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औरत की माहवारी से डरा, घबराया समाज…!

महिला दिवस विशेष : औरत को अपवित्र बताना पितृसत्ता की एक साजिश है, उसे मुख्य धारा से काटने की और कमतर साबित करने की। हिन्दुओं में जो ग़लत बातें और धारणाएं हैं, वही मुस्लिम और अन्य धर्मों में भी हैं।
mahavari mahabhoj
फोटो, साभार : momspresso

औरत को ये पितृसत्तात्मक समाज अपने मुताबिक गढ़ कर ही रखना चाहता है, जिसे सिमोन ने अपने अंदाज़ में कहा कि "औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है"। समाज न सिर्फ उसे बनाता है बल्कि उसे नियंत्रित भी करता है। उसके लिए कायदे कानून भी बनाता है।

पिछले तीन-चार सालों में कुछ अजीब से लगने वाले वाकये पेश आ रहे है। ये समाज औरत की माहवारी से भी कितना डरा-घबराया है। हाजी अली दरगाह में औरतों को मुख्य भाग में प्रवेश करने से रोका गया, कारण उसे माहवारी आती है। शनि शिंगणापुर और शबरीमाला मन्दिर में भी प्रवेश से औरत को माहवारी के ही कारण रोेका गया। इन घटनाओं से एक बारगी ऐसा लगा जैसे अचानक ही हमारे देश में औरतों को माहवारी आने लगी और पूरा का पूरा समाज बौखला गया।

औरतों ने आन्दोलन छेड़ा तो दूसरी तरफ से भी तलवारें खिंच गई। जवाबों की एक बानगी-

मौलाना साहब- औरत नापाक है, वह ऐसे में मुर्दो को नंगी दिखती है, अल्लाह की लानत बरसती है उस पर।

पंडित जी- मन्दिर में एक ऐसी मशीन की जरूरत है जो औरत की माहवारी की जाॅंच कर सके और यदि माहवारी आ रही है तो वह मन्दिर में बिल्कुल भी प्रवेश न कर सके।

अपनी बात का जवाब ये लोग शरीयत, पुराणों और मनुस्मृति में ढूॅंढते हैं लेकिन मुख्य वजह जिससे किनारा काटते है वो है इनके भीतर जमी पितृसत्ता की जड़ें। संविधान को चुनौती देते है पितृसत्ता के फरमान, औरतों को इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना पडता है जो इस देश के लिए शर्म की बात होनी चाहिए लेकिन वे अपनी ज़िद की ज़द में सब कुछ ले आना चाहते हैं।

अभी हाल में गुजरात के भुज में एक गर्ल्स हाॅस्टल का मामला सामने आया जहाॅं पीरियड की जाॅंच के लिए 68 लड़कियों को अपनी महिला टीचरों के सामने अपने कपड़े उतारने को मजबूर किया गया। हाॅस्टल की वार्डन ने प्रिंसिपल से शिकायत की थी कि कुछ लडकियाॅं धार्मिक नियमों का उल्लंघन कर रही है।

ये घटनाएँ तब हो रही हैं जब सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ फैसले दे चुका है।

गुजरात के ही धर्मगुरू कृष्णस्वरूप दास ने तो यहाॅं तक बयान दे दिया कि जो पत्नी माहवारी के दौरान अपने पति के लिए खाना पकाती है वो अगले जन्म में कुतिया के रूप में पैदा होगी और उसके हाथ का पका खाना खाने वाला पुरूष बैल के रूप में पैदा होगा।

एक मर्दाना जोम जो औरत को हमेशा कमतर समझता है और उसी के इर्द गिर्द धर्म मजहब को स्थापित कर अपने बचाव के तर्क ढूॅंढता हैं। चूॅंकि धर्म का डर दुनिया में हर डर से ऊपर है, जिसका भय आसानी से दिखाकर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।

काबिले गौर बात ये भी है कि धर्म और पितृसत्ता के जाल में औरत को इतना उलझाया गया कि वह खुद भी अपने आप को अपवित्र और कमतर मानने लगी। तकलीफ सह कर भी वह माहवारी को छुपाने लगी। सवाल ये है कि उसी खून से पैदा है ये पूरी कायनात तो फिर औरत उन दिनों में अपवित्र, गंदी और नापाक कैसे हो गई?

मुस्लिम घरानों में महिलाएं माहवारी में नमाज़ रोज़ा नहीं, कुरान छू नहीं सकतीं, दूर से केवल उसके शब्द पढ़ सकती हैं, अचार नहीं छू सकतीं, दरगाह पर नहीं जा सकतीं आदि परन्तु हज पर माहवारी से जुड़ा सवाल नहीं पूछा जाता, शायद इसलिए कि हज एक बड़ा रेवेन्यू है अरब के लिए जिसे वो खो नहीं सकते। हिन्दू घरों में पूजा पाठ नहीं, शुभ कार्यों से दूर, अचार न छुएँ, रसोई में प्रवेश निषेध। सिखों और इसाइयों में भी इसी तरह की वाहियात पाबन्दियाँ मौजूद हैं।

औरत को अपवित्र बताना पितृसत्ता की एक साजिश है उसे मुख्य धारा से काटने की और कमतर साबित करने की। जो ये बताती है कि मर्द औरत से कितने मोर्चों पर डरा है और उस डर से पार पाने के लिए वो तरह तरह के षडयंत्र रचता रहा है।

