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EXCLUSIVE : काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को पर्यटन स्थल बनाने में जुटी बीजेपी सरकार की उपेक्षा से मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक तीर्थ बना लावारिस

उत्तर प्रदेश के बनारस के लमही में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अथाह साहित्यक विरासत समेटने वाला अब कोई नहीं रह गया है। मुंशी प्रेमचंद स्मारक की दुर्दशा को बताती स्पेशल रिपोर्ट। 
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उत्तर प्रदेश के बनारस में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अथाह साहित्यक विरासत समेटने वाला अब कोई नहीं रह गया है। दिव्य काशी, नव्य काशी, भव्य काशी का नारा बुलंद करने वालों ने इस महान साहित्यकार की विरासत को ताले में कैद करके रख दिया है। काशी विश्वनाथ कारिडोर को संवारने पर जहां अरबों रूपये खर्च कर दिए गए, वहीं खंडहर में तब्दील मुंशी प्रेमचंद की धरोहर को बचाने और उनकी यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए न कोई चर्चा है, न कहीं बहस है, न कोई सुनवाई है और न ही सरकार के पास धन। बनारस के लमही में साहित्य के इस मंदिर में अगर कुछ है तो सिर्फ घुप सन्नाटा और उदासी है। यह वही स्मारक है जिसका उद्घाटन 8 अक्टूबर 1959 को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने किया था।

वाराणसी जिला मुख्यालय से करीब 15 किमी दूर बनारस-आजमगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग पर है मुंशी प्रेमचंद का गांव लमही। उनकी कथा-कहानियों में दिखने वाला यह गांव अब गांव नहीं, कंकरीट के जंगल में तब्दील हो गया है, जिसके बियावान में तमाम आलीशान इमारतें तनी हुई हैं। लमही में अब ईदगाह के हामिद का चिमटा, गोदान का होरी और नमक का दारोगा सरीखे नायक कहीं नजर नहीं आते। स्मारक घोषित होने के बाद भी मुंशी जी का पुश्तैनी मकान बदहाल है। लमही ने आधुनिक हिंदी साहित्य को मुंशी प्रेमचंद जैसा कालजयी रचनाकार दिया, जिन्हें देश की आजादी के लिए सजा तक भुगतनी पड़ी।

भारत में मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य के एक ऐसे नाम हैं जिन्होंने आम जन-जीवन की कलाओं को कथा, किताबों, कहानियों में पिरोकर बेहद खूबसूरती के साथ समाज के सामने रखा। इस जनवादी लेखक की कहानियां,उपन्यास आज भी एक विरासत के तौर पर याद की जाती हैं और दुनियां भर में पढ़ी जाती हैं। दुर्योग यह है कि इस महान कथा सम्राट की विरासत की हिफाजत करने वाला कोई नहीं है। लमही गांव में मुंशी प्रेमचंद का घर ऐसा है जो मरम्मत के इंतज़ार में बूढ़ा हो चुका है। वह घर जो कभी उनका बैठका हुआ करता था, जिसे उन्होंने खुद बनवाया था। मौजूदा समय में वह टूटा-फूटा और उजाड़खंड नजर आता है। बिल्कुल बुजुर्ग इनसान की तरह उपेक्षित और विस्मृत। मुंशी जी के बैठके के बाहर एक कुआं है, जो पूरी तरह सूख चुका है। बैठक के ठीक पीछे वो घर भी है, जिसमें मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था, जिसे अब स्मारक के नाम से जाना जाता है।

मुंशी प्रेमचंद स्मारक परिसर में नीम के एक पेड़ के नीचे उनकी प्रतिमा स्थापित है, जो वीरान पड़ी है। स्मारक स्थल के पास दो छोटे-छोटे कमरे और बाहर बरामदा है। कमरों में धूल की मोटी सी परत जमी नजर आती है। यह वही स्थान है जहां शायद गबन, निर्मला, गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि जैसे उपन्यासों के सृजन का बीज पड़ा होगा और मुंशी प्रेमचंद को पूस की रात, कफ़न, नमक का दारोगा जैसी कहानियों के पात्र दिखाई दिए होंगे। मुंशी प्रेमचंद को लमही के लोग धनपत राय के नाम भी जानते हैं। यही उनका मूल नाम भी है। प्रेमचंद ने मंगलसूत्र, कर्मभूमि, निर्मला,गोदान,गबन,प्रतिज्ञा जैसे 15 उपन्यास और लगभग 300 से ज्यादा कहानियों के साथ 10 पुस्तकों का अनुवाद, सात बाल साहित्य सहित, तीन नाटक और न जाने कितनी किताबें लिखी हैं,जो आज भी मौजूद हैं। बनारस के लमही की पहचान मुंशी प्रेमचंद से हैं। उनकी कहानियों का मर्म इस गांव की आब-ओ-हवा में भी घुली है, लेकिन उनकी विरासत को बचाने की चिंता किसी को नहीं है।

