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पूर्व महिला वायु सेना अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट से न्याय, सेना में लैंगिक समानता की ओर एक कदम

एक दशक से ज्यादा कानूनी लड़ाई के बाद इन 32 पूर्व महिला अधिकारियों को मिला न्याय, सेना में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को मिटाने की एक उम्मीद है।
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

सेना में महिलाओं का संघर्ष एक बार फिर सुर्खियों में है और इसकी वजह महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों की एक दशक से ज्यादा लंबी कानूनी लड़ाई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ताज़ा फैसले में इन अधिकारियों के हक़ में फैसला सुनाते हुए स्थायी कमीशन अधिकारियों की तर्ज पर इन रिटायर्ड महिला एसएससीओएस को पेंशन लाभ देने की बात कही है। आदेश के मुताबिक भारतीय वायुसेना की 32 महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान स्थायी कमीशन के लिए विचार नहीं किए जाने को अदालत में चुनौती नहीं दी थी, उन्हें बहाल तो नहीं किया जा सकता लेकिन उन्हें एकमुश्त पेंशन लाभ दिया जा सकता है।

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 2010 दिल्ली हाई कोर्ट के बबिता पुनिया मामले का जिक्र किया है। इसमें कहा गया था कि सशस्त्र बलों में महिलाओं के लिए भेदभावपूर्ण भर्ती प्रथाएं हैं, जिसके चलते उन्हें उन पदों से बाहर रखा गया, जिनकी वे अन्यथा हकदार थी। बीते साल भी एक मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि महिला अधिकारियों को सेना में स्थायी कमीशन देने के लिए ACR यानी सर्विस का गोपनीय रिकॉर्ड मेंटेन करने की प्रक्रिया भेदभावपूर्ण और मनमानी है। यह तरीका महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का सामान अवसर नहीं दे पाएगा।

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क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने जिन 32 महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों को पूरी पेंशन देने की बात कही है, ये वह अपीलकर्ता महिला अधिकारी हैं जो 1993 और 1998 के बीच शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी के रूप में भारतीय वायु सेना में शामिल हुई थीं और उन्हें दिसंबर, 2006 और दिसंबर, 2009 के बीच सेवा से मुक्त कर दिया गया था। इन अधिकारियों की नियुक्ति 25 नवंबर 1991 के विज्ञापन के अनुसार थी, जिसमें कहा गया था कि अधिकारियों को शुरू में 5 साल की अवधि के लिए शॉर्ट सर्विस कमीशन दिया जाएगा। इसके बाद उन्हें परमानेंट कमीशन (पीसी) देने पर विचार किया जाएगा। हालांकि, 5 साल की सेवा पूरी होने के बाद इन अधिकारियों को पीसी की जगह केवल 6 साल का सर्विस एक्सटेंशन मिला।

इसके बाद 1 सितंबर 2004 को भारतीय वायु सेना ने एसएससीओ को पीसी देने के लिए एक नीति जारी की, जिसमें कहा गया था कि महिला एसएससीओ को पीसी की पेशकश नहीं की जाएगी। इसके बाद 25 मई 2006 को इस शर्त के साथ की अब इन अधिकारियों को कोई पीसी नहीं दिया जाएगा इन्हें एक और विस्तार मिला और ये सेवा निवृत्त हो गईं और इन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान स्थायी कमीशन के लिए विचार नहीं किए जाने को अदालत में चुनौती नहीं दी थी।

साल 2010 में जब दिल्ली हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि महिला अधिकारियों को भी सेना में परमानेंट कमीशन मिलना चाहिए। तब इन महिलाओं ने भी कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला केवल उन महिला अदिकारियों पर लागू होना था जो उस समय सर्विस में थीं या जिन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी और कोर्ट में मामला लंबित होने के दौरान वो रिटायर हो गईं। इसके बाद इन महिला अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपने हक़ के लिए गुहार लगाई और आखिरकार 12 साल बाद उन्हें न्याय मिला।

सुप्रीम कोर्ट में फैसले के दौरान मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हेमा कोहली और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने कहा कि इन अधिकारियों ने भारतीय वायुसेना को अपना लंबा समय दिया और सर्विस के दौरान इनका ट्रैक रिकॉर्ड भी उत्कृष्ट रहा है और अधिकारियों का यह बैच बबिता पूनिया मामले में फैसले के तुरंत बाद दिल्ली हाईकोर्ट चला गया था। ऐसे में उनकी सेवा निवृत्ति की तारीख के बाद उचित समय के भीतर उस फैसले से मिलने वाले लाभ से उन्हें वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा अदालत इस तथ्य से भी बेखबर नहीं हो सकती कि अधिकारियों को 2006 और 2009 के बीच अलग-अलग तिथियों पर सेवा मुक्त कर दिया गया इसलिए सेवा में बहाली व्यवहारिक नहीं होगी। लेकिन उन्हें एकमुश्त पेंशन लाभ दिया जा सकता है।

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क्या है परमानेंट कमीशन का मामला?

सेना में फिलहाल महिला अधिकारियों को केवल दो शाखाओं जज एडवोकेट जनरल और शिक्षा कोर में ही स्थायी कमीशन मिलता था। इसके अलावा बाकी सभी जगह उनकी तैनाती शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत होती थी। इसमें महिला अधिकारियों को शुरू में पांच वर्ष के लिए लिया जाता था, जिसे बढ़ा कर 14 वर्ष तक किया जा सकता था। 14 साल के बाद उन्हें आर्मी से ऑप्ट आउट (रिटायर) करना ही होता था। यानी महिला अधिकारी निचली रैंक्स तक ही सीमित रह जाती थीं, उन्हें ऊंची पोस्ट्स, जिन्हें कमांड पोस्ट कहा जाता है वहां तक पहुंचने का मौका ही नहीं मिलता था। इसके अलावा 20 साल की सेवा पूरी न होने के कारण वे रिटायरमेंट के बाद पेंशन बेनिफिट से भी वंचित रह जाती थीं। दूसरी ओर पुरुषों को परमानेंट कमीशन के लिए सभी अवसर मिलते हैं।

इस मामले में 17 फरवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि महिला अधिकारियों को परमानेंट कमीशन देने से इंकार करना समानता के अधिकार के ख़िलाफ़ है। सरकार द्वारा दी गई दलीलें स्टीरियोटाइप हैं जिसे कानूनी रूप से कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

वैसे सरकार का महिलाओं को स्‍थाई कमीशन और कमांडेंट पोजीशन न देने के पक्ष में जो तर्क थे वो किसी बाबा आदम के दकियानूसी विचारधारा से कम नहीं थे। जिस सरकार में रक्षामंत्री की पोस्ट पर निर्मला सीतारमण की ताज़पोशी कर बीजेपी देश को पहली पूर्णकालिक महिला रक्षामंत्री देने पर अपनी पीठ थपथपा रही थी वही सरकार तर्क दे रही थी कि ‘पुरुष महिला अधिकारियों से आदेश लेना पसंद नहीं करेंगे’, ‘महिलाओं में निर्णय लेने की क्षमता पुरुषों की तरह नहीं होती।’

इक्‍कीसवीं सदी में आधुनिक हथियारों से लैस दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना का गर्व हासिल करने वाली भारतीय सेना 500 साल पुराने विचारों को अपनी ढाल बना रही थी। औरतों का शरीर मर्दों से अलग होता है, वो गर्भ धारण करती हैं, उन्‍हें हर महीने पीरियड्स होते हैं, ये सारे वाहियात तर्क दिए जा रहे थे सिर्फ ये साबित करने के लिए कैसे महिलाएं परमानेंट कमीशन और उस बहाने पेंशन से लेकर मेडिकल इंश्‍योरेंस तक तमाम जरूरी सुविधाओं की हकदार नहीं हैं, जो मर्दों को बड़ी आसानी से केवल मर्द होने के नाते मिल जाती हैं।

इसके अलावा सेना और सरकार ने महिलाओं की बायोलॉजी, उनके शरीर, प्रेग्‍नेंसी, पीरियड्स, मैटरनिटी लीव जैसी बातों को अपने पक्ष में एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की। और आखिर में जब बात नहीं बनी तो सेना ने अपने भेदभावपूर्ण फिटनेस और मेडिकल नियमों को अपनी रक्षा का सहारा बना लिया।

जाहिर है सेना में जेंडर बराबरी का संघर्ष अभी लंबा है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला महिलाओं के पक्ष में आने के बावजूद अभी तक 50 फीसदी महिला अफसरों को स्थायी कमीशन नहीं मिल पाया है, जो सेना में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को खुले तौर पर दर्शाता है। ऐसे में हमारी अदालतें ही समानता के पक्ष में एक उम्मीद की किरण नज़र आती हैं।

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