फ़ॉर विमन इन ऐग्रिकल्चर' के दावों से मेल खाती हैं। इस नीति में निम्नलिखित प्रमुख माँगें शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण है:

1. भूमि, पानी और चारागाह/वन/जैव विविधता संसाधनों सहित सभी संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच और उनपर महिलाओं का नियंत्रण सुनिश्चित करें।

2. समान काम के लिए समान मज़दूरी की गारंटी दें।

3. प्राथमिक उत्पादकों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फ़सल ख़रीदें और सुनिश्चित करें कि पर्याप्त खाद्यान्न सस्ती क़ीमतों पर उपलब्ध हो।

4. महिलाओं को कृषि से जुड़े उद्योगों (मत्स्य पालन और कारीगरी आदि) में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करें।

5. महिलाओं को कृषि पद्धतियों और प्रौद्योगिकियों में प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करें जो महिलाओं द्वारा अर्जित ज्ञान और उनके द्वारा अपनाई जाने वाली प्रथाओं के प्रति संवेदनशील हों।

6. सिंचाई, ऋण और बीमा जैसी सेवाओं की पर्याप्त और समान उपलब्धता प्रदान करें।

7. प्राथमिक उत्पादकों को बीज, वन और डेयरी उत्पादों और पशुधन के उत्पादन और विपणन के लिए प्रोत्साहित करें।

8. व्यवहार्य विकल्प प्रदान कर महिलाओं की आजीविका को विस्थापित होने से रोकें।

वामपंथी महिला आंदोलन ने इन माँगों को वापस विचार के केंद्र में ला दिया है। दक्षिणपंथी सरकार उनकी नहीं सुनेगी।

इंग्रिड नेवेस (ब्राज़ील) / ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान, समुद्र की जंगली घास काटने वाला एक आदमी, समंदर की लहरों का सामना करता हुआ

एक बार फिर से, बहुत सावधानी और प्यार से बनाया गया हमारा डोज़ियर आपके पास आ रहा है। इस बार हमारी टीम ने यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स (इंडिया) के साथ मिलकर काम किया है। एक साथ काम करते हुए हमें, भारत के महिला आंदोलन के इतिहास और किसानों के आंदोलन से शक्तिशाली तस्वीरें मिली हैं, जिनका हमने डोज़ियर में इस्तेमाल किया है। हम आपको इस कला की एक ऑनलाइन प्रदर्शनी में आमंत्रित करने के लिए उत्सुक हैं, समाजवादी भविष्य के एक संभावित मार्ग के विस्तार करने की दिशा में हमारी छोटा-सी पहल।

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