ताले में कैद घर और स्मारक

मुंशी प्रेमचंद की यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए दशकों से मुहिम चला रहे डॉ. दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव कहते हैं, "हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए देश में लमही से बड़ा कोई तीर्थ नहीं है और मुंशी प्रेमचंद के स्मारक से बड़ा कोई साहित्य का मंदिर नहीं है। अफसोस की बात यह है कि यहां सिर्फ भूले-भटके साहित्य प्रेमी ही आते हैं। कुछ ही बरस पहले भाजपा सरकार के सांस्कृतिक मंत्री जयपाल रेड्डी ने लमही पहुंचकर मुंशी प्रेमचंद के आवास और बैठक को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित करने का ऐलान किया था। उन्होंने यह भी दावा किया था कि उनकी विरासत को शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ और कीट्स के स्मारकों की तरह संवारा जाएगा। सरकार, अफसर और नेता वादे पर वादे करते रहे, लेकिन लमही में मुंशी प्रेमचंद के स्मारक के दिन नहीं बहुरे। उनके घर और स्मारक में उनका कोई भी सामान सही-सलामत नहीं है। न घर रहने लायक है, न देखने लायक स्मारक।"

डा.दुर्गा प्रसाद बताते हैं,"लमही गांव की स़ड़क ऊंची होने के कारण मुंशी जी का बैठका और उसके सामने की गली जलमग्न हो जाती है। कमरों में महीनों पानी भरा रहता है। जल निकासी का यहां कोई इंतजाम नहीं है। तीन तल्ले वाले बैठके के कमरों की खिड़कियों और दरवाजों को दीमक तेजी से चाट रहे हैं। बैठका में लगे पंखे और बल्ब चोरी हो गए हैं। बिजली के स्विच तक उखाड़ लिए गए हैं। समूचा बैठका भुतहा हवेली नजर आता है। वहां बिजली-पानी का कोई इंतजाम नहीं है। बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। मीटर बिजली विभाग वाले ले गए हैं। पंखे, किताबें सहित कई अन्य कीमती चीजें चोरी हो गई हैं। बैठका और स्मारक में साहित्य प्रेमियों के बैठने और किताबों को संजोकर रखने के लिए रैक तक नहीं है। तमाम किताबें जमीन पर फैलाकर रखी गई हैं। वहां न तो प्रेमचंद की चौकी है, न ही उनकी क़लम और दवात। बैठका में न कोई कापी है, न किताब। हालात को देखकर कोई यह नहीं बता सकता है कि वहां दुनिया के किसी बड़े साहित्यकार ने अनमोल रचनाओं को लिपिबद्ध किया होगा।

डा. दुर्गा प्रसाद श्वीवास्तव

कुछ बरस पहले मुंशी प्रेमचंद के बैठके की मरम्मत कराई थी, लेकिन मौजूदा समय में हालात जस के तस हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति प्रेमचंद की स्मारक पर लगी प्रतिमा की है। लमही में ग्राम समाज की साढ़े ग्यारह एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा हो गया। फिर भी प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंग रहा है। मुंशी प्रेमचंद की विरासत को बचाने के लिए अब कानूनी लड़ाई लड़ी जाएगी। बनारस के अधिवक्ताओं ने आंदोलन-प्रदर्शन करने के साथ ही हाईकोर्ट से लगायत सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने पर सहमति जताई है।" मुंशी प्रेमचंद की धरोहर को बचाने की लड़ाई अकेले दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव लड़ रहे हैं। मुंशी जी के कुनबे के लोग उनके जन्मदिन पर भी लमही नहीं आते। आरोप है कि वो सिर्फ किताबों की रायल्टी खाते हैं।

