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साल 2022: अदालतों के वो प्रगतिशील फ़ैसले, जिसने महिलाओं-समलैंगिकों को बनाया और भी सशक्त

इस साल अदालतों ने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए, जिसमें गर्भपात के अधिकार से लेकर छात्रावासों में नाइट कर्फ़्यू की बड़ी समस्या तक को कानून की कसौटी में कसकर महिलाओं की आज़ादी की बात सामने आई।
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साल 2022 खत्म होेने को है, ऐसे में इस साल तमाम उठा-पठक के बीच देश की अदालतों ने कई बार अपने प्रगतिशील फैसलों से पितृसत्ता और मनुवादी सोच को झकझोरा है। सरकार और प्रशासन को कड़ी फटकार लगाई है, तो वहीं महिलाओं और एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को एक नई आशावादी बेहतर कल की उम्मीद भी दी है। एक नज़र ऐसे ही फैसलों पर, जिन्होंने न्याय व्यवस्था में लोगों के विश्वास को और मजबूत किया...

पिता की प्रॉपर्टी में बेटियों का हक़

इस साल की शुरुआत में 20 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने पिता की प्रॉपर्टी में बेटियों का हक़ सुनिश्चित करते हुए 51 पन्नों का फैसला सुनाया जिसमें प्राचीन हिंदू उत्तराधिकार कानूनों और तमाम अदालतों के पुराने फैसलों का ज़िक्र किया गया। ये फैसला मद्रास हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दाखिल अपील पर सामने आया था, जिसमें सर्वोच्च अदालत ने साफ किया था कि बिना वसीयत किए मरे हिंदू पुरुष की बेटियां, पिता द्वारा स्व-अर्जित और बंटवारे में हासिल दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने की हकदार होंगी और उसे परिवार के दूसरे हिस्सेदार सदस्यों पर वरीयता मिलेगी। ये फ़ैसला संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज समुदाय पर लागू होगा।

बता दें कि साल 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के पहले शादीशुदा महिलाओं को अपने पिता के घर कानूनी रूप से रहने का अधिकार तक नहीं था। यानी समाज की तरह ही क़ानून की नज़रों में भी महिलाओं का असल घर उनका ससुराल ही माना जाता था। साल 2005 में इस नियम को बदला गया और शादी के बाद भी बेटियों को अपने पिता की स्व-अर्जित प्रॉपर्टी पर बेटों के बराबर हक़ दिए गए। हालांकि इसमें भी कई अड़चनें थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में स्पष्ट करते हुए महिलाओं को 1956 के पहले की भी पिता की स्व-अर्जित या दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने का अधिकार दिया।

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लिव-इन रिलेशनशिप में घरेलू हिंसा को मान्यता

टेनिस स्टार लिएंडर पेस और मॉडल रिया पिल्लई के रिश्ते को लेकर मुंबई की एक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने रिया के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा था कि सिर्फ़ इसलिए कि लिव-इन रिलेशनशिप अस्वीकार्य है, महिला को उसके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। पेस के साथ लिव-इन में रहने वाली रिया पिल्लई ने साल 2014 में मुंबई के मेट्रोपॉलिटन कोर्ट में लिएंडर और उनके पिता के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत की थी। रिया और पेस दोनों ने ही एक-दूसरे पर शादी से बाहर रिश्ते रखने के आरोप लगाए थे। जिसके बाद इस साल फरवरी में करीब आठ साल बाद कोर्ट ने रिया के पक्ष में फैसला सुनाया था।

लिव-इन रिलेशनशिप में घरेलू हिंसा को मान्यता देने वाला ये फैसला अपने आप में उन तमाम पीड़ित महिलाओं के लिए एक उम्मीद है, जो समाज में अपने रिश्ते के अस्तित्व तो लेकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हैं। वैसे तो भारतीय कानून के अनुसार लिव इन में अगर स्त्री के अधिकारों का किसी भी तरह हनन होता है तो महिला अपने पुरुष साथी पर घरेलू हिंसा अधिकार अधिनियम के अंतर्गत केस कर सकती है। लेकिन अक्सर इन रिश्तों को कैजुअल समझे जाने के कारण इन रिलेशन में रहने वालों के बीच किसी भी कानूनी बंधन को इंकार कर देना आसान हो जाता है। ऐसे में ये फैसला निश्चित तौर पर अंधेर में रोशनी जैसा है।

