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क्या कहती है विश्व आर्थिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023

जेंडर गैप मिटाने में भारत 127वें स्थान पर है जिसे लेकर खुशी ज़ाहिर की जा रही है क्योंकि वह 8 स्थान ऊपर आ गया है। पर क्या हम संतुष्ट होकर बैठ सकते हैं? आगे इसपर बात करेंगे।
gender gap
प्रतीकात्मक तस्वीर।

हाल में जारी विश्व आर्थिक फोरम (WEF) की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट ने जो खुलासा किया है वह अत्यंत चिंताजनक है। रिपोर्ट का कहना है कि महिलाओं को बराबरी हासिल करने में और 131 वर्ष लगेंगे, यानि उन्हें 2154 तक इन्तेज़ार करना पड़ेगा! रिपोर्ट महिलाओं और पुरुषों के बीच आर्थिक भागीदारी व अवसर, राजनीतिक सशक्तिकरण, शैक्षिक संप्राप्ति तथा स्वास्थ्य व जीवित रहने संबंधी उपलब्धियों में अंतर को दर्शाता है। एक तरह से यह समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में एक आंकलन प्रस्तुत करता है।

मार्क्‍स के अनुसार ‘‘सामाजिक प्रगति को समाज में महिलाओं की स्थिति से आंका जा सकता है।’’ तो डब्लूईएफ रिपोर्ट के हवाले से हम कह सकते हैं कि समाज की प्रगति अभी 131 साल पीछे है! आखिर क्या है यह जेंडर गैप या लैंगिक अंतर? और रिपोर्ट में इसको नापने का क्या पैमाना या वैज्ञानिक पद्धति अपनाई गई है? पहला तो यह कि किसी देश की महिलाओं के संपूर्ण विकास को न देखते हुए यह रिपोर्ट केवल इस बात पर फोकस करती है कि वहां महिलाओं और पुरुषों की उपलब्धियों में कितना अंतर है। इसलिए कम लैंगिक अंतर वाले देशों को उच्च रैंक दी जाती है और अधिक अंतर वाले देश नीचे आते हैं। दूसरी बात यह है कि आंकलन में ‘इनपुट्स’, मसलन देशों की विशेष नीति संबधित सूचकांकों, अधिकारों, संस्कृति व रीति-रिवाज़ों को मद्देनज़र नहीं रखा जाता, बल्कि ‘आउटपुट’ यानि महिलाओं पुरुषों के मुकाबले कहां तक पहुंच सकी हैं इसका आंकलन किया जाता है। यह रिपोर्ट बनाने के तरीके में कमी लगती है, जिसकी वजह से रिपोर्ट पढ़कर यह समझना मुश्किल हो जाता है कि गैप को कैसे पाटा जा सकेगा। दूसरी ओर हम यह भी कहेंगे कि जेंडर गैप को नापने के लिए जो राजनीतिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य संबंधी पैरामीटर लिए गए हैं वे काफी सीमित हैं। मसलन शैक्षिक संप्राप्ति के मामले में केवल साक्षरता और प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा में दाखिला को मापदंड माना गया है। पर दाखिला होने के बाद की यात्रा लड़कियों के लिए कैसी है इसका कोई आंकलन नहीं है। उदाहरण के लिए, वे किस किस्म के विषयों को चुन पाती हैं और उनकी शिक्षा की गुणवत्ता कैसी है? इसी तरह स्वास्थ्य के मामले में जन्म पर लिंग अनुपात और स्वस्थ जीवन के औसत वर्ष को लिया गया है। पर महिलाएं कठिन परिस्थितियों से जूझती हैं क्योंकि उन्हें आसानी से स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं होतीं या उनके स्वास्थ्य पर कम खर्च किया जाता है और इसे विश्व आर्थिक फोरम ने स्वयं चिन्हित किया है। जून में ही एक बैठक में यह बताया गया कि कोविड-19 महामारी के बाद महिलाओं के स्‍वास्‍थ्‍य पर भारी प्रभाव पड़ा है और यदि 30 करोड़ डाॅलर महिला स्वास्थ्य-संबंधी शोध पर खर्च किया जाए तो 13 अरब डाॅलर का आर्थिक लाभ हो सकता है। क्योंकि स्वस्थ महिला के मायने हैं स्वस्थ परिवार, समुदाय और बच्चे जो अगली पीढ़ी के उत्पादनकर्ता बनेंगे। यानि महिला स्वास्थ्य पर ‘इनवेस्टमेंट’ की ज़रूरत है। यह भी रिपोर्ट से स्पष्ट नहीं हो सकता कि महिलाएं रक्ताभाव और बहुत सारे प्रजनन संबंधी समस्याओं के साथ जीती हैं, जिन्हें न ही कोमाॅरबिडिटी और न विकलांगता में गिना जाता है, जिन्हें रिपोर्ट ने पैरामीटर माना है। और राजनीतिक भागीदारी का आंकड़ा तो एक वर्ष में नहीं बदलता, बल्कि कई वर्षों में ही संभव होता है। इसलिए रिपोर्ट में कोई खास अंतर नज़र नहीं आएगा।

