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गर्ल्स हॉस्टल में कर्फ़्यू टाइमिंग को लेकर केरल हाईकोर्ट की टिप्पणी अहम क्यों है?

कई बड़े आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों के बावजूद छात्रावासों में नाइट कर्फ़्यू एक बड़ी समस्या है, जो देश की शिक्षा व्यवस्था का पितृसत्तात्मक चेहरा दिखाता है।
Kerala High Court
फ़ोटो साभार: पीटीआई

“आधुनिक समय में जेंडर बेस्ड सिक्योरिटी देने के नाम पर किसी भी तरह के पितृसत्तावाद को नजर अंदाज करना होगा। क्योंकि लड़कियां, लड़को की तरह अपनी देखभाल करने में पूरी तरह समर्थ है। अगर ऐसा नहीं है तो यह राज्य और सार्वजनिक प्राधिकरणों का प्रयास होना चाहिए कि उन्हें बंद करने के बजाय उन्हें सक्षम बनाना चाहिए।”

ये टिप्पणी केरल हाईकोर्ट ने गर्ल्स हॉस्टल में 'कर्फ्यू टाइमिंग' यानी हॉस्टल से बाहर निकलने की पाबंदी के समय को लेकर की है। अदालत कोझिकोड के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज की लड़कियों के रात 9.30 बजे के बाद हॉस्टल से बाहर नहीं निकलने की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। कोर्ट ने इस पूरे मामले में प्रशासन को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि यदि बंद ही करना है तो हॉस्टल में लड़कों को बंद कीजिए क्योंकि वे समस्याएं खड़ी करते हैं और लड़कियों को आजाद रहने दें।

बता दें कि यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) और सक्षम कमेटी द्वारा 2 मई 2016 को जारी एक आदेश में कहा गया था कि छात्राओं पर किसी भी तरह के नियंत्रण जायज़ नहीं हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि महिला सुरक्षा के नाम पर किसी भी तरह की पाबंदी या महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता है। हालांकि इसके बावजूद देश के अलग-अलग राज्यों के शिक्षण संस्थानों में खासतौर पर यूनिवर्सिटी हॉस्टल्स में सिर्फ लड़कियों के लिए कर्फ्यू टाइमिंग का नियम बनाया गया है। इसका विरोध दिल्ली से लेकर यूपी तक लंबे समय से लड़कियां करती रही हैं। इस पाबंदी वाले नियम के खिलाफ समय-समय पर बीएचयू से लेकर डीयू तक लड़कियों के आवाज़ बुलंद की है।

क्या है पूरा मामला?

साल 2019 में केरल के उच्च शिक्षा विभाग ने एक नोटिफिकेशन जारी किया था। इसमें ये प्रावधान किया गया है कि कोझिकोड के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज की लड़कियों को रात 9.30 बजे तक हॉस्टल में लौटना होगा। यानी इस टाइमिंग के बाद वे हॉस्टल से बाहर नहीं जा सकती हैं। इस नोटिफिकेशन के खिलाफ 5 लड़कियों ने हाईकोर्ट में अपील की थी और इसे रद्द करने की मांग की थी। मेडिकल कॉलेज की छात्राएं नवंबर की शुरूआत से इसका विरोध भी कर रही है। उनका कहना है कि कागजों पर यह हॉस्टल कर्फ्यू सभी के लिए था लेकिन छात्राओं पर सख्ती से इसका पालन किया गया। नियम के बावजूद पुरुष अपनी इच्छा से आने-जाने के लिए स्वतंत्र थे।

उधर, केरल हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान उच्च शिक्षा विभाग ने दलील दी कि हॉस्टल कर्फ्यू लगाने का फैसला अभिभावकों की मांग पर लिया गया है। इस जवाब पर कोर्ट ने कहा कि कैंपस को सुरक्षित बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की है, इसके लिए लड़कियों के हॉस्टल में कर्फ्यू लगाना सही नहीं है। कोर्ट ने आगे कहा कि लड़कियों पर इस तरह की बंदिश लगाने से कुछ नहीं मिलेगा।

अदालत की अहम टिप्पणियां

मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस रामचंद्रन ने कहा कि पिछली सदियों में लड़कियों को बंद करके हमें क्या मिला है? क्या आप वाकई सोचते हैं कि अब चीजें बेहतर हैं? ये आम राय है कि अब और ज्यादा बुरा वक्त है। अपने बच्चों पर अविश्वास करके हमने क्या हासिल किया है, कुछ भी नहीं। हमें बैन लगाने में कोई समस्या नहीं है, हालांकि ऐसे प्रतिबंध सभी के लिए समान रूप से लागू होने चाहिए न कि किसी एक लिंग विशेष के लिए।

जस्टिस रामचंद्रन के मुताबिक, 'हम हॉस्टल के लिए नियम बनाते हैं, लेकिन पुरुषों के लिए इसे शिथिल कर देते हैं। इससे लगता है कि लड़कियां ही सारी समस्या हैं। मैं सरकार पर आरोप नहीं लगा रहा, बस इतना कह रहा हूं कि सरकार समाज का प्रतिबिंब है। और प्रतिबंध लगाने जैसे फैसले वे लोग न लें, जो अलग पीढ़ी के हैं। क्योंकि हर पीढ़ी एक नए देश की तरह होती है, और हमें नई पीढ़ी के लिए कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है।