मुंशी प्रेमचंद की विरासत को बचाने के लिए बनारस के अधिवक्ता छेड़ेंगे मुहिम

हिन्दी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लमही के परमानंद इस बात से दुखी है कि हुक्मरानों ने दुनिया के एक ख्यातलब्ध कालजयी रचनाकार की विरासत को तालों में बंद करके रख दिया है। वह कहते हैं, "लमही में प्रेमचंद के नाम पर हर साल 31 जुलाई को जब जलसा होता है तो कुछ साहित्यकार आते हैं और कुछ नेता भी। साल 2005 में मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक, म्यूजियम और पुस्तकालय बनाने की बात भी तय हुई थी। स्मारक को चिरस्थायी बनाने के लिए कुछ साल पहले शासन ने सात करोड़ रुपये रिलीज भी किया, लेकिन नौकरशाही ने प्रेमचंद स्मारक को विवादित बताते हुए समूचा धन लौटा दिया। प्रेमचंद स्मारक को लेकर कोई विवाद नहीं है, क्योंकि इनका बैठका और स्मारक कई साल पहले बनारस की साहित्यक संस्था नागरी प्रचारणी सभा को दान में दे दिया गया था।"

परमानंद

उपेक्षित है शोध संस्थान

साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के नाम पर लमही में स्थापित शोध संस्थान भी बदहाल है। यह तभी खुलता है, जब उनका जन्मदिन मनाना होता है। वहां तैनात कर्मचारी किसी को अंदर घुसने नहीं देते। शोध संस्थान को देखने के बाद कोई भी यह बात दावे के साथ कह सकता है कि वहां मुद्दतों से साफ-सफाई नहीं हुई होगी। सभा कक्ष की कुर्सियों पर धूल की मोटी सी परत जमी हुई है। बरामदा भी धूल से पटा है। शौचालय की स्थिति दयनीय है। यही हाल लाइब्रेरी की है। लाइब्रेरी के अंदर एक-दो अलमारियां हैं, लेकिन कोई किताब नहीं है। यहां कोई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है जहां मुंशी प्रेमचंद पर शोध किया जा सके। शोध संस्थान के बाहर लगे पेड़ पौधे गर्मी के चलते झुलस रहे हैं। बाग-बगवानी की देखरेख का प्रबंध ठीक नहीं है।

बनारस के पांडेयपुर चौराहे पर बदहाल मुशी प्रेमचंद की प्रतिमा

मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान को संचालित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साल 2005 में पांच करोड़ रुपये मुहैया कराया था। इस संस्थान की स्थापना के समय तय किया गया था कि यहां अकादमिक कार्य,शोध, संगोष्ठी,व्याख्यान,परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाएगा। प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित प्रकाशन को बढ़ाना देना, प्रेमचंद पर वृत्तचित्र का निर्माण,उनकी कहानियों पर आधारित कोलाज बनाने के अलावा वाद-विवाद, निबंध, कहानी-लेखन, कहानी पाठ आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन करने की योजना बनी थी। लमही में मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान की स्थापना इस मकसद से भी की गई थी कि यहां साहित्यिक चर्चा, एकेडमिक कार्यकलाप और शोधगत विषयों पर अध्ययन किया जा सकेगा। ये सभी योजनाएं फाइलों में दफन हो गईं और दावे हवा-हवाई हो गए।

लमही में मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान की बदहाली बहुत कुछ बयां कर रही है। 31 जुलाई, 2016 में जब शोध संस्थान का लोकार्पण हुआ था तो हिन्दी प्रेमियों में साहित्यिक विकास की उम्मीद जगी थी। करोड़ों रुपये की लागत से स्थापित इस शोध संस्थान में अब तक एक भी शोध नहीं हो सका है। फिलहाल इस शोध संस्थान की जिम्मेदारी बीएचयू स्थित कला संकाय के डीन के पास है। बीएचयू में हिन्दी और ऊर्दू विभाग के कुछ प्रोफेसर इस संस्थान के सदस्य हैं, लेकिन उन्होंने भी मुंशी प्रेमचंद की विरासत को विसरा दिया है।