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मैरिटल रेप में छूट, समानता के अधिकार का उल्लंघन

इस साल मार्च में कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि सेक्शन 375 के तहत बलात्कार की सज़ा में पतियों को छूट समानता के अधिकार यानी अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। हाईकोर्ट के मुताबिक शादी क्रूरता का लाइसेंस नहीं है। कोर्ट ने अपने फैसले में आरोपी पति की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत अपनी पत्नी द्वारा लगाए बलात्कार के आरोप को हटाने की मांग की थी। अदालत ने पति के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया कि आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 के चलते बलात्कार के अपराध में वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप अपवाद की श्रेणी में है और इसलिए उसके खिलाफ आरोप तय नहीं किया जा सकता है।

कर्नाटक हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि शादी समाज में किसी भी पुरुष को ऐसा कोई अधिकार नहीं देती है कि वह महिला के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करे। अगर कोई भी पुरुष महिला की सहमति के बिना संबंध बनाता है या उसके साथ क्रूर व्यवहार करता है, तो यह दंडनीय है। चाहे फिर पुरुष महिला का पति ही क्यों न हो। अदालत का ये फैसला ऐसे समय में सामने आया था जब मैरिटल रेप को लेकर देश में बहस तेज़ थी।

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मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। तलाकशुदा औरतें 'इद्दत' (किसी भी महिला के तलाक या उसके पति की मृत्यु के बाद की एक निर्धारित अवधि) की अवधि के बाद भी दूसरी शादी तक गुजारा भत्ता पा सकती हैं। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के साल 2009 में शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले का जिक्र करते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत प्रावधान लाभकारी कानून हैं और इसका लाभ तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को मिलना चाहिए। इससे पहले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तलाक में सिर्फ मेहर की रकम लौटाना ही काफी मानता था। इसमें गुजारा भत्ता देने की कोई व्यवस्था नहीं थी, खासकर इद्दत की अवधि के बाद। लेकिन शाह बानो ने 62 साल की उम्र में तलाक के बाद अपने हक के लिए पति के खिलाफ कानूनी जंग छेड़ी और जीत हासिल की।

इस्लाम जानकारों के मुताबिक शरीयत में इद्दत अवधि के बाद गुजारा-भत्ता लेना या देना हराम (अवैध) माना जाता रहा है, क्योंकि इद्दत अवधि खत्म होने के बाद पुरुष और महिला का रिश्ता भी खत्म हो जाता है। ऐसे में इलाहाबाद हाई कोर्ट का ये फैसला कोई नया नहीं था, लेकिन खास जरूर था, जिसने एक बार फिर असंख्यक महिलाओं के अधिकारों को सशक्त किया।

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सेक्स वर्क भी एक पेशा,

सेक्स वर्कर्स को ज़्यादातर अपराधियों के रूप में देखा जाता है। समाज और पुलिस उनके साथ असंवेदशील व्यवहार करती है, उन्हें तिरस्कार तक का सामना करना पड़ता है। लेकिन इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट के एक एतिहासिक आदेश से लाखों सेक्स वर्कर्स की ज़िंदगी बदलने की उम्मीद जागी। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि सेक्स वर्क यानी की वेश्यावृत्ति एक पेशा है और सेक्स वर्कर्स कानून के अनुसार सम्मान और समान सुरक्षा की हकदार हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस से भी कहा था कि अपनी सहमति से सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने वालों के खिलाफ न तो उन्हें दखल देना चाहिए और न ही कोई आपराधिक कार्रवाई शुरू करनी चाहिए।

ध्यान रहे कि कई अलग-अलग आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 10 लाख यौनकर्मी हैं। इनमें से ज्यादातर ना तो वोट दे सकती हैं, ना बैंक खाते खोल सकती हैं और ना ही इन्हें राज्यों से गरीब लोगों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ मिलता है। इनके पास जरूरी दस्तावेजों का नहीं होना इसकी वजह है और अक्सर ये कर्ज के जाल में फंस जाती हैं जहां साहूकार इनसे मनमाना ब्याज वसूलने के साथ ही परेशान भी करते हैं। बीते साल ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि पंजीकृत यौनकर्मियों को राशन कार्ड और वोटर आईडी कार्ट जारी किए जाएं और उनका आधार पंजीकरण भी किया जाए। इससे सेक्स वर्कर्स की जिंदगी और सम्मान पर प्रभाव देखने को मिलेगा।

