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योगी कार्यकाल में चरमराती रही स्वास्थ्य व्यवस्था, नहीं हुआ कोई सुधार

"सरकार का दृष्टिकोण ही मंदिर-मस्जिद और हिंदू धार्मिक उत्सवों पर बजट खर्च करना है और राजनीति में इसी के आधार पर सत्ता में आने का मौका तलाशना रहा है। इनके एजेंडे में आम आदमी व बुनियादी सुविधा और चिकित्सा व्यवस्था का कोई महत्व नहीं है।" 
UP Health Sector
Image courtesy : Firstpost

बड़े-बड़े वादों के साथ वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सत्ता में आई। लेकिन बीजेपी सरकार के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला। अभी भी स्थिति बद से बदतर है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर जिला अस्पतालों तक में सुविधा का अभाव है जिसके चलते मरीजों को भटकना पड़ता है और निजी अस्पतालों की शरण में जाना पड़ता है। जिनके पास पैसा है वो तो अपना इलाज अपनी पसंद के डॉक्टरों से करवाते हैं लेकिन उन गरीबों का क्या जिनके पास खाने तक के पैसे नहीं होते। आए दिन राज्य के सरकारी अस्पतालों में सुविधा की कमी, उपकरणों की कमी,  डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की अनुपस्थिति की खबरें पढ़ने सुनने को मिल ही जाती हैं। 

हाल में सामने आई रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में मरीजों को सरकारी अस्पतालों में एक्स-रे की सुविधा नहीं मिलती है। अधिकांश सरकारी अस्पतालों की यही स्थिति है। इन अस्पतालों में कहीं मशीन है तो कहीं रेडियोलॉजिस्ट और टेक्निशियन की कमी है। वहीं दो सप्ताह पहले की इटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक गोरखपुर सीमा से सटे कुशीनगर जिले के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र देवतहा (सुकरौली) और हाटा पर उपकरणों का अभाव सामने आया है। हाटा में पेट के मरीजों के लिए अल्ट्रासाउंड मशीन की कमी जबकि सुकरौली (देवतहा) में एक्स-रे मशीन ही नहीं हैं। विभाग को पैसे भी दे दिए, लेकिन विभाग उपकरण खरीद की प्रक्रिया का हवाला देकर अपनी जिम्मेदारी से खुद को बचा लेता है। इसके कारण मरीजों से प्राइवेट में इन जांचों के नाम पर मनमाने पैसे वसूले जाते हैं। 

मेरठ के एक सीएचसी में तो डॉक्टर की बहाली के बावजूद डॉक्टर अक्सर वहां नहीं होते हैं जिससे मरीजों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे मामले प्रदेश के ज्यादातर पीएचसी और सीएचसी में देखने को मिलेगा जहां डॉक्टर की अनुपस्थिति आम बात है। 

बीते दिसंबर में नीति आयोग की रिपोर्ट में दिखाया गया कि उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य मानकों में राज्यों में सबसे निचले स्थान पर था। 'द हेल्दी स्टेट्स, प्रोग्रेसिव इंडिया' नाम के शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट को नीति आयोग, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय तथा वर्ल्ड बैंक द्वारा संकलित किया गया था जिसमें 2019-2020 के बीच 19 बड़े राज्यों, 8 छोटे राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों का आंकड़ा इकट्ठा किया गया था। 19 बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश 19वें स्थान पर था। 

प्रदेश में चिकित्सा व्यवस्था की स्थिति को लेकर उत्तर प्रदेश सीपीआइएम सचिव हीरालाल यादव ने बातचीत में कहा, "चिकित्सा व्यवस्था के मामले में कोविड काल में उत्तर प्रदेश की तो पूरी तरह पोल खुल गई है। जितने भी पीएचसी, सीएचसी और जिला अस्पताल हैं वहां एक तो सुविधाएं नहीं हैं। यहां तक कि कई जिला अस्पताल हैं वहां आईसीयू की व्यवस्था तक नहीं है और गंभीर बीमारियों के लिए इलाज की व्यवस्था नहीं है। तमाम ऐसे गांव या ब्लॉक स्तर के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हैं जहां कई जगह तो कोई व्यवस्था ही नहीं है और कहीं कहीं कोई डॉक्टर, नर्स तथा कर्मचारी की नियुक्ति हुई है तो वहां भी कोई सुविधा ही नहीं है।"

उन्होंने कहा, "यहां चिकित्सा केंद्र काफी दूर-दूर पर स्थित है। यदि अचानक किसी की तबीयत बिगड़ गई तो गांव में इतना साधन नहीं है कि उस मरीज को फौरन किसी चिकित्सा केंद्र पर ले जाया जाए। गांव से लेकर शहर तक सड़कों की स्थिति ठीक नहीं है जिससे मरीजों को समय पर अस्पताल पहुंचाने में परिजनों को समस्या का सामना करना पड़ता है। यहां एक्सप्रेस-वे और हाई-वे तो जरूर बन गए हैं लेकिन गांव की सड़कों की स्थिति ठीक नहीं है। गांव से अस्पतालों को जोड़ने वाले में मार्ग पर सरकार को कोई ध्यान ही नहीं है।" 