विरासत की हिफाजत नहीं

समाजसेवी सुरेश चंद दूबे कहते हैं, "मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान में नवोदित साहित्यकारों और लेखकों को तो मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान में फटकने तक नहीं दिया जाता है। यहां 31 जुलाई को सालाना जलसा होता है। इसके बाद पूरे साल के लिए ताले में कैद कर दिया जाता है। मुंशी प्रेमचंद राष्ट्रीय स्मारक की जमीन का कुछ लोगों ने अवैध और फर्जी ढंग से बैनामा करा लिया है। बगैर नक्शा के वहां हवेली खड़ी कर दी गई है। साल 2012 के पहले प्रेमचंद जयंती पर तीन दिन तक जलसा होता था, लेकिन अब वह सिमटकर एक दिनी हो गया है।"

समीपवर्दी गांव ऐढ़े निवासी अरविंद पांडेय कहते हैं, "लमही में मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा और जर्जर भवन को देखकर कोई यह नहीं कह सकता है कि वह किसी चर्चित साहित्यकार का स्मारक है। मुलायम सरकार ने मुंशी जी की स्मृतियों को संजोने का हरसंभव जतन किया, लेकिन सत्ता बदलते ही नौकरशाहों की नजरें बदल गईं। प्रेमचंद के कुनबे के तमाम लोग भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता बन गए हैं। ऐसे कार्यकर्ता जिनके खिलाफ मुंशी जी जीवन भर लड़ते रहे। लमही के लोग खुलेआम कहते हैं कि यहां ग्राम समाज की जमीनें खुर्द-बुर्द की जा रही हैं, लेकिन प्रशासन आंख बंद किए बैठा है। प्रेमचंद सरोवर बनाया गया है उसके चौतरफा अवैध कब्जा हो रहा है।"

"मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान के जरिये बीएचयू के कुछ लोग अपना हित साध रहे हैं। किसी को कोई हिसाब-किताब नहीं दे रहा है। यही हाल बनारस के संस्कृति विभाग का भी है। प्रेमचंद के नाम पर आने वाला धन अफसर ही डकार जाते हैं। इस साहित्यकार की समूची विरासत ऐसे हाथों में दे दी गई है जिससे लमही परंपरा और विरासत बचने की कोई उम्मीद नहीं है।"

मुंशी जी की प्रतिमा भी बदहाल

वाराणसी के पांडेयपुर चौराहे पर फ्लाईओवर के नीचे स्थापित मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा बदहाल है। प्रतिमा पूरी तरह उपेक्षित है और उस पर धूल की मोटी गर्द जमी हुई है। बारिश के दिनों में पुल से रिसने वाला गंदा पानी गिरता है जिसके चलते प्रतिमा का सफेद रंग बदरंग हो गया है। प्रतिमा को देखकर ऐसा लगता है कि लंबे समय से उसकी सफाई तक नहीं की गई है। प्रतिमास्थल पर भी गंदगी बिखरी हुई है।

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "पांडेयपुर चौराहे पर मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा इसलिए भी उपेक्षा की शिकार हैं क्योंकि उसे संवारने से बीजेपी सरकार का वोट बैंक नहीं बढ़ने वाला है। यह सरकार तो सिर्फ सियासी नफा-नुकसान की परिभाषा समझती है और उसी के अनुरूप काम करती है। काशी विश्वनाथ मंदिर को पर्यटन स्थल में बदलने से उसका वोटबैंक मजबूत हो रहा है। लमही स्थित साहित्य के मंदिर में मुंशी प्रेमचंद की विरासत को संवारने से बीजेपी को भला क्या मिलेगा? हालात ऐसे हैं कि अगर उच्च शिक्षा के कोर्स से मुंशी प्रेमचंद हटा दिए जाएं तो कोई अचरज की बात नहीं होगी। तब उनकी जगह शायद सावरकर और दीनदयाल की गाथा पढ़ाई जाने लगेगी। कालजयी रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद्र और जयशंकर बनारस की पहचान रहे हैं। प्रेमचंद से नागरी प्रचारणी भी जुड़ी है। इनकी पांडुलियों को सहेजने और लमही को हिन्दी के तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने की जरूरत है। मुंशी जी की विरासत को संवारने के लिए इतना बजट मिलना चाहिए ताकि देश-दुनिया से बनारस आने वाले लोगों को पता चल सके कि बनारस धर्म ही नहीं, साहित्य का भी पुरोधा रहा है।"