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महिला को मायके और ससुराल दोनों जगह रहने का अधिकार

इस साल जून के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने एक ज़रूरी टिप्पणी में कहा था कि कोर्ट महिला को सिर्फ़ इसलिए घर से बाहर निकालने की इजाज़त नहीं देगा क्योंकि वह अन्य सदस्यों को पसंद नहीं है, उसे मायके और ससुराल दोनों जगह रहने का अधिकार है। जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की वैकेशन बेंच ने एक रिट याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि अगर किसी महिला पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाता है, तो अदालत द्वारा वैवाहिक घरों में बुजुर्गों और परिवार के सदस्यों को परेशान न करने के लिए शर्तें रखी जा सकती हैं। लेकिन अदालत इसलिए किसी को भी उसे बाहर निकालने की अनुमति नहीं देगी क्योंकि वे उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।

सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के हितों की रक्षा करने को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसले में घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत साझे घर में रहने के अधिकार की व्यापक व्याख्या की थी। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि महिला, चाहे वो मां, बेटी, बहन, पत्नी, सास, बहू या घरेलू संबंधों में हो उसे साझे घर में रहने का अधिकार है।

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समलैंगिक साथ रहने के लिए आज़ाद

इस साल प्राइड मंथ की शुरुआत के साथ ही केरल हाई कोर्ट ने समलैंगिकता को लेकर एक नज़ीर पेश करने वाला फैसला सुनाया था। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दो बालिक लोग अपनी मर्ज़ी से साथ रहना चाहें तो रह सकते हैं। कोर्ट ने 30 मई को एक अहम फ़ैसला सुनाते हुए केरल के एक लेस्बियन कपल को एक साथ रहने की अनुमति देते हुए उन्हें आज़ाद घोषित कर दिया था।

बता दें कि साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग देश में भेदभाव का सामना करते हैं, उन्हें एॉब्नार्मल माना जाता है। ऐसे में एक लेस्बियन कपल को एक साथ रहने की अनुमति देने वाला केरल हाई कोर्ट का फैसला बदलाव की एक मिसाल है।

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लिव-इन से जन्मा बच्चा भी पैतृक संपत्ति का हिस्सेदार

सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशन से जन्मे बच्चे को लेकर एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि लंबे समय तक बगैर शादी के साथ रहे जोड़े से पैदा अवैध संतान को भी परिवार की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच के मुताबिक अगर पुरुष और महिला सालों तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं, तो मान लिया जाता है कि दोनों में शादी हुई होगी और इस आधार पर उनके बच्चों का पैतृक संपत्ति पर भी हक रहेगा। जाहिर है हिंदुओं में संपत्ति के बंटवारे को लेकर सामने आया ये महत्वपूर्ण फैसला लिव-इन जोड़े से पैदा बच्चे में विश्वास को स्थापित करता है।

बता दें कि पहले ये मामला केरल की एक निचली अदालत में पहुँचा था। इसके बाद ये मामला पहले केरल हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए केरल हाई कोर्ट के उस फ़ैसले को दरकिनार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि बगैर शादी के साथ रहे जोड़े की संतान को परिवार की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिल सकता। इससे पहले ट्रायल ने पैतृक संपत्ति में बंटवारा करने और इसका उचित हिस्सा इस जोड़े से पैदा बच्चे को देने को कहा था।

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महिला को बच्चे और करियर के बीच चयन के लिए नहीं कहा जा सकता

बॉम्बे हाई कोर्ट ने जुलाई के अपने एक अहम फैसले में कहा था कि महिला को अपना विकास करने का पूरा अधिकार है। मां बन चुकी महिला को अपने बच्चे और करियर के बीच चयन करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। इसी के साथ अदालत ने पुणे फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें एक पत्नी को अपनी नाबालिग बेटी के साथ क्राको, पोलैंड में दो साल रहने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी थी। अदालत ने अपने आदेश में साफ किया कि पिता-पुत्री का प्रेम खास है, पर कोर्ट एक महिला की नौकरी का अवसर बाधित नहीं कर सकता।