ध्यान रहे कि इसी साल अप्रैल के महीने में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की छात्राओं ने हॉस्टल कर्फ़्यू टाइमिंग को लेकर ज़ोरदार प्रदर्शन किया था। यहां भी कैम्पस के गर्ल्स हॉस्टल्स में रहने वाली लड़कियों को रात 10 बजे से पहले हॉस्टल लौटना पड़ता है। अगर वो लगातार तीन बार रात 10 बजे के बाद हॉस्टल लौटती हैं तो उनके घर तक में फोन कर दिया जाता है। यहां लड़कियां लंबे समय से कर्फ्यू टाइमिंग को हटाने और गर्ल्स हॉस्टल्स में भी बॉयज़ हॉस्टल्स की तरह सुविधा मुहैया कराने की मांग लड़कियां करती रही हैं।

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इन प्रदर्शनों में शामिल रहीं बीएचयू कन्या महाविद्यालय की छात्रा वंदना उपाध्याय ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में बताया कि ये प्रदर्शन प्रशासन की अनदेखी और लड़कियों की मज़बूरी है। बीएचयू में पहले हॉस्टल्स में लड़कियों के लिए साल 2017 तक कर्फ्यू टाइमिंग शाम 7 बजे तक थी। इसे लेकर लड़कियों का एक बड़ा आंदोलन देखने को मिला था, जिसके बाद यह टाइमिंग बढ़कर 10 बजे हुई।

देश की राजधानी में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय के हॉस्टल में अंडरग्रेजुएट की छात्राओं के लिए हॉस्टल गेट बंद होने का समय शाम 7:30 है और पोस्टग्रेजुएट की छात्राओं के लिए यह समय रात 10 बजे का है। डीयू में लंबे समय से महिलाओं ने हॉस्टल में लागू वक़्त की पाबंदी के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े आंदोलन किए हैं। छात्र और छात्राओं में हो रहे इस भेदभाव को लेकर छात्राएँ लगातार विरोध करती रही हैं। छात्राएँ इस भेदभाव को पितृसत्तात्मक सोच क़रार देती हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा वर्तिका हमें बताती हैं कि छात्राओं ने कर्फ़्यू टाइमिंग के ख़िलाफ़ हमेशा से प्रदर्शन किया है लेकिन साल 2020 के फरवरी में यह पहली बार हुआ कि 6 में 5 हॉस्टल की छात्राएँ एक साथ धरने पर बैठीं। इस बार छात्राओं ने हॉस्टल में वक़्त की पाबंदी के अलावा उनके साथ होने वाले शोषण और मॉरल पुलिसिंग के ख़िलाफ़ भी प्रदर्शन किया। ये प्रदर्शन अब छात्राओं के जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। कर्फ्यू नाइट के नाम पर लड़कियों को सुरक्षा का हवाला देकर उन्हें कमरों में कैद कर दिया जाता है, जो कि लैंगिक भेदभाव, मोरल पुलिसिंग, रूढ़िवादी सोच का प्रतीक है।

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पक्ष और विपक्ष में अदालती फैसले

गौरतलब है कि हॉस्टल कर्फ्यू टाइमिंग को लेकर अब तक के आदालती फैसलों पर नज़र डालें तो ये बंटे हुए नज़र आते हैं। बीते साल ही केरल हाईकोर्ट के जस्टिस ए. मुहम्मद मुस्ताक ने श्री केरल वर्मा कॉलेज से जुड़े गर्ल्स हॉस्टल के नियमों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि नैतिक पितृसत्ता को खत्म करने की जरूरत है, लड़कियों को भी आजादी का अधिकार है। हालांकि इसके उलट बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में सुरक्षा को महत्व देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने छात्राओं की मांग के विपरीत फैसला सुनाया था। अदालत का तर्क था कि कर्फ्यू का समय छात्राओं की सुरक्षा के लिए है, जो एक तरीके से सही है।

बहरहाल, उच्च शिक्षा पाना और अपने घरों से निकलना महिलाओं के लिए हमेशा से संघर्षपूर्ण रहा है। और शायद यही वजह है कि देश के आज भी अनेक विद्यालयों और संस्थानों में छात्राओं की उपस्थिति छात्रों के मुकाबले कम दर्ज होती है। छात्राओं के लिए कई नियम भी असग से देखने को मिलते हैं। इन्हीं असमान नियमों के ख़िलाफ़ पिंजरा तोड’ संगठन ने साल 2015 में दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से व्यापक प्रदर्शनों की शुरुआत की। पिंजरा तोड आंदोलन का असर भी कई संस्थानों पर दिखा और कुछ नियमों को वापस भी लिया गया। लेकिन आज भी छात्रावासों में नाइट कर्फ्यू एक बड़ी समस्या है, जो देश की शिक्षा व्यवस्था का पितृसत्तात्मक चेहरा दिखाता है। उम्मीद है केरल हाई कोर्ट के हालिया रूख के बाद शायद आने वाले समय में कुछ बदलाव देखने को मिले।

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