Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

विश्व उर्दू दिवस: ...अब उर्दू बेनाम-ओ-निशां ठहरी  

चंद तंग-नज़र सियासतदानों ने तो बरसों से उर्दू के ख़िलाफ़ जैसे एक मुहिम छेड़ी हुई है।
World Urdu Day: ...Now Urdu is Benam-o-Nishan

मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के जन्मदिन के मौके पर पूरी दुनिया में नवम्बरआलमी यौम-ए-उर्दू यानी विश्व उर्दू दिवस के तौर पर मनाया जाता है। उर्दू ज़बानहमारे मुल्क़ की गंगा-जमुनी तहज़ीब का अटूट हिस्सा रही है। हमारी जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा लेने वाले अनेक लीडरों ने उर्दू को हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ने वाली बेहतरीन कड़़ी बतलाया था। गोया कि उर्दू ज़बान हमारा साझा विरसा है। इस मीठी ज़बान को फ़रोग़ देने और इसकी हिफ़ाजत की ज़िम्मेदारी हम सभी की है। उर्दू किसी मज़हब की नहींबल्कि हमारे मुल्क़ की ज़बान है। बावजूद इसके उसे जो एहतिराम मिलना चाहिए था,वह नहीं मिला।

उर्दू के साथ कहीं न कहीं नाइंसाफ़ी हो रही है। यही वज़ह है कि हमारे मुल्क में इसके बोलने वाले कम होते जा रहे हैं। एक दौर में जब उर्दू ज़बान को पढ़ना-लिखना पूरी सोसायटी में स्टेटस सिम्बल का काम माना जाता थाअचानक ऐसा क्या हुआ कि आहिस्ता-आहिस्ता इस ज़बान को पढ़ने-बोलने वाले कम होते चले गए। यह ज़बान मस्ज़िदमदरसेमज़हबी किताबों और उर्दू मीडिया तक महदूद होकर रह गई।

इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें अपने माज़ी में झांकना होगा। क्योंकिइस सवाल की पैदाईश वहीं से शुरू होती है। उर्दू जो कि हिंदुस्तान में मुस्लिम हुक़ूमत के दौरान तुर्की सिपाहियों और मुक़ामी बाशिदों के बीच संवाद के सुविधाजनक माध्यम के तौर पर विकसित हुई। जो कि सच मायने में हिंदी का पूर्वगामी रूप है। जो कि फ़ारसीअरबीसंस्कृत और अनेक स्थानीय बोलियों का मिश्रण है। जो कि पूरे तौर पर खड़ी बोली पर आधारित है। जिसका व्याकरण हिंदी के समान है। जो कि 1857 में प्रतिरोध की ज़बान बनकर उभरी थी। 1857 की क्रांति के बादहिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेज़ों ने इसे साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया। एक तरफ़ उन्होंने उर्दू को हर तरफ़ बढ़ावा दियातो दूसरी ओर हिंदी को भी इसके ख़िलाफ़ खड़ा करने में मदद की।

उर्दू-हिंदी जो कभी दोनों सगी बहनें थींजिनकी मां एक है। आहिस्ता-आहिस्ता मज़हब के नाम पर बंट गईं। हिंदी-उर्दू विवाद बेहूदा स्वरूप लेता चला गया। हिंदू-उर्दू ज़बान के झगड़े आगे चलकर हिंदू-मुस्लिम झगड़ों में तब्दील हो गए। अंग्रेज हुक्मरानों ने भी इस झगड़े को जानते-बूझते हवा दी।

मुहम्मद अली जिन्ना और दीगर मुस्लिम लीगी लीडरों ने दोनों समुदायों को सियासी तौर पर बांटने के लिए जहां उर्दू का दुरुपयोग कियातो वहीं हिंदू महासभा और आर्य समाजियों ने भी प्रतिक्रियास्वरूप हिंदी को हिंदू  धर्म से जोड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। नतीज़तनहमारे साझे विरसे उर्दू का भी साम्प्रदायिकरण हो गया।

इतिहास गवाह हैआज तक वह इससे उबर नहीं पाई है। गोया कि मुल्क़ के बंटवारे के बाद मिली आज़ादी ने उर्दू को महज़ मुसलमानों की भाषा बनाकर रख दिया है।
 

