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ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव: "गुंडागर्दी मुक्त राज" का दावा करने वाली भाजपा ने सेल्फ-गोल किया

जाहिर है, इन नतीजों से आगामी विधानसभा चुनाव की संभावनाओं का कोई लेना देना नहीं है। बल्कि जिस तरह धनबल, बाहुबल के साथ और सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग हुआ है, उसके खिलाफ लोगों में रोष है।
ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव
फोटो साभार : हिंदुस्तान

उत्तर प्रदेश के जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में भाजपा ने 75 में से 67 जिलों में जीत हासिल की है। वैसे तो इन चुनावों की हकीकत सबको मालूम है, पर इसे विधानसभा चुनाव का सेमी-फाइनल बताते हुए, गोदी मीडिया द्वारा जश्न का माहौल बनाया जा रहा है।

सरे-आम लोकतंत्र की हत्या कर हासिल की गई इस जीत को " शानदार " बताते हुए तथा जीत का श्रेय मुख्यमंत्री योगी को देते हुए मोदी जी ने ट्वीट किया " यह विकास, जनसेवा और कानून के राज के लिए जनता जनार्दन का आशीर्वाद है।" सचमुच "कानून के राज" का नायाब नमूना था पंचायत चुनाव!

पंचायत सदस्यों के जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव के लोकप्रिय जनादेश को, जिसमें भाजपा बुरी तरह पराजित हुई थी, रौंदकर हासिल इस जीत से गदगद योगी जी ने उम्मीद जाहिर की, " यह चुनाव पंचायती व्यवस्था को मजबूत करेगा " और उन्होंने इसके आधार पर विधानसभा में 300 से ऊपर सीट जीतने का एलान कर दिया।

बहरहाल, लोग जानते हैं कि इसी तरह 2015 के पिछले चुनाव में सपा ने 63 ज़िलों में जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर जीत हासिल की थी, जब प्रदेश में उसकी सरकार थी और उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में वह बुरी तरह पराजित हुई थी ( 406 में 47 सीट )। कुछ ऐसा ही 2010 में हुआ था।

जाहिर है, इन नतीजों से आगामी विधान-सभा चुनाव की संभावनाओं का कोई लेना देना नहीं है। बल्कि जिस तरह धनबल, बाहुबल और सरकारी मशीनरी का नँगा नाच हुआ है, उसके खिलाफ लोगों में रोष है।

योगी जी प्रदेश में "भयमुक्त, सुरक्षा" का माहौल बनाने को पिछली सरकार की तुलना में अपना सबसे बड़ा USP बताते हैं, इन चुनावों में ताकत और भ्रष्टाचार के बल पर लोकतंत्र का अपहरण करके उन्होंने सेल्फ-गोल कर दिया। राज्य-प्रायोजित भयादोहन और वोटों की दिन-दहाड़े डकैती की तमाम वायरल तस्वीरें लोगों के दिलो-दिमाग में छायी रहेंगी, योगी और भाजपा आखिर किस मुँह से 6 महीने बाद चुनाव में कह पाएंगे कि पिछली सरकार में गुंडागर्दी थी और हमारी सरकार में भय-भ्रष्टाचार मुक्त रामराज !

अब उत्तर प्रदेश की जनता को यह अच्छी तरह समझ में आ गया है कि मलाईदार पदों की अपनों के बीच बंदरबांट तथा विधानसभा चुनाव के पहले अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए ही सरकार ने कोरोना की दूसरी लहर के बीचोबीच प्रदेश की जनता को पंचायत चुनाव के मौत के मुंह में झोंका था जिसने लाखों लोगों को लील लिया।

इसके साथ ही अब उप्र विधानसभा चुनाव की तैयारी में संघ-भाजपा ने सारे घोड़े खोल दिये हैं। संघ के दो शीर्ष नेता दत्तात्रेय होसबोले लखनऊ और भैया जी जोशी अयोध्या में मोर्चा संभाल चुके हैं। स्वयं मोदी जी पूरे प्रदेश, विशेषकर वाराणसी के अपने संसदीय क्षेत्र, लखनऊ में योगी के कामकाज और अयोध्या मंदिर निर्माण में ' रुचि ' ले रहे हैं। महामहिम राष्ट्रपति का उत्तर प्रदेश दौरा हुआ, उन्होंने राजधानी लखनऊ में अम्बेडकर मेमोरियल का शिलान्यास किया, जाहिर है चुनाव जब 6 महीने रह गया है, इसके भी राजनीतिक निहितार्थ हैं।

राजधानी दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने पार्टी के प्रदेश-मंत्री अमित वाल्मीकि के स्वागत के बहाने किसानों को उकसाने का प्रयास किया जिसके बाद किसानों से उनकी झड़प हुई। किसान नेता राकेश टिकैत ने आरोप लगाया कि सरकार जातिगत टकराव पैदा करना चाहती है। उप्र ही नहीं, पड़ोसी राज्यों बिहार और हरियाणा में भी उकसावामूलक, साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने वाली घटनाएं लगातार घट रही हैं।

