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साइंस रिसर्च में जेंडर गैप कब और कैसे ख़त्म होगा?

जहां दुनियाभर में करीब 30 प्रतिशत महिलाएं इस फ़ील्ड से जुड़ी हैं, वहीं भारत में ये संख्या इससे लगभग आधी यानी 16 प्रतिशत के आस-पास है।
Gender Equality
फ़ोटो साभार: TSA

ये तो हम सभी जानते हैं कि नोबेल पुरस्कार के वक्त मैडम क्यूरी जैसी महान वैज्ञानिक को भी जेंडर डिस्क्रिमिनेशन का सामना करना पड़ा था। हालांकि वो बात लगभग एक सदी से भी ज्यादा पुरानी हो चुकी है, लेकिन साइंस और रिसर्च के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति आज भी दुनियाभर में जस की तस ही बनी हुई है। भारत में ये स्थिति और भयावह है। जहां दुनियाभर में करीब 30 प्रतिशत महिलाएं इस फील्ड से जुड़ी हैं, वहीं भारत में ये संख्या लगभग आधी यानी 16 प्रतिशत के आस-पास है। ये आकड़ा खुद सरकार का है, जो ये तो मानती है कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है, लेकिन इसे बढ़ाने या महिलाओं को प्रोत्साहन देने के लिए किसी भी नई योजना से इंकार कर रही है।

बता दें कि बुधवार, 15 मार्च को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री जितेंद्र सिंह ने वाईएसआरसीपी सांसद बेसेटी वेंकट सत्यवती के एक अतारांकित प्रश्न के जवाब में कहा कि अभी महिला शोधकर्ताओं के लिए प्रोत्साहन और छात्रवृत्ति बढ़ाने की कोई नई योजना नहीं है। जबकि भारत में कुल 56,747 महिला शोधकर्ता हैं, जो देश के कुल शोधकर्ताओं का 16.6 प्रतिशत है। सत्यवती के प्रश्न के उत्तर में, सिंह ने स्वीकार किया कि विकसित देशों की तुलना में भारत में वैज्ञानिक कार्यबल में महिलाओं का अनुपात कम है।

कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कार्यक्रम के तहत विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) द्वारा प्रस्तुत राज्य-वार आंकड़े बताते हैं कि पंजाब (2021-22 में सफलता दर 31.82 प्रतिशत और 2022-23 में 42.31 प्रतिशत) , जम्मू और कश्मीर (2021-22 में 33.3 प्रतिशत सफलता दर और 2022-23 में 54 प्रतिशत) और तेलंगाना (2021-22 में 45.71 प्रतिशत सफलता दर और 2022-23 में 22 प्रतिशत) जैसे राज्य बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।

आख़िर क्यों कम हैं साइंस और रिसर्च की फ़ील्ड में महिलाएं?

अखिल भारतीय उच्च शिक्षण सर्वे की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में साइंस के कोर्सेज में नामांकन के मामले में लड़कियां लड़कों से आगे है। आज 53% लड़कियां साइंस ग्रेजुएट हो रही है। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में रोजगार में महिलाओं की मात्र 14% भागीदारी है। ऐसे में ये सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर क्या वजह है जो साइंस और रिसर्च के क्षेत्र में लड़कियों की भागीदारी को बढ़ने से रोक रहा है और क्या इन चुनौतियों को कम करने के लिए सरकार सक्रिय कदम उठा रही है।

शुरुआत इतिहास से ही करते हैं, क्या आपको वैज्ञानिक विषय में पीएचडी प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला बायोकेमिस्ट कमला सोहोनी याद हैं? उनके साथ भी लैंगिग भेदभाव किया गया था, जब वोशोध फेलोशिप के लिए भारतीय विज्ञान संस्थान में आवेदन कर रहीं थी। तत्कालीन निदेशक और नोबल पुरस्कार विजेता सीवी रमन ने उनके आवेदन को सिर्फ इस आधार पर ठुकरा दिया कि महिलाएं अनुसंधान करने के लिए पूरी तरह सक्षम नहीं होतीं। कमला ने इस फैसले को चुनौती देते हुए सीवी रमन के कार्यालय के बाहर आंदोलन किया। और जब तक जारी रखा, जब तक कि उनके आवेदन को स्वीकार नहीं किया गया। लेकिन उन्हें संस्थान में कुछ शर्तों के साथ ही अनुमति दी गई। ये उदाहरण इस बात को और पुख्ता करता है कि हमारे समाज में हर स्तर पर मौजूद पितृसत्ता महिलाओं को पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

महिलाओं के अनुकूल माहौल

साल 2020 में अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था इंटरनेशनल साइंस काउंसिल ने जेंडर गैप इन साइंस के नाम से 159 देशों में विज्ञान से जुड़े स्कूली या पेशवर महिलाओं और पुरुषों पर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में शामिल हुए एक चौथाई से अधिक महिलाओं ने स्कूल या काम पर यौन हिंसा का सर्वाइवर होने की सूचना दी। यानी सभी क्षेत्रों, विषयों और विकास के सभी स्तरों पर, पुरुषों की तुलना में महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना कहीं अधिक करना पड़ता है।