‘‘नए सिरे से ठोस कार्यवाही हो’’

विश्व आर्थिक फोरम 2006 से आरंभ करके हर साल 100 से अधिक देशों की स्थिति का जायज़ा लेता है। 2006 में सूची 102 देशों की थी और अब रिपोर्ट 146 देशों (इस वर्ष) में जेंडर गैप सूचकांक का आंकलन पेश करती है और यह 0-1 के बीच नापा जाता है। ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स हमें यह बताता है कि गैप 1 वर्ष में कितना कम हुआ। 2023 का आंकलन कोविड-19 से उबरने के एक वर्ष बाद की स्थिति दर्शाता है, जो काफी परेशान करने वाला है, क्योंकि गैप केवल 0.3 प्रतिशत घटा है। यह नगण्य है। इससे तो ऐसा लगता है कि विश्व भर में महिला सशक्तिकरण के जो भी प्रयास किये जा रहे हैं वे निहायत नाकाफी हैं। शायद इसलिये विश्व आर्थिक फोरम की प्रबंध निदेशक सादिया ज़हीदी ने रिपोर्ट में ‘धीमी रफ्तार की प्रगति’ पर चिंता जताते हुए कहा है कि इस संदर्भ में ‘‘नए सिरे से ठोस कार्यवाही का मामला बनता है’’।

146 में केवल 9 देशों ने जेंडर गैप को 80 प्रतिशत प्राप्‍त किया

2022 और 2023 के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स की तुलना की जाए तो पिछले साल यह 0.681 यानि 68.1 प्रतिशत पर बन्द हुआ था और इस वर्ष 0.684 या 68.4 प्रतिशत पर। यानि 0.3 प्रतिशत की प्रगति हुई है। रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश ऐसा नहीं है जो अपने जेंडर गैप को पूरी तरह पाट चुका है, पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले 9 देशों-आइसलैंड, नाॅरवे, फिनलैंड, न्यू ज़ीलैंड, स्वीडेन, जर्मनी, निकारागुआ, नामिबिया और लिथुआनिया ने क्रमशः 91.2 प्रतिशत, 87.9 प्रतिशत, 86.3 प्रतिशत, 85.6 प्रतिशत, 81.5 प्रतिशत, 81.5 प्रतिशत, 81.1 प्रतिशत, 80.2 प्रतिशत और 80.0 प्रतिशत जेंडर गैप इंडेक्स पर खत्म़ किया है। बेल्जियम 79.6 प्रतिशत के साथ 10वें स्थान पर पहुंच गया जबकि आयरलैंड 79.5 प्रतिशत के साथ 2022 में 9वें स्थान से गिरकर 11वें स्थान पर पहुच गया और 79.4 प्रतिशत पर रवांडा इससे भी बदतर, यानि 6ठे स्थान से गिरकर 12वें स्थान पर पहुंच गया है। भारत 127वें स्थान पर है जिसे लेकर खुशी ज़ाहिर की जा रही है क्योंकि वह 8 स्थान ऊपर आ गया है। पर क्या हम संतुष्ट होकर बैठ सकते हैं? आगे इसपर बात करेंगे।

दूसरी चिंता की बात है कि वैश्विक स्तर पर जबकि हर पैरामीटर में कुछ विकास है, राजनीतिक भागीदारी और अवसर 60.0 प्रतिशत से गिरकर 59.8 प्रतिशत पर आ गया, यानि जेंडर गैप 0.2 प्रतिशत और गहरा हो गया। इस रफ्तार से गैप को पाटने में 162 वर्ष लगेंगे! आखिर क्या कारण है कि महिलाएं राजनीतिक भागीदारी में पिछड़ रही हैं? क्या हम इसके पीछे कारण विश्व के कई देशों में दक्षिणपंथी लहर को मान सकते हैं?