जाहिर है इस सबके तार उत्तर प्रदेश के नजदीक आते विधानसभा चुनाव से जुड़े हुए हैं।

इसी दौरान कश्मीर पर प्रधानमंत्री ने एक नई पहल का राग छेड़ा है। जम्मू में ड्रोन देखे जा रहे हैं और कश्मीर घाटी में आतंकी घटनाएं बढ़ रही हैं। जाहिरा तौर पर सीमा पर तथा मुस्लिम बहुल सीमावर्ती क्षेत्र जम्मू-कश्मीर के अंदर होने वाले developments से उप्र चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश होगी।

आज यक्ष प्रश्न यह है कि संघ-भाजपा उत्तरप्रदेश में अपनी सत्ता बरकरार रखने की ये जो तमाम desperate कोशिशें कर रहे हैं, क्या वे कामयाब होंगी ?

दरअसल, उत्तर प्रदेश में भाजपा के वोटिंग पैटर्न पर गौर किया जाय तो भाजपा के उभार की पहली लहर 90 के दशक में आई थी, जब कांग्रेस से बड़े पैमाने पर जनता के विभिन्न तबकों का अलगाव बढ़ रहा था, उस समय मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार होकर वह 1991 में सत्ता में आई थी 31% वोट के साथ, 93 में उसे 33% और 96 में 32% वोट मिले थे। पर यह लहर 5 साल से अधिक sustain नहीं कर सकी। 2002 के चुनाव में गिरकर इसका मत प्रतिशत 20%, 2007 में 17%, 20012 में 15% पंहुँच गया। लेकिन 2012 के मात्र 15% वोट से abnormally बढ़कर 2017 में उसका वोट 39.7% पंहुँच गया, 25% वोटों की असामान्य वृद्धि। यह भाजपा के अपने इतिहास की अधिकतम मत तो है ही, आपातकाल के बाद प्रदेश में किसी दल को मिला अधिकतम वोट है। यह वोट abnormal aberrations हैं, जो गुजरात मॉडल, नोटबन्दी, सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा-बालाकोट जैसी घटनाओं-परिघटनाओं के इर्द-गिर्द निर्मित 5 साल चली मोदी लहर का परिणाम थे। 2014-19 के इस असामान्य मोदी euphoria ( या mania ! ) के दौर को छोड़ दिया जाय तो, यह वोट उत्तर प्रदेश में भाजपा की स्वाभाविक ताकत की अभिव्यक्ति नहीं हैं और वह इन्हें sustain नहीं कर सकती।

2019 के बाद हुए 2 चुनावों के परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं-11 विधान सभा सीटों के उपचुनाव तथा पंचायत चुनाव। उपचुनाव की सीटों पर भाजपा का वोट प्रतिशत 46 % से गिरकर 35.6% रह गया। जिला पंचायत चुनावों में भाजपा महज 20% सीटें जीत पाई और दूसरे नम्बर पर खिसक गई।

इस असामान्य लहर के दौरान तमाम तबके इसके fold में आये थे और एक बड़ा सोशल coalition बना था, परन्तु उसके अंतर्विरोध 5 साल के योगी और 7 साल के मोदी शासन के दौरान निरन्तर तीखे होते गए हैं और उसमें लगातार बिखराव हो रहा है।

दरअसल, सतही ढंग से जातियों-समुदायों के जोड़ गणित की कथित सोशल इंजीनियरिंग के कुख्यात फॉर्मूले के आधार पर जो लोग राजनीति की व्याख्या करते हैं वे अक्सर यह भूल जाते हैं कि ये समीकरण परिस्थिति विशेष के वृहत्तर आर्थिक-सामाजिक तथा राजनीतिक सन्दर्भ में ही आकार ग्रहण करते हैं, उससे अलग थलग ये यांत्रिक ढंग से न बनाये जा सकते हैं और न एक बार बन जाने के बाद हमेशा के लिए जारी रखे जा सकते हैं। इस तरह के गठजोड़ विभिन्न जाति समुदायों के बीच से उभरे हुए power-groups द्वारा मूलतः अपने हितों के अनुरूप बनाये जाते हैं, उनकी वह दिशा जब उस समुदाय के आम लोगों के भोगे हुए यथार्थ, उनके वास्तविक भौतिक जीवन, उनकी वास्तविक/कल्पित आशाओं-आकांक्षाओं से मेल खाती है तभी वह गठजोड़ जन-स्वरूप ग्रहण करता है और सफल होता है, जैसे ही यह बेमेल हो जाता है वह सोशल इंजीनियरिंग फेल हो जाती है।

यही बात हिंदुत्व की लहर के लिए भी सच है। यह स्पष्ट है कि देश-काल की किन्हीं खास परिस्थितियों में ही यह प्रभावी होती है, संघ-भाजपा तो इसे हर चुनाव में ही उभारने और इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं पर वे सफल कभी-कभी ही होते हैं।