हालांकिसंविधान के तहत उर्दू का शुमार मुल्क की अनुसूचित भाषाओं में होता हैलेकिन आज़ाद हिंदुस्तान में इस ज़बान के जानिब पूर्वाग्रह इतना गहरा है कि आम हो या ख़ास सभी की नज़र में इसका दर्जा मुस्लिम ज़बान का है। एक अहम बात और चूंकि इस ज़बान का आर्थिक जीवन से कोई वास्ता नहीं हैलिहाज़ा उर्दूभाषी मुसलमानों की तादाद भी दिन-पे-दिन घटती जा रही है।

सरकारी मदद की कमीक्षेत्रीय भाषाओं की अस्मितावादी राजनीतिअंग्रेज़ी का हर विभाग में बढ़ता वर्चस्व और इस ज़बान में पढ़ने वालों के लिए नौकरियों और रोजगार के मौक़ों की लगातार कमीवे अहम वजह हैंजिसके चलते उर्दू ज़बान का ख़ासा नुक्सान हुआ। तिस पर चंद तंग-नज़र सियासतदानों ने तो बरसों से उर्दू के ख़िलाफ़ जैसे एक मुहिम छेड़ी हुई है।

उर्दू का मिज़ाज एक मख़्सूस गंगा-जमुनी तहज़ीबमेल-जोलमुहब्बत और ख़ुलूस का रहा है। बावजूद इसके कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के हिमायती उर्दू पर तोहमतें लगाते रहते हैं। उनके संकीर्ण राष्ट्रवाद में उर्दू के लिए कोई जगह नहीं। वे विदेशी ज़बान अंग्रेज़ी से तो गलबहियां करने के लिए तैयार हैंलेकिन अपनी देशी ज़बान उर्दू के लिए किसी भी तरह की सरकारी हिमायत के ख़िलाफ़ हैं। वैसे यह कहना भी पूरी तरह से दुरुस्त नहीं होगा कि हिंदुस्तानी हुकूमतें उर्दू के जानिब हमेशा उदासीन रहीं और उन्होंने इसकी बेहतरी के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाए ?
इन हुकूमतों ने उर्दू को बचाने के लिए कुछ कोशिशें कींलेकिन अफ़सोस ! यह कोशिशें कामयाब नहीं हो पाईं। मरक़ज़ी हुक़ूमतों की इन तमाम कोशिशों में एक अहमतरीन फ़ैसला थासभी सरकारी स्कूलों में 10: 40 का फ़ार्मूला। जिसके तहत 40 स्टूडेंट्स की क्लास मेंयदि उर्दू को तालीम के मीडियम के तौर पर लेने वाले 10 स्टूडेंट्स भी होंतो उसके लिए ज़रूरी सहुलियतों का जिनमें उर्दू टीचरों की नियुक्ति भी शामिल थींका प्रावधान किया गया। लेकिन सूबाई सरकारें जिन्हें इस फ़ार्मूले को ज़मीनी तौर पर अमल में लाना थाउन्होंने इस पर कतई गंभीरता से काम नहीं किया। उनका आम बहाना होता कि हमारे पास पर्याप्त छात्र नहीं हैं या टीचर नहीं हैं। इस तरह उर्दू ज़बान को ज़िंदा रखने की यह नायाब कोशिशजानते-बूझते नाकामयाब कर दी गई। आज भी स्कूलों में यह प्रावधान लागू हैंमगर स्कूलों के प्रिंसिपल बच्चों के मां-बाप से अब यह बात मनवाने में कामयाब हो गए हैं कि वे अपने बच्चों की तालीम का मीडियम उर्दू नहीं रखना चाहते।


उर्दू भाषी और दीगर भाषाई अल्पसंख्यकों की हिफ़ाजत के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी ओर से कई ईमानदार कोशिशें कीं। साल 1962 में उन्होंने एक भाषा कमिश्नर की नियुक्ति की। जिसका कामभाषाई अल्पसंख्यकों को मुहैया कराई जाने वाली सहूलियतों का निरीक्षणपुनर्निरीक्षण और उनकी शिकायतों को दूर करना था। भाषाई कमिश्नर ने हर रिपोर्ट में एक के बाद एक शिकायत की कि ज़्यादातर सूबेउर्दू के जानिब अपनी ज़िम्मेदारियों को ठीक तरह से नहीं निभा रहे हैं। जिसके चलते हर जगह उर्दू छात्रों और अध्यापकों की तादाद घटती जा रही है। आज भी यह सिलसिला थमा नहीं हैबल्कि और भी बढ़ गया है।