सिर्फ वोटबैंक की चिंता

वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस में हर किसी को धर्म और मंदिरों चिंता है, लेकिन मुंशी प्रेमचंद की धरोहरों को ताले में कैद करके रख दिया गया है। सिर्फ प्रेमचंद की जन्मस्थली ही नहीं, नागरी प्रचारणी सभा, भारतेंदु व जयशंकर प्रसाद के जन्म स्थलों को कायदे से सहेजने की जरूरत नहीं समझी गई। काशी विश्वनाथ कारिडोर को चमकाया जा रहा है और पानी की तरह धन भी बहाया जा रहा है, लेकिन साहित्य के मंदिरों को दर्शनीय बनाने को कोशिश नहीं हो रही है। राजनीति के केंद्र में धर्म आ गया है और धर्म से वोट की फसल पैदा हो रही है। साहित्य से समाज को ताकत मिलती है। समाज को ताकत देना सत्ता के लिए खतरनाक है। हिन्दी साहित्य ने समाज में आत्मसम्मान और जागरूकता पैदा की। प्रेमचंद का पूरा साहित्य सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ खड़ा है। ये चीजें सत्ता को बहुत खटकती हैं। मुंशी प्रेमचंद की उपेक्षा की सबसे बड़ी वजह भी यही है।"

" मुझे यह करने में तनिक भी गुरेज नहीं है कि हिन्दी की जन्मस्थली काशी में साहित्य के पुरोधा मुंशी प्रेमचंद के स्मारक की बेकदरी हो रही है तो यहां हिन्दी की अप्रतीम सेवाओं की घोर उपेक्षा भी की जा रही है। काशी सिर्फ धर्म की नहीं, साहित्य और संस्कृति की राजधानी रही है। उसे यह पहचान बनारस के साहित्यकारों और उनकी रचनाओं के जरिए मिली है। यह कहना गलत न होगा कि हिन्दी खड़ी बोली ने बनारस में ही आकार लिया। इसका श्रेय बनारस के साहित्यकार बाबू हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद शुक्ला जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की वजह से प्राप्त हुआ। साहित्यिक नजरिये से देखा जाए तो बनारस में मूर्त और अमूर्त दोनों तरह की धरोहरें हैं। लेकिन सरकारों ने इन धरोहरों को संरक्षित और संवर्धित करने का कोई उपाय नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण,लमही में मुंशी प्रेमचंद का स्मारक है।"

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप यह भी कहते हैं,"बनारस के साहित्यकारों की धारा समाज के हक में और सत्ता के खिलाफ रही है। वैसे भी साहित्य खुद मुख्तारी की चेतना पैदा करता है। यह चीज सिस्टम को खराब लगता है। इसीलिए वो इसे संजोकर नहीं रखना चाहते, क्योंकि उन्हें खतरा मससूस होता है। प्रेमचंद ने बेईमान हुक्मरानों को जितनी बड़ी चुनौती देते हुए समाज में चेतना पैदा करने की कोशिश की वह बदलाव की बेचैनी पैदा करती है। वह बदलाव सत्ता को सहन नहीं होता है। वो चाहते हैं कि साहित्य के मंदिर खत्म हो जाएं... दफन हो जाएं...। अच्छी बात यह है कि साहित्य अजर और अमर है। साहित्य अतीत का इतिहास नहीं, वर्तमान और भविष्य को भी रेखांकित करता है। लगता है कि बीएचयू के हिंदी विभाग को न प्रेमचंद को पढ़ाना है, न उन्हें आगे बढ़ाना है। उन्हें तो आरएसएस की नैया की पतवार बनना है। तभी तो वहां तंत्रमंत्र और भूतविद्या जैसे अजीबोगरीब पाठ्यक्रम शुरू कर दिए जाते हैं।"