धरम-करम के जाल में उलझी औरत माहवारी को छुपाते और स्वच्छता को नजरअंदाज करते करते कब इतनी सारी बीमारियों से जकड़ गई उसे पता ही नहीं चला। प्रतिवर्ष 10 लाख से ज्यादा औरतें सर्वाइकल कैंसर की चपेट में आ रही है।

इस विषय पर कई अध्ययन वर्षो से आ रहे है परन्तु सरकार ने इस मुद्दे को लगातार नजरअंदाज किया।

देश विकास कर रहा है, दुनिया का नेतृत्व करने की बात कर रहा हैै, परन्तु मानव विकास का ग्राफ कम से कमतर होता जा रहा है जिस पर इस देश की सरकारों ने ध्यान नहीं दिया। हैरत की बात ये है कि इस देश की सिर्फ 12 प्रतिशत महिलाएँ ही सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर रही हैं बाकी की 88 प्रतिशत औरतें सेनेटरी पैड खरीद पाने में सक्षम नहीं है। सेनेटरी पैड का इस्तेमाल न करना मतलब वह पुराना कपड़ा, घास या राख की पोटली या कागज ही इस्तेमाल कर रही हैं जो उन्हें बीमार बना रहा है। उनके यौन अंगों को बुरी तरह क्षति पहुॅंचा रहा है।

माहवारी बीमारी नहीं है पर सरकार की गैरजिम्मेदारी ने उसे बीमारी में तब्दील कर दिया है। अगर देश की 88 प्रतिशत औरतें सेनेटरी पैड नहीं इस्तेमाल कर सकतीं तो सरकार ने इस दिशा में क्या किया? ये सवाल उठाना वाजिब है।

ए.सी. नील्सन के एक अध्ययन जिसका पुनरीक्षण किया जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन प्लान इंडिया ने जिसका शीर्षक है 'सेनेटरी सुरक्षा हर औरत का स्वास्थ्य अधिकार' जिसमें निकल कर आया कि 12 से 18 साल की कन्याएं माहवारी प्रारम्भ होने के बाद महीने में 5 दिन स्कूल नहीं जाती इस तरह वो साल में 50 दिन स्कूल नही जातीं। माहवारी आने के बाद 23 प्रतिशत लड़कियाॅं स्कूल छोड़ देती हैं।

भारत सरकार के नेशनल हेल्थ फैमिली सर्वे 2015-2016 की रिपोर्ट भी कहती है कि गाॅंवों में स्थिति इस मसले में बहुत की खराब है। 12 से 24 साल तक की लड़कियों में सिर्फ 26 प्रतिशत ही सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं।

यह बात भी ध्यान देने वाली है कि किस तरह भारतीय बाजारों में सेनेटरी पैड बेचने वाली प्राइवेट कम्पनियों ने अपना कब्जा जमा रखा है। जीएसटी लगने से पहले और बाद में भी ये पैड बडी मल्टी नेश्नल कम्पनियों के हाथों में ही है। बाज़ार के 56 प्रतिशत पर प्रौक्टर गैम्बल की विहस्पर का कब्जा है जो बाजार की लीडर है। इसके बाद जाॅन्सन एड जाॅन्सन की स्टेफ्री, केयर फ्री 28 प्रतिशत उसके बाद नम्बर आता है कोटक और सोफी जैसी कम्पनियों का। बाजार के इस पूरे प्रभाव से सरकारी न्यूनतम दर के सेनेटरी पैड पूरी तरह से गायब है।

युवतियाॅं स्कूल छोड रही हैं, औरतें बीमार हो रही हैं, परन्तु सरकार की प्राथमिकता में ये सवाल अभी भी नहीं है। जो वर्ग 10 पैड की कीमत पहले 88 रुपये चुकाता था अब जीएसटी लगने के बाद वो 100 रुपये चुका रहा है तो भी उसके ऊपर कोई खास प्रभाव नही पड़ा परन्तु जो वर्ग घास, राख, रेत, कागज, व गंदा कपड़ा इस्तेमाल करने पर मजबूर है वो इन कीमतों में किसी भी हाल में सेनेटरी पैड खरीद ही नहीं सकता। एक अपील भी सरकार के समक्ष महिलाओं ने दी 'लहू का लगान' नाम से ताकि इस पर लगने वाले टैक्स को खत्म किया जाए।

सरकार ने महिलाओं के लगातार सवाल उठाने के बाद माहवारी के लिए एक गाइडलाइन तो बनाई, स्कूलों के लिए अलग गाइडलाइन बनाई जिसमें इस निषेध (टैबू) को खत्म करने की बात की गई स्कूल में अलग शौचालय बनाए जाने की बात की परन्तु उसके लिए अभी बजट क्या होगा इस पर स्पष्टता नहीें आई। साथ ही सेनेटरी पैड को न्यूनतम दर पर उपलब्ध कराए जाने की बात भी सामने नही आई। जनऔषधि केन्द्रों पर भी सस्ते पैड की आपूर्ति न के बराबर है।

इतने सवाल उठने के बाद सरकार का ध्यान इस ओर जाना और उनका जवाब देश की महिलाओं को मिलना अभी बाकी है।

(लेखक रिसर्च स्काॅलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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