विशेष: शिवलिंग विवाद के दौर में किसको फ़ुर्सत है कि प्रेमचंद को याद करे
बनारस…! धर्म, आस्था, इतिहास, प
गायब है प्रेमचंद का जादू
बनारस मुख्यालय से करीब 15 किमी दूर वाराणसी-आजमगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग से सटा है मुंशी प्रेमचंद का लमही गांव। पांडेयपुर चौराहे से करीब पांच किमी का यह रास्ता गोदान के होरी-धनिया, पूस की रात के हलकू जैसे तमाम किरदारों से रूबरू कराता है। इसके बाद आता है मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही का प्रवेश द्वार। यहां स्मारक के आसपास बने पक्के मकानों की श्रृंखला देखकर यह नहीं लगता कि कथा सम्राट की किताबों में जिस लमही का दृश्य है, वो वहां मौजूद है। वह लमही जो पहले सिर्फ गांव हुआ करता था और वो जादू जो कथा सम्राट की कहानियों मौजूद दिखता था, अब सिरे से गायब है।
ईदगाह के हामिद का चिमटा, गोदान का होरी और नमक का दारोगा सरीखे नायक...अब कहीं नजर नहीं आते। लमही में अगर कुछ नजर आता है तो सिर्फ कंकरीट के जंगल में तनी एक से बढ़कर एक खूबसूरत इमारतें। मुंशी प्रेमचंद स्मारक का हाल देखने पहुंचे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के एक शोधार्थी आचार्य रामानुज ने कहा, "हम देख रहे हैं कि पहले लमही जैसा था, वैसा अब तो बिल्कुल नहीं है। जाहिर तौर पर इस गांव का तेजी से विकास हुआ है। इसके बावजूद लमही में तंगहाली है। घर चलाने के लिए कोई बुजुर्ग पूनम श्रीवास्तव यहां गुमटी में परचून का सामान बेचते दिख जाती हैं तो कोई मुस्लिम समुदाय के छोटेलाल बकरी को चार खिलाते नजर आते हैं। गोदान के होरी और धनिया सरीखे पात्र तो हर दूसरे घर में मिल जाएंगे।"
बारिश में ताल-तलैया बनी प्रेमचंद के घर की गली।
बारिश में डूब जाता है स्मारक
मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य का एक ऐसा नाम है जिसने लोगों की जीवन कलाओं को कथा, किताबों, कहानियों में पिरोकर उनके सामाजिक जन-जीवन को बड़ी ही खूबसूरती से समाज के सामने रखा। आज भी उनकी कहानियां, उपन्यास एक विरासत के तौर पर याद की जाती हैं। यूं तो बनारस का लमही गांव काफी बड़ा है। ज्यादातर लोगों के घर पक्के हैं और इस गांव को शहर को जोड़ने वाली सड़क भी पक्की है। इसी गांव में एक घर ऐसा भी है जो मरम्मत का इंतज़ार करते-करते बूढ़ा हो गया है। यह घर कोई और नहीं, मुंशी प्रेमचंद का बैठका हुआ करता था, जिसे उन्होंने खुद बनवाया था। वो टूटा-फूटा और उजाड़खंड सरीखा दिखता है। किसी बुजुर्ग इनसान की तरह बिल्कुल उपेक्षित और विस्मृत। घर के बाहर एक कुआं है, जिसमें कभी पानी रहा होगा, मगर अब नहीं है। इसी बैठक के ठीक पीछे वो घर भी है, जिसमें मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था। आज वो घर मुंशी प्रेमचंद स्मारक के नाम से जाना जाता है।
जयंती मनाने के लिए लगाए जा रहे तंबू कनात।
लमही के 72 वर्षीय वंशराज पटेल, जिन्होंने मुंशी प्रेमचंद के कई पात्रों से रुबरु कराया तो स्मारक की बदहाली भी दिखाई। नीम के पेड़ के पास कथा सम्राट की प्रतिमा स्थापित है। पास में ही मुंशी प्रेमचंद का 142 वां जन्मदिन मनाने के लिए तंबू-कनात गाड़ने की तैयारी चल रही थी। आंगन में नीम के पेड़ की लटकी हुई डालियां काटी जा रही थी, जिसके पत्ते बिखरे हुए थे। शायद यहीं कहीं गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, निर्