भारत की स्थिति

भारत क्या 8 स्थान ऊपर आकर अपनी स्थिति को संतोषजनक बता सकता है? शायद नहीं, क्योंकि सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश जो ‘इंडिया राइज़िंग’ के नारे के साथ अपने को विश्वगुरू मानकर चल रहा है, 127वें स्थान पर कई छोटे देशों से पीछे है। मसलन, यदि आप रिपोर्ट देखें तो दक्षिण एशिया में बंगलादेश 72.2 प्रतिशत लैंगिक बराबरी के साथ 59वें स्थान पर है, यानि अव्वल है। इसके अलावा श्रीलंका और नेपाल सहित 5 देश भारत से ऊपर हैं।

राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले में 0-1 के स्कोर में भारत का स्कोर 0.253 है। यानि भारत राजनीतिक सशक्तिकरण के लिहाज से 25.3 प्रतिशत गैप को पाट सका है और 59वें स्थान पर है। यह भी जब हमारे संविधान, जिसमें औरतों को हर क्षेत्र में बराबरी का अधिकार मिला है, को बने 73 वर्ष हो चुके हैं। संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या तो बढ़ी है और अब तक सबसे बड़ी संख्या भी है, पर वह 15.1 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पा रही है। यहां हम याद दिला दें कि 1996 में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के लिए विधेयक लाया गया था, पर यह 2 दशक के कठिन संघर्ष के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और अब तो महिला आंदोलन ने भी हताशा में इस मुद्दे को लगभग छोड़ दिया है। शायद इसका कारण है कि कोई दल विधेयक को पारित करना नहीं चाहता। जहां तक महिला मंत्रियों की बात है तो यूनियन कैबिनेट में केवल 7 प्रतिशत महिला मंत्री नियुक्त हुई हैं। क्या अब स्थितियां सुधर सकती है, जबकि अब पक्ष-विपक्ष के लिए एक-एक सीट महत्वपूर्ण बन गया है और कोई दल अपनी सीटों को रिस्क में नहीं डालना चाहता? रिपोर्ट ने कहीं भी भारतीय राज्यों में महिला राजनीतिज्ञों के प्रतिशत की चर्चा नहीं की है। पर हम देखें तो अधिकतम 14.44 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि छत्तीसगढ़ में हैं। मिज़ोरम विधान सभा में एक भी महिला नहीं है, और नागालैंड में 2023 में पहली बार 2 चुनी गईं। अगर हम महिला मुख्य मंत्रियों की बात करें तो 28 राज्यों में से केवल 12 में, यानि आधे से कम में कभी महिला मुख्यमंत्री रही हैं। और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 1 में महिला मुख्यमंत्री रहीं। आज ममता बनर्जी एकमात्र महिला हैं जो प. बंगाल में शासन संभाल रही हैं। हालांकि हम यह कह सकते हैं कि पंचायती राज संस्थाओं में स्थिति काफी बेहतर है। भारत ने 44.4 प्रतिशत महिला प्रतिनिधित्व हासिल कर ली है; यह अलग बात है कि इनमें से कइयों के पति ही पहचाने जाते हैं। 

आर्थिक भागीदारी व अवसर के मामले में भी भारत काफी पीछे है जबकि यह दावा किया जा रहा है कि वह महामारी के संकट से काफी हद तक उबर चुका है। हमारा देश अब तक इस बाबत केवल 36.7 प्रतिशत लैंगिक बराबरी हासिल कर पाया है और 142वें स्थान पर है। इसके मायने हैं कि श्रम बाज़ार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। यदि हम ऑक्सफैम इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022 को देखें तो हम पाएंगे कि रोज़गार पाने और वेतन के मामले में महिलाओं की स्थिति काफी बदतर है, मसलन अनौपचारिक श्रम, जिसमें महिलाओं की अधिक संख्या है, में पुरुषों की मासिक आय औरतों की अपेक्षा 58 प्रतिशत अधिक है और नियमित नौकरियों में 27 प्रतिशत अधिक। यानि जेंडर पे गैप 27 प्रतिशत है। आईटी क्षेत्र में स्थिति और भी खराब है क्योंकि महिलाएं पुरुषों के वेतन का मात्र 60 प्रतिशत पाती हैं। इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं, जिनको रिपोर्ट अपने आंकलन में शामिल नहीं करती। मसलन महिलाओं के साथ भेदभाव, उनके कौशल का स्तर पुरुषों की अपेक्षा कम होना, उन पर परिवार और बच्चों का बोझ होना जो अवैतनिक काम है और उनके काम में बच्चों को पालने की वजह से ब्रेक होना। अब तक भारत में इन कारणों पर काम नहीं हो सका है। इसके अलावा शहरी स्वरोज़गार करने वाले पुरुषों को महिलाओं के अपेक्षा 141 प्रतिशत अधिक वेतन मिलता है! 2020-21 से 2021-22 में महिलाओं (15 वर्ष से अधिक) की श्रमशक्ति में हिस्सेदारी भी घटी है और पीरियाॅडिक लेबर फोर्स सर्वे के अनुसार 2022 में यह 0.4 प्रतिशत कम, यानि 29.4 प्रतिशत हो गई। जबकि इसी अवधि में पुरुषों की भागीदारी 80.1 प्रतिशत से बढ़कर 80.7 प्रतिशत हो गयी। क्रेश, कैंटीन, बुज़ुर्गों के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं और सस्ती यातायात सेवाएं आज भी उपलब्ध नहीं हैं। अनौपचारिक श्रम में, जहां श्रम करने वाली महिलाओं का 81.8 प्रतिशत हिस्सा कार्यरत है, खासकर एमएसएमईज़ में और स्वयं सहायता समूहों में सरकार बेहतर सहूलियत देने के लिए अधिक निवेश नहीं करती। यह भी एक कड़वी सच्चाई है। और, कई अध्ययन तो यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि एआई के आने से महिलाएं सबसे अधिक नौकरियां खोने वाली हैं।

शैक्षिक संप्राप्ति के मायने क्या?

शैक्षिक संप्राप्ति को क्या हम केवल साक्षरता और एनरोलमेंट के आधार पर नाप सकते हैं? भारत में लड़कियों का दाखिला प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक में लड़कों के बराबर हो गया है। यानि हर परिवार अपनी बच्चियों को पढ़ाना चाहता है। डब्लूईएफ रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 96.1 प्रतिशत पाट लिया है और 2022 में 107वें स्थान से 2023 में 26वें स्थान को हासिल किया है। यह सकारात्मक विकास को इंगित करता है। पर यह भी सच है कि जब वर्तमान डिजिटल युग में लगभग सारी शिक्षा इंटरनेट-आधारित है, वहां हम देख रहे हैं कि इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में महिलाओं का हिस्सा केवल एक-तिहाई है (इंडिया इनिक्वालिटी रिपोर्ट 2022 डिजिटल डिवाइड) और 50 प्रतिशत के पास फोन तक नहीं है। फिर, NFHS-5 के अनुसार 44 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं निरक्षर थीं और 66 प्रतिशत साक्षर महिलाओं में केवल 34 प्रतिशत 10वीं पास थीं।  

 हमें यह भी विचार करना होगा कि लड़कियां क्यों स्टेम यानि विज्ञान, टेकनाॅलाॅजी, इंजीनियरिंग और गणित में 52 प्रतिशत एनरोलमेंट दर्शाती हैं, पर कोर्स समाप्त होने के बाद उनमें से केवल 29 प्रतिशत रोज़गार-योग्य बन पाती हैं। तो क्या हम इसे शैक्षिक संप्राप्ति कह सकते हैं, जहां 23 प्रतिशत महिलाओं का रास्ता आगे बन्द हो जाएगा और उनकी शिक्षा बेकार हो जाएगी? कुल मिलाकर शिक्षा की गुणवत्ता और उसके बाद रोज़गार की संभावना को भी ध्यान में रखना होगा, जो रिपोर्ट का मिसिंग पहलू है।

महिला स्वास्थ्य का मापदंड क्या होगा?