सूख गया है आंखों का पानी

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के आचार्य मनोज कुमार सिंह कथाकार मुंशी प्रेमचंद की ढह रही विरासत को लेकर खासे चिंतित हैं। वह कहते हैं, "मुंशी जी जनता के लेखक थे। जब देश की जनता सामंती व्यवस्था के भीतर पिस रही थी तब उसके दर्द को एक रचनात्मक स्वर देने की कोशिश की थी। सपनों की दुनिया से बाहर निकालकर साहित्य को यथार्थ की जमीन पर खड़ा किया। उनके बहुतेरे पात्र हैं जो रोजमर्रा और आम जिंदगी के भीतर से उठाए गए थे। उनके पात्रों के संघर्ष, गुलामी के दौर में आम जनता के संघर्ष की महागाथा बनकर उभरते हैं। गरीबी और भुखमरी उनकी रचनाओं में नारे, मुहावरे व संज्ञा की तरह नहीं, एक शब्द की तरह आते हैं। मुंशी प्रेमचंद राग के, बोध के, संघर्ष के और मुक्ति के आख्यानकार रहे हैं। उनकी रचनाओं में जहां साम्राज्यवाद की कड़ी आलोचनाएं हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज की जटिलता, उसके भीतरी संघर्ष भी रचनात्मक ढंग से उभरते हैं। वह सांप्रदायिकता के खिलाफ और मनुष्यता के पक्ष में अथक संघर्ष करने वाले अप्रतिम लेखक रहे हैं। ऐसे लेखक को हम कैसे याद कर रहे है? उसकी पूरी विरासत के साथ आज की पीढ़ी कैसे जुड़ रही है, यह गंभीर चिंता का विषय हैं।"

"अचरज की बात यह है कि मुंशी जी के साहित्यिक पीठ को लेकर सरकारें मौन हैं, जनता मौन है, लेखक-पत्रकार मौन हैं, सामाजिक संस्थाएं मौन हैं। बनारस मे सरकार सिर्फ मंदिरों को चमकाने और पुलों व इमारतों पर पेंटिंग कराने में व्यस्त हैं। पांडेयपुर चौराहे पर उनकी प्रतिमा का हाल देखकर संवेदनशील व्यक्ति के आंखों से खून टपकने लगते हैं। सरकारें हैं कि उनकी आंखों का पानी ही सूख गया है। मुंशी जी के स्मारकों को चिरस्थायी बनाने की चिंता किसी को नहीं है। लमही से बीएचयू मीलों दूर है। बीएचयू के लोगों की अपनी व्यस्तताएं हैं। वहां से कभी-कभी लोग जाते हैं और कार्यक्रम करके चले आते हैं। मुंशी प्रेमचंद की विरासत को संजोने के लिए एक स्वायत्त बॉडी बनाया जाए और एक डायरेक्टर नियुक्त किया जाए जो साहित्यक गतिविधियों को सुचारू रूप से चला सके। लमही में सिर्फ उत्सव मनाने से हिन्दी साहित्य का भला नहीं होगा। मुंशी प्रेमचंद ही नहीं, नागरी प्रचारणी सभा की स्थिति भी दयनीय है। कार्माइकल लाइब्रेरी काशी विश्वनाथ मंदिर के विकास में कुर्बान हो गई। बनारस में संस्कृति का मतलब मंदिर और घंटी रह गई है। साहित्य के मंदिरों और लेखकों का कोई माई-बाप नहीं रह गया है। सरकार को चाहिए कि वह विश्वनाथ धाम की तरह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की विरासत को भी सजाए-संवारे ताकि दुनिया भर के हिन्दी प्रेमी लमही आएं तो गर्व महसूस करें।"

दावे और घोषणाएं

2005- मुंशी प्रेमचंद की 125वीं जयंती पर केंद्रीय संस्कृति मंत्री जयपाल रेड्डी ने उनके आवास को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया।

2005- तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह यादव ने मुशी जी के बैठका और स्मारक को संवारने के लिए 25 लाख रुपये की धनराशि आवंटित की। साथ ही शोध संस्थान के निर्माण के लिए पांच करोड़ रुपये भी दिए।

2011-में मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली को पर्यटन केंद्र के रूप में घोषित करने की बात हुई, लेकिन प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार को प्रस्ताव नहीं भेजा।

2016-में इसे हेरिटेज विलेज बनाने की घोषणा की गई, लेकिन पुश्तैनी मकान में न बिजली कनेक्शन है, न साफ-सफाई का कोई इंतजाम।

2018- मुंशी प्रेमचद के स्मारक में आभासी म्यूजियम बनाने की घोषणा की गई, लेकिन 14 बरस बीतने के बाद भी वह हकीकत नहीं बन सकी।

2018- उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग की ओर से लाइट एंड साउंड सिस्टम शो चलाने का प्रस्ताव पास किया गया, लेकिन वह दावा भी हवा-हवाई निकला।

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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