मुंशी प्रेमचंद की यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए सालों से मुहिम चला रहे डॉ. दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव कहते हैं, "भूले-भटके साहित्य प्रेमी यहां आते हैं, जिसके लिए लमही किसी 'तीर्थ स्थल' से कम नहीं। कुछ ही बरस पहले भाजपा सरकार के सांस्कृतिक मंत्री ने लमही पहुंचकर ऐलान किया था कि मुंशी प्रेमचंद के आवास और बैठक को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित किया जाएगा। जिस तरह शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ और कीट्स के घर आज राष्ट्रीय धरोहर हैं, उसी तर्ज पर लमही में कथा सम्राट के स्मारकों को भी संवारा जाएगा। इसे दुर्योग कह सकते हैं कि प्रेमचंद के घर और स्मारक में उनका कोई भी सामान सही-सलामत नहीं है। उनका घर न रहने लायक है, न स्मारक देखने लायक।"
बैठका की दीवारों को भी चाट रहे दीमक।
दुर्गा प्रसाद बताते हैं, "बैठका की हालत यह है कि बारिश में जलमग्न हो जाता है और कमरों में घुटने भर पानी जमा हो जाता है। लमही गांव की सड़क ऊंची हो गई है, जिससे बारिश का सारा पानी बैठका में भर जाता है। पानी की निकासी का यहां कोई इंतजाम नहीं है। तीन तल्ले वाले बैठका के नीचे के कमरों में काई लगी हुई है तो ऊपर के कमरों के दरवाजे दीमक तेजी से चाट रहे हैं। बैठका में लगे पंखे गायब हैं। सभी कमरों के पंखे और बल्ब चोरी हो गए हैं। स्विच तक उखाड़ लिए गए। समूचा बैठका भुतहा हवेली की तरह दिखती है। वहां न तो प्रेमचंद की चौकी नजर आती है, न ही उनकी क़लम और दावात के दर्शन होते हैं। बैठका में न कोई कापी है, न किताब है और न ही उसे देखकर यह एहसास होता है कि दुनिया के किसी बड़े साहित्यकार ने यहां अनमोल रचनाओं को लिपिबद्ध किया होगा।"
वाराणसी विकास प्राधिकरण ने कुछ साल पहले मुंशी प्रेमचंद के बैठका की मरम्मत कराई थी, लेकिन स्थिति जस की तस है। अगर सावधानी न बरतें तो पांव फिसलें तो आप चारो खाने चित हो सकते हैं। उनके स्मारक का हाल भी काफी खराब है। वहां लगी मुंशी जी की प्रतिमा को देखने से लगता है कि सिर्फ औपचारिकता पूरी की गई है।
लमही के लोग बताते हैं कि यहां साल में सिर्फ एक मर्तबा 31 जुलाई को छोटा सा जलसा होता है। कुछ साहित्यकार आ जाते हैं और कभी-कभार नेता भी। स्मारक और बैठका के ठीक सामने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया जा रहा है। लगता है कि कुछ ही दिनों बाद इस मंदिर की भव्यता के आगे प्रेमचंद का स्मारक फीका पड़ जाएगा।
धूल खा रहीं प्रेमचंद की पुस्तकें।
लमही के पूर्व प्रधान संतोष पटेल कहते हैं, "प्रेमचंद की स्मृति में पुस्तकालय बनाने के लिए जमीन मुहैया कराने के लिए हम सभी तैयार हैं, लेकिन कोई ये बीड़ा उठाए तो सही।"
लमही में दो सरकारी स्कूल भी हैं। एक प्राथमिक पाठशाला और दूसरा कन्या पाठशाला। आगे की पढ़ाई के लिए बच्चे बनारस शहर में जाते हैं। लमही के स्कूली बच्चों ने मुंशी प्रेमचंद का नाम सुन रखा है, लेकिन वो कौन थे, इस बारे में उन्हें कुछ भी नहीं मालूम है। 8वीं कक्षा तक पढ़ी रशीदा कहती हैं, "हम सिर्फ इतना जानते हैं कि मुंशी प्रेमचंद कहानी लिखते थे। उनकी कहानी दो बैलों की जोड़ी पढ़ रखी है। कहानी के अलावा वो क्या लिखते थे, हमें नहीं पता।"
चाक पर कुल्हड़ बनाने में मगन नंदलाल और राजबली प्रजापति कहते हैं, "अब तो इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई होने लगी है। सुना जा रहा है कि प्रेमचंद को पाठ्यक्रम से भी हटाया जा रहा है।"
स्मारक स्थल पर ऐसा है पुस्तकों का रख-रखाव।
मुंशी प्रेमचंद को लमही के लोग धनपत राय के नाम भी जानते हैं। यही उनका मूल नाम भी है। प्रेमचंद ने मंगलसूत्र, कर्मभूमि, निर्मला,
विरासत को चाट रहे दीमक
बनारस शहर की सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के लिए कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मिश्र भी प्रेमचंद की उपेक्षा से बेहद आहत हैं। वह कहते हैं, "साल 1997 से लमही जा रहा हूं। तब और अब की लमही में जमीन-आसमान का फर्क है। अब लमही के गंवईपन को शहरीकरण निगल चुका है। साल 2008 तक यहां हमने प्रेमचंद की कहानियों का पात्र देखा है। साल 2009 के बाद उनके पात्रों का कायाकल्प बहुत तेजी के साथ हुआ। जहां भड़भूजे की दुकान थी अब वहां तिमंजिला मकान तन गया है। हम जानते हैं कि हलकू हमेशा हलकू ही नहीं रहेगा। बदलाव तो आएगा, लेकिन इतना नहीं, वो हमारी सांस्कृतिक विरासत को ही निगल जाए। लमही का रामलीला मैदान जो सांस्कृतिक गतिविधयों का बड़ा केंद्र हुआ करता था, उस पर अतिक्रमण और अवैध कब्जों की भरमार है। यहां शहरीकरण की आंधी इतनी तेजी से बह रही है कि समूचा लमही गांव कहीं हिन्दी की कुछ किताबों में सिमटकर गुम न हो जाए? वैसे भी योगी सरकार ने आधिकारिक तौर पर लमही को शहर का ओहदा दे दिया है। मुंशी प्रेमचंद का लमही अब गांव नहीं दिखता। देखने में भी, सुनने में भी। यहां आने पर लगता है कि आप किसी पाश इलाके में आ गए हैं। लमही भले ही स्मार्ट हो रहा है, लेकिन यहां शहर जैसी नागरिक सुविधाएं नहीं हैं।"
पत्रकार अरविंद मिश्र यह भी कहते हैं, "प्रेमचंद के पैतृक आवास को अबकी 22 जुलाई को देखा तो खुद को कोसने लग गया। एहसास हुआ कि बनारस में लिखना-पढ़ना व्यर्थ है। लगता है कि समाज अपनी जिम्मेदारी को भूल गया है। हिन्दी प्रेमी चाहते हैं कि लमही में म्यूजियम और पुस्तकालय बन जाए, लेकिन हुक्मरानों को कोई चिंता नहीं है। बनारस का साहित्यिक समाज भी सोया हुआ है। अफसरों के कान पर जू नहीं रेंग रही है। प्रेमचंद की विरासत और निशानी सिर्फ एक दिन की कहानी बनकर रह गई है। वह कहानी जो सिर्फ 31 जुलाई को सालाना उर्स के जलसे की तरह दुहराई जाती है। लमही में राष्ट्रीय स्मारक, हेरिटेज विलेज बनाने से लेकर शेक्सपियर के गांव की तर्ज पर विकसित करने का ऐलान करने वाले गए तो फिर कभी लौटे ही नहीं।"
"लमही में साल 2005 में मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक बनाने की घोषणा की गई थी। उपन्यास सम्राट की स्मृति में म्यूजियम और पुस्तकालय बनाने की बात भी तय हुई थी। स्मारक को चिरस्थायी बनाने के लिए कुछ साल पहले शासन ने सात करोड़ रुपये रिलीज भी किया, लेकिन नौकरशाही ने प्रेमचंद स्मारक को विवादित बताते हुए समूचा धन लौटा दिया। हमें याद है कि प्रेमचंद स्मारक को लेकर कोई विवाद है ही नहीं, क्योंकि इनके बैठका और स्मारक को कई साल पहले बनारस की साहित्यक संस्था नागरी प्रचारणी सभा को दान में दे दिया गया था।"
लमही रामलीला समिति के मुखिया रहे अरविंद पांडेय भी खुलेआम आरोप लगाते हैं कि लमही में अब हर तरफ लूट-खसोट का बोलबाला है। वह कहते हैं, "मुंशी जी को जो सम्मान मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला। वाराणसी विकास प्राधिकरण ने सिर्फ रामलीला स्थल, तालाब ही नहीं, समूचे स्मारक को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। जिस तालाब में खुलेआम परनाला बहाया जा रहा है, उसमें भला कौन नहाएगा? कितने शर्म की बात है कि 31 जुलाई को मनाए जाने वाले जलसे के मद्देनजर भी प्रेमचंद स्मारक और उनके बैठके की रंगाई-पुताई तक नहीं कराई गई। धरोहर को बचाने की लड़ाई अकेले दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव लड़ रहे हैं। मुंशी जी के कुनबे के लोग उनके जन्मदिन पर भी लमही नहीं आते। वो सिर्फ किताबों की रायल्टी खाते हैं।"
सच है कि बनारस के लमही की पहचान प्रेमचंद से हैं और उनकी कहानियों का मर्म यहां की आब-ओ-हवा में भी घुला है। मगर उनकी स्मृतियों को संजोने और उनकी उसकी सुधि लेने की फुरसत सरकारी मुलाजिमों को कतई नहीं हैं। उपन्यास सम्राट के मकान की बिजली गुल है और पंखे गायब हैं। स्मारक का हाल बद से भी बदतर है। वहां बिजली-पानी का पुख्ता इंतजाम नहीं है। बैठने और किताबों को संजोकर रखने के लिए रैक तक नहीं है। तमाम किताबें जमीन पर फैलाकर रखी गई हैं। बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। मीटर बिजली विभाग वाले ले गए हैं। पंखे, किताबें सहित कई अन्य कीमती चीजें चोरी हो गई हैं।
शोध संस्थान सफेद हाथी
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के नाम पर लमही में एक शोध संस्थान की स्थापना की गई है। यह संस्थान भी तभी खुलता है, जब उनका जन्मदिन मनाना होता है। कथा सम्राट के पैतृक आवास की देखरेख करने वाले समाजसेवी सुरेश चंद दूबे बताते हैं, "मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान की इमारत का लोकार्पण साल 2016 में हुआ था। यहां भी 31 जुलाई को जलसा होता है। इसके बाद पूरे साल के लिए ताला लगा दिया जाता है। प्रेमचंद के जन्मदिन पर अफसर आते हैं और नेता भी। लच्छेदार भाषणबाजी भी होती है। लौटने के बाद साल भर तक कोई लमही की ओर झांकता तक नहीं। कुछ लोगों ने मुंशी प्रेमचंद राष्ट्रीय स्मारक की जमीन का फर्जी ढंग से बैनामा करा लिया हैं। वहां बगैर नक्शा के अवैध तरीके से इमारत भी खड़ी कर ली गई है। साल 2012 के पहले तक प्रेमचंद जयंती पर तीन दिवसीय लमही महोत्सव होता था। अब एक ही दिन में यह रस्म निभा ली जाती है।"
लमही में मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान की स्थापना इस मकसद से की गई थी कि यहां साहित्यिक चर्चा, एकेडमिक कार्यकलाप और शोधगत विषयों पर अध्ययन किया जा सकेगा। यहां की हालत तो कुछ और ही दास्तान बयां कर रही है। लाइब्रेरी में रखी किताबों को उठाते ही एक-एक पन्ना हाथ में आ जाता है। साल 2016 में जब शोध संस्थान का लोकार्पण हुआ था तो हिन्दी प्रेमियों में साहित्यिक विकास की उम्मीद जगी थी। नाम मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान है, मगर आज तक यहां एक भी शोध नहीं हुआ है।
करीब करोड़ रुपये से स्थापित शोध संस्थान की नींव 31 जुलाई, 2016 को रखी गई थी। केंद्रीय मंत्री महेंद्रनाथ पांडेय ने इस भवन उद्घाटन किया था। इसके कुछ ही दिन बाद ही यहां से सबका ध्यान हट गया। इस शोध संस्थान के प्रमुख से लेकर सदस्य तक बीएचयू के ही हिंदी और उर्दू के प्रोफेसर हैं।
लमही में मुंशी प्रेमचंद की स्मारक की पड़ताल करने पहुंचे पत्रकार अंकित सिंह कहते हैं, "चंद साहित्यकारों के हाथों मुंशी प्रेमचंद की विरासत की नाव डूब रही है। बीएचयू ने शोध संस्थान की जो वेबसाइट तैयार की है, उसमें सूचनाएं तक अपडेट नहीं हैं। वेबसाइट में कुछ पुरानी तस्वीरें दिख भर जाती हैं।"
मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान संचालित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साल 2005 में पांच करोड़ रुपये मुहैया कराया था। स्थापना के समय तय किया गया था कि यहां अकादमिक कार्य, शोध, संगोष्ठी, व्याख्या
इस संस्थान की जिम्मेदारी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के बीएचयू कला संकाय के डीन प्रो. विजय बहादुर सिंह के पास हैं। पहले प्रो. नीरज खरे और प्रो. आभा गुप्ता कोआर्डिनेटर हुआ करती थीं। प्रो. विजय बहादुर सिंह न्यूजक्लिक से कहते हैं, " अब लमही की साहित्यक खामोशी टूटेगी। लगातार कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहेंगे। कथा सम्राट की कृतियों को संजोया जाएगा। यहां बड़ी लाइब्रेरी खुलेगी। नई पुस्तकों और नए लेखकों की कृतियों पर चर्चा भी। समय और समाज पर संगोष्ठियां भी आयोजित की जाएंगी।"
स्मृतियों में ज़िंदा हैं कथा सम्राट
वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "काशी सिर्फ धर्म की नहीं, साहित्य और संस्कृति की राजधानी भी रही है। उसे यह पहचान बनारस के साहित्यकारों और उनकी रचनाओं के जरिए मिली है। यह कहना गलत न होगा कि हिन्दी खड़ी बोली ने बनारस में ही आकार लिया। इसका श्रेय बनारस के साहित्यकार बाबू हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद शुक्ला जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की वजह से प्राप्त हुआ। साहित्यिक नजरिये से देखा जाए तो बनारस में मूर्त और अमूर्त दोनों तरह की धरोहर हैं। लेकिन सरकारों ने इन धरोहरों को संरक्षित और संवर्धित करने का कोई उपाय नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण, नागरी प्रचारणी सभा है जिसे हिन्दी की मरकज माना जाता था। इस साहित्यक संस्था की इमारत, पुस्तकालय और दुर्लभ पांडुलिपियां बदहाली का शिकार है। सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां और साहित्यिक रचनाओं को दीमक चाट रहे हैं। यही हाल मुंशी प्रेमचंद की लमही का है।"
"कथा सम्राट ने काशी में कई उपन्यास और कहानी संग्रह लिखे। उसे पूरी दुनिया में मान-सम्मान मिला। उनकी जन्मस्थली को लेकर जैसा काम होना चाहिए था, आज तक नहीं हुआ। थोड़ा बहुत काम मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुआ। उसके बाद से आज तक शासन-प्रशासन की बैठकें तो होती हैं, जिसमें मुंशी प्रेमचंद एजेंडे में होते हैं। बाद में बैठक के निर्णय सिर्फ कागजों में ही सिमट जाते हैं और वो लमही तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। आज लमही को हिन्दी के उपन्यास और कथा साहित्य को हिन्दी के तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने की जरूरत है।"
जाने-माने साहित्यकार रामजी यादव भी प्रेमचंद की उपेक्षा से व्यथित हैं। वह कहते हैं, "मुंशी जी की यादों को चिरस्थायी बनाने की लालसा हिन्दी प्रेमियों को तो है, लेकिन उनके कुनबे को कतई नहीं है। किताबों की रायल्टी उनके बेटे और पोते खा रहे हैं। लमही में प्रेमचंद की प्रतिमा और जर्जर भवन को छोड़कर ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे कहा जा सके कि वो किसी चर्चित साहित्यकार का स्मारक है। मुलायम की सरकार बदली तो नेताओं की नजरें भी बदल गर्ईं। प्रेमचंद के तमाम पट्टीदार आरएसएस के कार्यकर्ता बन गए। ऐसे कार्यकर्ता जिनके खिलाफ प्रेमचंद जीवन भर लड़ते रहे। लमही में अब नंगा नाच चल रहा है। कीमती जमीनें लूटी जा रही हैं, लेकिन जिला प्रशासन को कोई चिंता नहीं है। नवोदित साहित्यकारों और लेखकों को तो मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान में फटकने तक नहीं दिया जाता है। स्मारक के सामने विशाल मंदिर खड़ा किया जा रहा है। लगता है कि कुछ दिनों में मंदिर स्मारक से भव्य हो जाएगा। देर-सबेर आरएसएस के लोग कहने लग जाएंगे कि मुंशी जी इसी मंदिर में भोले बाबा को जल भी चढ़ाया करते थे। मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान के जरिये बीएचयू के कुछ चट्टू-बट्टू अपना हित साध रहे हैं। किसी को कोई हिसाब नहीं दे रहा है। यही हाल बनारस के संस्कृति विभाग का भी है। प्रेमचंद के नाम पर आने वाला धन अफसर ही डकार जाते हैं।
रामजी यह भी कहते हैं, " प्रेमचंद शोध संस्थान ने एक भी ठोस काम नहीं किया है। प्रेमचंद के घर में दीमक लग रहा है। लगता है कि वो जल्द ही खंडहर बन जाएगा। 31 जुलाई को जन्मदिन के जलसे में भी ज्यादातर छुटभैये लोग ही डटे रहते हैं। वही लोग मिल-बांटकर पैसे हजम कर जाते हैं। प्रेमचंद की समूची विरासत को ऐसे हाथों में दे दिया गया है कि जिससे न लमही की परंपरा बचने वाली है, न ही विरासत।"
प्रेमचंद: हमारी धरोहर, हमारी विरासत
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प्रेमचंद के समय की पिचकारी
(बनारस स्थित लेखक विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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