हीरालाल कहते हैं, "उत्तर प्रदेश की सरकार ने सरकारी अस्पतालों के निजीकरण का जो फैसला किया था उसको लेकर प्रयोग के लिए उन्होंने कई अस्पतालों को निजी हाथों में दिया भी था। इनकी निजीकरण की पॉलिसी के चलते सरकारी अस्पताल दम तोड़ रहे हैं। सरकार का चिकित्सा व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं है। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा का दृष्टिकोण मंदिर बनाने और हिंदू समुदाय के उत्सव में पैसा खर्च करने का रहा है। इनका पूरा जोर इसी दिशा में लगा है। बीजेपी सरकार का दृष्टिकोण ही मंदिर-मस्जिद और हिंदू धार्मिक उत्सवों पर बजट खर्च करना है और राजनीति में इसी के आधार पर सत्ता में आने का मौका तलाशना रहा है। इनके एजेंडे में आम आदमी और बुनियादी सुविधा और चिकित्सा व्यवस्था का कोई महत्व नहीं है। भाजपा सरकार ने बड़ी-बड़ी बातें कीं लेकिन उन्होंने आम आदमी के लिए कुछ भी नहीं किया। कोविड काल में पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह गंगा में लाशें बह रहीं थीं। इस दौरान तो गांव में कोई जांच भी ढंग से हुई नहीं।" 

उन्होंने कहा, "सरकारी अस्पतालों को लेकर जनता में आतंक जैसा माहौल था। लोगों में ऐसा डर था कि वे अस्पताल जाना नहीं चाहते थे। उन्हें लगता था कि वे यदि वहां जाएंगे तो लौट कर नहीं आएंगे। इसलिए तमाम लोगों ने इस डर के मारे खुद की परेशानी को छिपाया है। अगर लोगों को सर्दी जुकाम हुआ भी था तो उन्होंने कहा दिया था कि उन्हें कुछ नहीं हुआ। वे अस्पताल गए ही नहीं और झोला छाप डॉक्टरों से उन लोगों ने अपना इलाज कराया तो इसमें कुछ लोग बच गए जबकि कुछ लोगों की मौत हो गई। सरकार के आंकड़े के हिसाब कोविड से 28 हजार के करीब लोग मरे लेकिन ये आंकड़ा लाखों में है। ऐसा कोई गांव नहीं था जहां दस-बीस-पचास लोग न मरे हों। प्रदेश में करीब 78 हजार पंचायतें हैं तो इससे कल्पना किया जा सकता है कि कितने लोगों की मौत हुई होगी। स्वास्थ्य व्यवस्था सरकार की नजर में सबसे अधिक उपेक्षित रही है। इसका मुख्य कारण है कि इनका दृष्टिकोण ही सांप्रदायिक है। इनका जोर अस्पतालों का निजीकरण करना है। इन्होंने इसका प्रयोग शुरू ही किया था कि कोविड आ गया जिसके चलते रुका हुआ है। लेकिन इनका लक्ष्य है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक विद्यालयों को निजी हाथों में देना। 

डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की बहाली पर पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, "केरल में जिस तरह से डॉक्टर्स, नर्स और अन्य मेडिकल स्टाफ की नई भर्तियां की गईं, वैसे यहां पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है। यहां तो कई जिला अस्पताल हैं जहां डॉक्टरों की कमी है। उनकी नियुक्ति नहीं हुई है। एक सीएमओ को कई-कई अस्पतालों को जाकर देखना पड़ता है। मुख्य रुप से कहें तो सरकार के एजेंडा में जनता का स्वास्थ्य अहम विषय है नहीं। दूर-दराज के गांव से मरीज जिला अस्पताल आते हैं तो उनसे कोई न तो ठीक से बात करता है और न ही उनका इलाज ही ढंग से हो पाता है और न उनका कोई देखभाल होता है। डॉक्टर उनको ज्यादातर प्राइवेट दुकानों से दवाओं का रिकमेंड कर देते है। जांच वगैरह के लिए भी प्राइवेट सेंटर पर मरीजों को भेजा जाता है। यहां जबर्दस्त तरीके की कमीशनखोरी होती है। पहली बात तो सरकारी अस्पतालों में एक्स-रे और जांच वगैरह की मशीनें है नहीं, अगर हैं भी तो वहां के लोग मशीन को खराब करके रखे हुए रहते हैं और लोगों को निजी सेंटर में भेजते हैं। मरीजों को सीधे तौर पर बोल देते हैं कि मशीन काम नहीं कर रहा है। यहां बड़े स्तर पर करप्शन है।"

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