ये किसी से छिपा नहीं है कि कि महिलाओं के लिए करियर और परिवार हमेशा से एक चुनौती रहा है। और इसकी सबसे बड़ी वजह हमारा पितृसत्तात्मक समाज है, जो महिला की भूमिका एक बेटी, पत्नी और मां से इतर बर्दाश्त ही नहीं कर पाता। महिलाएं नौकरी को यदि प्राथमिकता दें तो उन्हें अति महत्वाकांक्षी करार दे दिया जाता है। उसे समाज अनेक बंधनों में बांध देता है और ज्यादातर उसे पारिवारिक मूल्यों की भेंट चढ़ा दिया जाता है। ऐसे में अदालत का ये फैसला महिलाओं को एक नया रास्ता जरूर दिखाता है।

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गर्भपात को लेकर विवाहित और अविवाहित महिला में फ़र्क़ नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने इस साल अपने एक ऐतिहासिक फैसले में 24 सप्ताह की गर्भवती अविवाहित महिला को गर्भपात की इजाज़त देने के साथ कहा था कि जो मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी का जो क़ानून बनाया गया है उसका मकसद पूरा नहीं होगा अगर विवाहित और अविवाहित में फ़र्क़ किया जाएगा। इसके साथ ही सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली हाई कोर्ट के इस मामले में आए फैसले को पलट दिया था, जिसमें एक महिला को 23 हफ्तों का गर्भ गिराने की इजाजत देने में आपत्ति जताई गई थी।

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट 2021 में जो बदलाव किया गया है उसके तहत एक्ट में महिला और उसके पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहां पार्टनर शब्द का इस्तेमाल है न कि पति शब्द का। ऐसे में एक्ट के दायरे में अविवाहित महिला भी कवर होती है। इसके अलाव कोर्ट ने इस दौरान 'मैरिटल रेप' यानी 'वैवाहिक बलात्कार' पर भी बात रखते हुए कहा था कि वैवाहिक जीवन में पति के ज़बरन शारीरिक संबंध बनाने की वजह से हुई गर्भावस्था भी एमटीपी एक्ट यानी मेडिकल टर्मिनेशन प्रेग्नेंसी क़ानून के दायरे में आती है।

हालांकि कोर्ट ने इसे सिर्फ़ एमटीपी क़ानून के संदर्भ में ही समझे जाने की बात कही है क्योंकि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के दायरे में वैवाहिक बलात्कार अभी नहीं है और सुप्रीम कोर्ट की अन्य बेंच के पास ये मामला लंबित है। लेकिन कोर्ट के इस कथन से भविष्य में मैरिटल रेप को लेकर आने वाले फैसलों के लिए भी रास्ता दिखाई देता है।

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आस्था से परे है जीवनसाथी चुनने की आज़ादी

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस अनूप कुमार मेंदीरत्ता ने इस साल अक्तूबर में प्रेम विवाह से संबंधित एक मामले पर सुनवाई करते हुए कहा था कि विवाह में निजी पसंद की स्वतंत्रता भारत के संविधान के अनुच्छेद-21 का अंतर्निहित हिस्सा है। यहां तक कि आस्था के सवालों का भी जीवनसाथी चुनने की किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई असर नहीं पड़ता और यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल तत्व है। इसके साथ ही उन्होंने अपने आदेश में कहा कि पुलिस से उम्मीद की जाती है कि वह ऐसे जोड़ों की सुरक्षा के लिए त्वरित एवं संवेदनशीलता के साथ कार्रवाई करे जिन्हें अपने परिवार के सदस्यों सहित अन्य लोगों से खतरे की आशंका है।

इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी अपने एक अहम फ़ैसले में 11 नवंबर 2020 को दिए आदेश में कहा था कि अपनी पसंद के शख़्स के साथ रहने का अधिकार, चाहे उनका मज़हब कुछ भी हो, जीवन और निजी आज़ादी के अधिकार का स्वाभाविक तत्व है। अदालत में जस्टिस पंकज नक़वी और जस्टिस विवेक अग्रवाल की बेंच ने यह अहम फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि 'वयस्क हो चुके शख़्स का अपनी पसंद के शख़्स के साथ रहने का फ़ैसला किसी व्यक्ति के अधिकार से जुड़ा है और जब इस अधिकार का उल्लंघन होता है तो यह उस शख़्स के जीवन जीने और निजी आज़ादी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है क्योंकि इसमें चुनाव की आज़ादी, साथी चुनने और सम्मान के साथ जीने के संविधान के आर्टिकल-21 के सिद्धांत शामिल हैं।'