पसमंज़र यह है कि इस मामले में कोई भी सरकार हो आधिकारिक स्तर पर लगातार यह कोशिशें की जा रही हैं कि उर्दू की पढ़ाई को निरुत्साहित किया जाए। अपवादस्वरूप कुछ राज्यों में ही उर्दू के लिए माहौल खु़शगवार है। वरना मुल्क के हर हिस्से में एक जैसी कहानी है। यहां तक कि मुस्लिम बहुल आबादी वाले सूबों उत्तर प्रदेशपश्चिम बंगालबिहारअसम और महाराष्ट्र में भी उर्दू के तईं निराशा और उदासीनता का माहौल है।

यदि इसकी तह में जाएंतो आर्थिक कारण और आधिकारिक निष्क्रियता दोनों ही ज़िम्मेदार हैं। तल्ख़ हक़ीक़त यह है कि उर्दू को किसी भी सूबे में वाजिब सरकारी मदद नहीं मिल रही है। उर्दू के जानिब हुकूमतों का रवैया सौतेला ही रहा है। अलबत्ता हर सूबे में एक उर्दू अकादमी ज़रूर है। जिसका इस्तेमाल हुक़ूमतें अपने मनचाहे लेखकों और शायरों को नवाज़ने के लिए करती हैं। आम अवाम में उर्दू को कैसे बढ़ावा मिले ?, इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं। उर्दू पत्र-पत्रिकाओं को मिलने वाले सरकारी इश्तिहारों में आई कमी ने इस ज़बान का और नुक्सान किया। गोया कि कई सूबों में तो उर्दू अख़बारों के लिए सरकारी इश्तिहारों पर भी पाबंदी है। देखते-देखते उर्दू के लाखों की तादाद में छपने वाले अख़बार और पत्रिकाएं बंद हो गईं और कुछ बंद होने की कगार पर हैं। सरकारी मदद से हर साल चंद किताबें छपती हैं और सरकारी अनुदान से चलने वाली लाईब्रेरी में जाकर दफ़न हो जाती हैं।

कुल जमा जो ज़बान महज़ जज़्बाती नारोंसियासी वायदों और कुतुबख़ानों के दम पर चल रही होवह आख़िर कैसे लंबे अरसे तक ज़िंदा रह सकती है?


उर्दू की राह में आने वाली इन अड़चनों को दूर करने और उर्दू भाषियों के शिकवे-शिकायतें दूर करने के लिए हमारी एक और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार के एक मंत्री इन्द्रकुमार गुजराल की क़ियादत में एक कमेटी नियुक्त की। कमेटी ने दो-तीन साल काम किया और आख़िर में अपनी रिपोर्ट तय्यार कीलेकिन श्रीमती गांधी ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। यह रिपोर्ट धूल खाती रही। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जब केन्द्र की सत्ता में आएतो उन्होंने इस रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में पेश किया। चूंकि एक लंबा अरसा बीत चुका था और इस बीच उर्दू ज़बान की बेहतरी के लिए सरकार ने कोई ख़ास क़दम नहीं उठाए थे। लिहाज़ा गुजराल कमेटी की सिफ़ारिशों का पुनर्निरीक्षण करने और उन्हें अमल में लाने की तजवीज़ों और नए रास्तों का सुझाव देने के लिए मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री की क़ियादत में दोबारा एक कमेटी क़ायम की गई।

जाफ़री कमेटी ने भी अपना काम समय से पूरा कर लिया। लेकिन अफ़सोस! उनकी सिफ़ारिशों पर भी धूल की परतें चढ़ रही हैं। वी.पी. सिंह के बाद एक के बाद एक आने वाली तमाम मरकज़ी हुक़ूमतों ने इस रिपोर्ट के जानिब अब तक कोई ग़ौर-ओ-फ़िक्र नहीं की है।


इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक में पहले सच्चर कमेटी और बाद में रंगनाथ मिश्र आयोग दोनों ने ही अपनी रिपोर्टों में उर्दू की तरक़्क़ी के लिए कई अहम सिफ़ारिशें कीं। सच्चर कमेटी ने उर्दू को गु़र्बत और गर्दिश से बाहर निकालने के लिएजहां सभी सूबों को अपने यहां उर्दू मीडियम के स्कूल संचालित करनेउनमें वाजिब सहुलियतें और पढ़ाने वाले टीचरों की कुशलता बढ़ाने की वकालत कीतो वहीं मुल्क में धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव को दूर करने के रास्तों की तलाश के वास्ते बनाए गए रंगनाथ मिश्र आयोग का मानना है कि अल्पसंख्यकों के हितों के लिए शिक्षा में त्रि-भाषा फॉर्मूला अनिवार्य किया जाना बेहद ज़रूरी है। जिसके तहत सभी सूबों में मातृभाषा के साथ-साथ उर्दू एवं पंजाबी ज़बान की तालीम लाज़िमी हो। रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है,‘‘सूबाई सरकारों को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में वित्तीय व दीगर संसाधनों समेत सभी सुविधाएं मुहैया कराना चाहिए।’’ मुल्क में त्रि-भाषा फार्मूला लागू करने की ये बात ऐसा नहीं है कि पहली बार उठी हैबल्कि आज़ाद हिंदुस्तान में हमारे हुक्मरानों ने उर्दू ज़बान को ज़िंदा रखने और इसकी तरक़्क़ी के लिए साल 1949 में सेकेंडरी शिक्षा में भाषायी (तीन भाषा) फ़ार्मूला बनाया था। जिसके तहत एक मातृ भाषाएक आधुनिक भाषा और एक विदेशी भाषा का प्रस्ताव था। लेकिन उस पर आज तलक सही तरीक़े से अमल नहीं हुआ।

आज़ादी के 75 साल बाद भी मुल्क में उर्दू मीडियम की कोई यूनीवर्सिटी नहीं है। यहां तक कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी ने भी अपने यहां उर्दू विभाग की क़ायमगी के अलावा किसी भी तरहउर्दू का हक़ अदा नहीं किया है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी हो या दिल्ली का जामिया मिल्लिया इस्लामिया कहीं भी उनके तर्जे़ अमल में उर्दू को कोई जगह नहीं। जबकि होना यह चाहिए था कि उर्दू को राज्य और केन्द्रशासित क्षेत्र दोनों में संविधान की धारा 345 के तहत कानूनी हैसियत प्रदान की जाती।


रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को आए हुए डेढ़ दशक से ज़्यादा हो गए हैंलेकिन इस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों पर सरकार ने अभी तलक कोई कार्रवाई नहीं की है। उर्दू के जानिब सरकार का नकारात्मक और उदासीन रवैया जस का तस बना हुआ है। सरकारें तो सरकारेंउर्दू जिसने हिंदुस्तानी मुसलमानों को एक ख़ास पहचान दी और जिसमें उनका मज़हबीसांस्कृतिक साहित्य गोयाकि उनका सुनहरा अतीत क़लमबंद है। उनकी प्राथमिकताओं की फे़हरिस्त में भी आज उर्दू के लिए कोई जगह नहीं।

हुक़ूमतों की लाख उदासीनताओं के बावजूद उर्दू को बचाया जा सकता थायदि मां-बाप बच्चों को कम से कम अपने घरों में यह ज़बान सिखाते। लेकिन अफ़सोस! उन्होंने भी अपना फ़र्ज़ ठीक ढंग से नहीं निभाया। अपनी मादरी ज़बान को बचाने के लिए उन्होंने अपने तईं कोई कोशिश-ओ-फ़िक्र नहीं की। वे जहां-जहां भी हैंक्षेत्रीय भाषाएं अपनाकर ही मुतमईन हैं। स्कूलों में भी वे उर्दू की बजाय दीगर ज़बानों को तवज्जोह देते हैं। इन्हीं सब बातों का नतीजा है कि आज यह ज़िंदा ज़बान अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रही है।

आज़ाद हिंदुस्तान में उर्दू की बदहाली पर मशहूरमा'रूफ़ शायर साहिर लुधियानवी ने एक नज़्म लिखी थीजो आज भी उर्दू के हालात पर बिल्कुल सटीक बैठती है। इस नज़्म के दिल को रुला देने वाले चंद अशआर के साथ मैं अपनी बात ख़त्म करता हूं, ‘‘जिन शहरों में गूंजी थी ग़ालिब की नवा बरसों/उन शहरों में अब उर्दू बेनाम-ओ-निशां ठहरी।’’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest