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तिरछी नज़र: 'नींद क्यों रात भर नहीं आती'

शायद ‘सरकार जी’ को देश की दशा के कारण ही कम नींद आती है। क्या करें, सरकार जी ने देश की दशा ही ऐसी कर दी है कि उनकी ही नहीं, हमारी ही नहीं, सभी की नींद उड़ गई है।
Satire
प्रतीकात्मक तस्वीर

सरकार जी बहुत ही कम सोते हैं या फिर कहा जाये तो लगभग सोते ही नहीं हैं। पर सोते अवश्य हैं। हर रोज तीन घंटे जरूर सोते हैं पर यह तीन घंटे का सोना भी कोई सोना है। सरकार जी अट्ठारह घंटे काम करते हैं, बाकी सब कुछ तीन घंटे में करते हैं, और शेष बचे तीन घंटे सोते हैं।

कहते हैं, बुढ़ापे में नींद कम ही आती है। बहुत से लोग बुढ़ापे में तीन घंटे से भी कम सोते हैं। पर सरकार जी बूढ़े थोड़े ही न हैं। सरकार जी की कम नींद बुढ़ापे की वजह से नहीं है। सरकार जी की कम नींद तो किसी और वजह से ही है। बुढ़ापे के अलावा कई सारी बीमारियों में भी नींद कम हो जाती है। रात भर खांसने वाले मरीज न तो खुद सोते हैं, और न ही औरों को सोने देते हैं। इसके अलावा मस्तिष्क के कुछ विकारों में और कुछ मानसिक रोगों में, अवसाद आदि में भी नींद कम हो जाती है। पर सरकार जी की नींद इन वजहों से भी कम नहीं है। सरकार जी का स्वास्थ्य तो बहुत ही अच्छा है। और ईश्वर करे उनका स्वास्थ्य हमेशा ही अच्छा बना रहे।

बाज लोग जो कुछ नशा वगैरह करते हैं उन्हें भी नींद आने में दिक्कत होती है। उस समय विशेष रूप से होती है जब उन्हें नशा न मिले अथवा वे नशा छोड़ने की कोशिश कर रहे हों। पर शायद हमारे सरकार जी को तो काम के अतिरिक्त और किसी तरह का नशा शायद ही है। शायद सरकार जी को देश की दशा के कारण ही कम नींद आती है। क्या करें, सरकार जी ने देश की दशा ही ऐसी कर दी है कि उनकी ही नहीं, हमारी ही नहीं, सभी की नींद उड़ गई है।

खैर सरकार जी को तो प्रैक्टिस थी कम नींद की। सरकार जी तो गुजरात से ही कम नींद की प्रैक्टिस कर के आये थे। पर अब हमारी नींद भी गायब है। पहले आती थी, और खूब गहरी आती थी। पर अब धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। बल्कि अब तो बिल्कुल ही गायब हो गई है।

पहले नोट बंदी आई। उसकी वजह से नींद गायब हुई। थोड़ा नींद आना शुरू ही हुई थी कि जीएसटी लग गई। फिर नींद गायब। जीएसटी के बाद महंगाई, कोरोना, लॉकडाउन। आंखें बंद करो तो अपने घरों को लौटते मजदूरों के वीडियो आंखों के सामने घूमने लगते। चिलचिलाती धूप में नंगे पांव छोटे-छोटे बच्चों के साथ वापस लौटते मजदूर। रास्ते में खाने और पानी को तरसते मजदूर। पुलिस की लाठियां खाते मजदूर। सरकार जी तो हर रोज तीन घंटे सोते थे, सोते रहे पर हमारी नींद तो गायब ही हो गई।

फिर 'कोरोना गोन' हो गया। सरकार जी ने भी कहा कि कोरोना चला गया है। हमने भी कोरोना वायरस को बाय-बाय कह दिया। लेकिन यह कमीना कोरोना फिर वापस आ गया। हमारी बाय-बाय का लिहाज भी नहीं रखा। और जब आया तो और अधिक जोर शोर से आया। हमारी नींद फिर गायब हो गई। सोने के लिए आंखें बंद करते तो कानों में चीख पुकार गूंजने लगती। आंखों के सामने तरह तरह के दृश्य घूमने लगते। कभी ऑक्सीजन और अस्पतालों में बिस्तर के लिए पुकार लगाते मरीजों के रिश्तेदार की आवाज गूंजने लगतीं, तो कभी शमशानों पर लगातार जलती चिताओं की लपटें दिखाई देने लगतीं। कभी गंगा जी में तैरते शव दिखाई देने लगते तो कभी गंगा किनारे बनी कब्र दिखने लगतीं। नींद आती तो कैसे आती।

फिर कुछ ठीक होने लगा, नींद आने लगी। हालांकि कुछ उचटती हुई सी आती थी। पता था इतनी महंगाई है, ढंग से नींद आए भी तो कैसे आये। पर फिर भी नींद आ ही जाती थी। कुछ ही दिन गुजरे थे कि नींद फिर गायब हो गई। सोने की कोशिश करते तो आंखों के सामने असम में घायल व्यक्ति के ऊपर कूदता हुआ व्यक्ति आ जाता। गोरखपुर घूमने गया हुआ वह व्यक्ति, जिसे पुलिस ने मार दिया, नजरों के सामने आ जाता। लखीमपुर खीरी में शांति पूर्वक आंदोलन करते किसानों को कुचलती 'थार जीप' आंखों के सामने घूमने लगती। नींद फिर आंखों से दूर चली गई।

पर सरकार जी को नींद आती थी, आती है, और आती रहेगी। तीन घंटे ही सही पर उन्हें अच्छी गहरी नींद आती है। उन्हें इन सब बातों की आदत है। हमारा क्या है। हमें कौन सा देश चलाना है जो नींद पूरी करें। बस सरकार जी को नींद आती रहे, अच्छी गहरी नींद आती रहे। देश तो उन्होंने ही चलाना है। पर अगर देश ऐसे ही चलता रहा तो हमारी नींद तो गायब ही रहेगी।

'मिर्ज़ा ग़ालिब' तो कह ही गए हैं। आज कल के हालात के बारे में ही कह गए हैं। हमारे जैसे लोगों के बारे में ही कह गए हैं:

कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नजर नहीं आती।

मौत का एक दिन मुअय्यन है,

नींद क्यों रात भर नहीं आती।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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