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यौन हिंसा जांच के लिए टू-फिंगर टेस्ट को पूरी तरह से बैन करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर में इसे अवैज्ञानिक मानते हुए मेडिकल की पढ़ाई से भी हटाने का आदेश दिया। साथ ही कोर्ट ने चेतावनी भी दी थी कि टू-फिंगर टेस्ट करने वालों को दोषी ठहराया जाएगा। वैसे निर्भया कांड के बाद ही टू-फिंगर टेस्टपर रोक लगा दी गई थी। बावजूद इसके कई जगह ये प्रक्रिया अभी भी चालू थी।

अपने फैसले के दौरान अदालत ने स्पष्ट तौर पर ज़ोर देकर कहा था कि सच्चाई से आगे कुछ भी नहीं हो सकता है यह तय करने में कि क्या आरोपी ने उसका बलात्कार किया है और यहां एक महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से महत्वहीन है। कई बार एक महिला पर विश्वास नहीं किया जाता है जब वह बताती है कि उसके साथ बलात्कार किया गया है, सिर्फ इसलिए कि वह यौन रूप से सक्रिय है। यह पितृसत्तात्मक और महिला-विरोधी मानसिकता है।

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पूर्व महिला वायु सेना अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट से न्याय

सेना में महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों की एक दशक से ज्यादा लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इस साल सुप्रीम कोर्ट ने इन अधिकारियों के हक़ में फैसला सुनाते हुए स्थायी कमीशन अधिकारियों की तर्ज पर रिटायर्ड महिला एसएससीओएस को पेंशन लाभ देने की बात कही। आदेश के मुताबिक भारतीय वायुसेना की 32 महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान स्थायी कमीशन के लिए विचार नहीं किए जाने को अदालत में चुनौती नहीं दी थी, उन्हें बहाल तो नहीं किया जा सकता लेकिन उन्हें सेवा निवृत्ति की तारीख के बाद उचित समय के भीतर उस फैसले से मिलने वाले लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 2010 दिल्ली हाई कोर्ट के बबिता पुनिया मामले का जिक्र किया है। इसमें कहा गया था कि सशस्त्र बलों में महिलाओं के लिए भेदभावपूर्ण भर्ती प्रथाएं हैं, जिसके चलते उन्हें उन पदों से बाहर रखा गया, जिनकी वे अन्यथा हकदार थी। बीते साल भी एक मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि महिला अधिकारियों को सेना में स्थायी कमीशन देने के लिए ACR यानी सर्विस का गोपनीय रिकॉर्ड मेंटेन करने की प्रक्रिया भेदभावपूर्ण और मनमानी है। यह तरीका महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का सामान अवसर नहीं दे पाएगा।

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नाइट कर्फ़्यू नहीं, लड़कियों को आजाद रहने दें

कई बड़े आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों के बावजूद छात्रावासों में नाइट कर्फ़्यू एक बड़ी समस्या है, जो देश की शिक्षा व्यवस्था का पितृसत्तात्मक चेहरा दिखाता है। हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने गर्ल्स हॉस्टल में 'कर्फ्यू टाइमिंग' यानी हॉस्टल से बाहर निकलने की पाबंदी के समय को लेकर कहा था कि आधुनिक समय में जेंडर बेस्ड सिक्योरिटी देने के नाम पर किसी भी तरह के पितृसत्तावाद को नजर अंदाज करना होगा। क्योंकि लड़कियां, लड़को की तरह अपनी देखभाल करने में पूरी तरह समर्थ है। अगर ऐसा नहीं है तो यह राज्य और सार्वजनिक प्राधिकरणों का प्रयास होना चाहिए कि उन्हें बंद करने के बजाय उन्हें सक्षम बनाना चाहिए। कोर्ट ने इस पूरे मामले में प्रशासन को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि यदि बंद ही करना है तो हॉस्टल में लड़कों को बंद कीजिए क्योंकि वे समस्याएं खड़ी करते हैं और लड़कियों को आजाद रहने दें।

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