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ज़की अनवर: एक लेखक जो आख़िरी वक़्त तक डटा रहा कट्टरपंथ के ख़िलाफ़..!

वो आख़िरी वक़्त तक सांप्रदायिक सद्भाव के पक्ष में और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ मजबूती से खड़े रहे, डटे रहे। आज ही के दिन साल 1979 में उनकी हत्या कर दी गई थी। इप्टा, जमशेदपुर की ओर से उनकी याद में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया।
Zaki Anwar
फ़ोटो साभार : Rekhta

ज़की अनवर, एक लेखक जिन्होंने अपनी रचनाओं से इंसानियत और प्रेम का पैग़ाम दिया, जो आख़िरी वक़्त तक सांप्रदायिक सद्भाव के पक्ष में और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ मजबूती से खड़े रहे, डटे रहे, आज उन्हें याद करने का दिन है क्योंकि आज ही के दिन साल 1979 में उनकी हत्या कर दी गई थी, जिसकी ज़िम्मेदार वो कट्टरपंथी सोच है, जिस सोच के ख़िलाफ़ वो हमेशा रहे। इप्टा, जमशेदपुर की ओर से उनकी याद में आज एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। आज उनकी रचनाओं, उनके जीवन को याद करते हुए इंसानियत, सद्भाव और प्रेम को समझने की ज़रूरत है।

सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द को लिखना और जीना दो अलग-अलग पहलू हैं। साहित्य पूरी दुनिया में रचा जा रहा है जिसके सहारे हम कई बार इंसानियत को महसूस करते हैं और उसे जीने का अभ्यास भी करते हैं। अभ्यास इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आम जीवन मूल्यों में अंतर्निहित द्वंद्व होता है। बहरहाल इंसानियत वह धागा है जिस पर हर रंग के गाढ़ेपन और हल्केपन के शेड्स दिए जा सकते हैं, सिवाय सांप्रदायिकता के।

ज़की अनवर, इंसानियत के धागों से बुनी ख़ूबसूरत चादर को जीवन भर गुनते-बुनते रहे और अपने अफसानों में दर्ज़ करते रहे। आज ही के दिन साल 1979 में उनकी हत्या हुई जिसके कुसूरसवार हैं धर्म के श्रेष्ठताबोध में जीने वाली कट्टरपंथी जमात। एक समाज के तौर यह हम सभी के लिए एक शर्मिंदिगी की बात बनी रहेगी कि इंसानियत और प्रेम के जज़्बे को गुलज़ार करने वाले शख़्स को हमारी तुच्छ पहचान और दंभ ने हमसे छीन लिया। एक लेखक जो मध्य वर्ग से आता हो, जो अपनी हत्या के एक दिन पहले जबकि सांप्रदायिक तनाव मौजूद था तब भी एक अधूरी कहानी हमारे लिए छोड़ गया। आख़िर उन्हें क्या ज़रूरत आन पड़ी कि कट्टरपंथियों के हौसले पस्त करने के लिए उन्हें अनशन और धरने की सूझी? वो कौन से हालात थे कि धरने में उनके पीछे कोई बहुत बड़ा हुजूम साथ नही था, सिर्फ़ गिने-चुने लोग ही थे तब भी वे अंजाम से बेख़बर सांप्रदायिक सद्भाव के लिए डटे रहे, निश्चित ही वो उनके इंसान होने का दृढ़ निश्चय रहा होगा जिसके बूते वो हम सबकी स्मृति का हिस्सा हैं।

ज़की अनवर को याद करते हुए कार्यक्रम में मौजूद शशि ने समूचे हालात और छोटी-छोटी बातों को बयां किया, "साल 1975 से 1979 तक के दौरान कई बातें घटित हो रही थीं, कई वाकये घट रहे थे जिसकी परिणति रही ज़की अनवर की हत्या। समाज के प्रति अपने विश्वास को अंतिम सांस तक बचाए रखने की उनकी स्पष्ट वजह यही रही होगी कि आने वाली नस्लें विश्वासघात न करें।"

ज़की अनवर ने अपने जीवन में सैकड़ों कहानियां लिखीं जिसमें से 300 कहानियां ट्रेस हुई हैं। यहां जमशेदपुर के अफसानानिगार अख़्तर आज़ाद का ज़िक्र भी ज़रूरी है क्योंकि ज़की अनवर पर उनकी एक किताब प्रकाशित हुई है।

उर्दू के शायर और जमशेदपुर इप्टा के अध्यक्ष अहमद बद्र ने ज़की अनवर की तमाम कहानियों में से एक कहानी चुनकर सुनाई। थियेटर करने वाले युवा साथी ज़्यादा संख्या में मौजूद थे इसलिए उन्होंने संवाद शैली वाली एक कहानी चुनीं। जब कहानी का ज़िक्र आया है तो जावेद इकबाल को भी याद किया जाना चाहिए जिन्होंने ज़की अनवर की कहानियों का हिंदी अनुवाद किया। अभी तक मात्र 15 कहानियों का अनुवाद हुआ है और इस काम को आगे ले जाने की ज़रूरत है।

आज के इस मौके पर ज़की अनवर को याद करने के लिए उनके छोटे बेटे अनवर नाज़िश, झारखंड ह्यूमैनिटी ट्रस्ट के ख़ालिद इक़बाल, काशी साहू कॉलेज के प्राचार्य बीएन प्रसाद, प्रभात ख़बर जमशेदपुर के संपादक संजय मिश्रा, पथ के मो. निज़ाम, छवि और युवा कलाकार, पीपुल फॉर चेंज के सौविक साहा, नोरा, सुमित, इंद्रजीत, ट्रांस वूमेन एमी, लिटिल इप्टा के लोग, सफाई कर्मचारी के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले रमेश मुखी, अंब्रेला क्रियेशंस के युवा शायर संजय सोलोमन, पीपुल मूवमेंट के सत्यम, अंकिता, अंकुर, आयुष, स्त्री मुक्ति संगठन और इप्टा की अंजना और मनोरमा कार्यक्रम में मौजूद रहे।

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