डब्लूईएफ रिपोर्ट को पढ़ने पर दिखता है कि देश स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के मामले में 97 प्रतिशत जेंडर गैप को पाट चुका है, पर 142वें स्थान पर बना हुआ है। इसके बरक्‍स श्रीलंका पहले स्थान पर है। फिर भी केवल लिंग अनुपात और महिलाओं की स्वस्थ जीवन प्रत्याशा से महिलाओं के स्वास्थ्य का आंकलन करना सही नहीं लगता। यह इसलिए कि महिलाएं जन्म से शारीरिक रूप से अधिक मजबूत होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि जन्म पर किसी बच्ची के मरने की संभावना लड़के की अपेक्षा कम होती है। यह ताकत उम्र भर उसके काम आती है। इसलिए महिलाओं की जीवन प्रत्याशा लगभग 71 वर्ष है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। और नारी भ्रूण हत्या कानून की सख्ती के कारण कम हुई है। पर जन्म पर लिंग अनुपात शहरी क्षेत्रों में (NFHS-5) 924 था। 76 बच्चियां आखिर कैसे गायब हो जाती हैं? दूसरा आंकड़ा जो परेशान करने वाला है कि सर्वे के समय 15-19 साल की उम्र में गर्भ धारण करने वाली या मां बन चुकी महिलाओं का प्रतिशत शहर में करीब 4 और ग्रामीण क्षेत्र में 8 था। इन बच्चियों के इतनी कम उम्र में मां बनने का उनके स्वास्थ्य पर क्या असर होगा हम समझ सकते हैं। पर परिवार नियोजन के मामले में सारा उत्तरदायित्व औरतों पर आ जाता है। इसलिए हम देखते हैं कि शहरों में तक केवल 0.2 प्रतिशत पुरुष नसबंदी करवाते हैं और 13.6 प्रतिशत कंडोम का प्रयोग करते हैं। लड़का पैदा करने का दबाव भी औरत पर रहता है भले ही कितनी बार नारी भ्रूण को नष्ट क्यों न करना पड़े। इन सारी स्थितियों को लेकर महिलाएं जीती हैं पर ‘स्वस्थ’ जीवन प्रत्याशा में न ही इन्हें ‘कोमाॅर्बिडिटी’ और न ही ‘विक्‍लांगता’ में गिना जा सकता है। जो महिलाएं मरती हैं उनमें देखा गया कि गर्भाशय, स्तन, ओवरी और सर्विक्स का कैंसर एक बड़ा कारण है। ब्रेस्ट कैंसर की हर 2 मरीजों में से 1 समय से पूर्व दम तोड़ती है और हर आठ मिनट में भारत की कोई महिला सर्वाइकल कैंसर मरीज गुजर जाती है। विश्व से अलग, भारत में महिलाओं को कैंसर पुरुषों की अपेक्षा अधिक होता है। और अनुमान है कि 2025 तक यह संख्या 2 लाख 30 हज़ार तक पहुंच जाएगी। तो क्या भारत की महिलाओं में स्वस्थ रहने और ‘क्वालिटी ऑफ लाइफ’ को नापने का पैमाना ही अलग होना चाहिये? 

खैर, विश्व आर्थिक फोरम के आंकलन के तरीके की जो भी सीमाएं हों, हम उसके आधार पर यह निष्‍कर्ष तो निकाल सकते हैं कि दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति कई अन्य देशों की तुलना में संतोषजनक नहीं है। इसके साथ ही, विश्व के सबसे विकसित देश कनाडा और यूएसए तक क्रमशः 30वें और 43वें स्थान पर पहुंच पाए हैं। अभी पूर्ण लैंगिक बराबरी हासिल करने का सपना काफी दूर हैं।

(लेखिका महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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