पिछले कुछ सालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जुड़े देश के कई संस्थानों में हुए यौन हिंसा की खबरें सुर्ख़ियों में रही हैं। लेकिन न सिर्फ इन घटनाओं की गंभीरता को नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि कुछ घटनाओं में देश के न्यायालयों ने आरोपी के खिलाफ कोई करवाई करने से भी मना कर दिया। जब कोई महिला यौन हिंसा या उत्पीड़न की शिकायत करती है, तो, उसे ‘ट्रबल मेकर’ का ख़िताब दे दिया जाता है।

कई शोध छात्राओं से बातचीत में भी ये बात आसानी से समझ आती है कि कई संस्थानों में यौन उत्पीड़न या POSH कानून से संबंधित कोई जानकारी उन्हें नहीं मिलती। और कई जगह इंटरनल कंप्लेंट कमिटी होने के बावजूद भी महिलाएं तमाम दबावों के चलते शिकायत दर्ज करवाने में संकोच करती हैं। ज्यादातर शोध से जुड़े लोगों को अपने सीनियर के सहयोग, नाम और मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। इसलिए, जब कोई महिला शिकायत दर्ज करती है, तो यह उसके करियर पर भी असर करता है।

पुरुषों के वर्चस्व के चलते विज्ञान की दुनिया में कई बार महिलाओं के योगदान को महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता। बतौर महिला सिर्फ अपना दृष्टिकोण सामने रखने में भी उन्हें पुरुषों के तुलना में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। और शायद इसकी सबसे बड़ी वजह इस क्षेत्र में महिलाओं की कम संख्या है। महिलाओं के काम करने के लिए बने नियमों की व्यावहारिकता भी एक समस्या है क्योंकि ये महिलाओं को अनुकूल वातावरण प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं। और इसलिए जब तक बुनियादी बदलाव न हो, तब तक महिलाओं का वैज्ञानिक क्षेत्र को चुनना और टिके रहना चुनौतीपूर्ण ही रहेगा।

पितृसत्ता की दीवार और परिवार का बोझ

हमारे ही देश के सबसे बड़े शोध संस्थानों डीआरडीओ, सीएसआईआर और आईसीएआर में तकरीबन 6890, 4600 और 2400 वैज्ञानिक हैं जिसमें महिला वैज्ञानिकों का प्रतिशत केवल 14, 16 और 14 प्रतिशत है। 2020 के एक सर्वे के मुताबिक इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (इंसा) के 1,044 सदस्यों में से केवल 89 महिलाएँ हैं जो कुल संख्या का 9 प्रतिशत है। इसकी खास वजह जो अक्सर कई रिपोर्ट्स में सामने आती हैं, उनके मुताबिक गणित और भौतिकी के क्षेत्र में शोध कर रही महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है। विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को शोध के साथ अपनी ज़िंदगी की चुनौतियों का तालमेल बैठाने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कई बार महिलाएं बच्चों और परिवार की जिम्मेदारियों के चलते पिछड़ जाती हैं। इ

कई सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हो चुका है कि इसके मुख्य कारण मर्दवादी सोच, सामाजिक मानदंडों के अनुरूप होने का दबाव, विवाह और तरह-तरह के पारिवारिक दायित्व और अवरोध हैं। ज़्यादातर माता-पिता अपनी बेटियों को कैरियर-मुखी विज्ञान विषयों में नामांकन कराने की अनुमति नहीं देते या उसके लिए प्रोत्साहित नहीं करते। यहाँ तक यह भी देखने में आया है कि कई बार शोध मार्गदर्शक, यह सोचते हुए कि अगर घर चलाने से संबंधित जिम्मेदारियों के चलते महिला शोधकर्ता पीएचडी छोड़ देंगी तो उनकी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम तवज्जो देते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की कम भागीदारी की वजहों में संगठनात्मक कारकों की भी अहम भूमिका है। महिला रोल मॉडलों की कमी ने भी ज़्यादातर महिलाओं को इन क्षेत्रों में प्रवेश से रोकने का काम किया है।

कुल मिलाकर देखें तो सरकार की मौजूदा नीतियां अभी जमीनी स्तर पर बहुत कारगर नज़र नहीं आती। अभी सरकार को महिलाओं की साइंस के क्षेत्र में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए और प्रयासों और प्रोत्साहन की जरूरत है। इसमें स्कूली स्तर से शुरुआत के साथ ही इस फिल्ड में काम कर रहीं महिलाओं के लिए भी सुविधाएं होनी चाहिए ताकि महिलाएं इस क्षेत्र से जुड़ी रहें।

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