2014 के आसपास का वह एक विशिष्ट historical conjunctuture था जिसमें कारपोरेट पूँजी और मीडिया द्वारा ब्राण्ड मोदी गढ़ा गया। याद कीजिये 2011 से 2014 का वह दौर जब मनमोहन सिंह के कार्यकाल के आखिरी सालों में लुढ़कती जॉबलेस ग्रोथ के बीच "विकास और रोजगार के पर्याय" गुजरात मॉडल का जादू सबके सर चढ़ कर बोल रहा था। किसानों के लिए मोदी जी स्वामीनाथन आयोग के आधार पर MSP की कानूनी गारण्टी की मांग कर रहे थे और 2 करोड़ सालाना रोजगार का वायदा कर रहे थे, भारत को चीन की तरह मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने का सब्जबाग दिखा रहे थे, उधर काला धन विदेशों से लेकर सबके खाते में 15 लाख जमा करने का वायदा कर रहे थे जबकि मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार-विरोधी अन्ना आंदोलन के भंवर में फंसी हुई थी। " हिन्दू हृदय सम्राट " तो वे 2002 से थे ही।

यह वह ऐतिहासिक सन्दर्भ था जब युवा, किसान, बेरोजगार, श्रमिक, भ्रष्टाचार से हलकान आम आदमी, अर्थव्यवस्था और कारोबार में तेजी की बाट जोहते व्यवसायी, मध्यवर्ग -सब मोदी लहर की " चपेट " में आते गए। यही वह सन्दर्भ था जिसमें उन सामाजिक तबकों को छोड़कर जो राजनीतिक कारणों से भाजपा-मोदी के खिलाफ थे, मसलन उत्तर प्रदेश में मुसलमान, यादव और जाटव, अन्य सब बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ चले गए। बेशक सपा तथा बसपा के सामाजिक न्याय के अवसरवादी मॉडल से विक्षोभ तथा आर्थिक मोर्चे पर उनकी गरीब विरोधी नव-उदारवादी नीतियों से आयी बदहाली ने उन्हें भाजपा की ओर ठेलने में भूमिका निभाई।

मोदी जी के राज्यारोहण के बाद 5 साल तक -काले धन से लेकर पाकिस्तान तक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक जैसे चमकदार कारनामों और उज्ज्वला जैसे कतिपय populist कार्यक्रमों की मदद से यह मोदी लहर sustain की।

पर आज सन्दर्भ बिल्कुल बदला हुआ है। आज ब्राण्ड मोदी खत्म हो चुका है। महामारी के दौरान हुई अनगिनत मौतों का दाग मोदी-योगी के दामन पर है। अपने को privileged और well-connected समझने वाला, मोदी जी का सबसे उत्साही समर्थक मध्यवर्ग इसके receiving end पर रहा। मोदी जी के राज में अपनी इस असहाय स्थिति की उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी, जाहिर है उसका भयानक मोहभंग हुआ है।

अर्थव्यवस्था रसातल में है, विकासदर एक साल से जीरो के नीचे चल रही है। बेरोजगारी चरम पर है। ऊपर से मंहगाई भी आसमान छू रही है। पहले नोटबन्दी, GST, अब अनियोजित लॉकडाउन ने पूरी अर्थव्यवस्था, विशेषकर असंगठित क्षेत्र को जिस तरह बर्बाद किया है, उसने 90% श्रमिक आबादी को भयानक असुरक्षा, चरम आर्थिक संकट,यहां तक कि एक हिस्से को भूखमरी की स्थिति मे धकेल दिया है। इनमें सबसे बड़ी आबादी तो समाज के कमजोर तबकों दलितों-आदिवासियों, अतिपिछड़ों की ही है, जिन्हें सत्ता में हिस्सेदारी का जो सब्जबाग दिखाया गया था, वह भी पूरी तरह धूल-धूसरित हो चुका है।

ऐसी स्थिति में 2014, 17 या 19 की तरह भाजपा के पक्ष में कोरोना की आग में झुलसे मध्यवर्ग, आर्थिक रूप से तबाह निम्नवर्ग तथा 5 साल योगी राज में सामाजिक रूप से वंचित-उत्पीड़ित रहे हाशिये के तबकों का rainbow coalition पुनः बन पाना अब असम्भव है। आज जब सारे ही लोग मोदी-योगी राज की तबाही के भुक्तभोगी हैं, सबने कोरोना के कहर के दौरान, जब सरकार गायब हो गयी थी, एक दूसरे का हाथ थामा, सबके गम और लड़ाई साझा है, किसान-आंदोलन ने पूरे देश और प्रदेश में तमाम सामुदायिक विभाजनों के पार विराट किसान एकता कायम की है तथा secular democratic एजेंडा का बोलबाला स्थापित किया है, पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से चली आ रही खाई को पाट कर साम्प्रदायिक सौहार्द का माहौल कायम किया है, तब लाख कोशिश के बाद भी किसी के लिए बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण का माहौल बना देना आसान नहीं होगा।

5 साल तक चली मोदी लहर हमेशा के लिए खत्म हो चुकी है, इसका यह उतार irreversible है और कोई भी कीमियागिरी अब इसका पुनर्जीवन नहीं कर सकती।

आने वाले दिनों में किसान आंदोलन, राफेल के नए खुलासे, कोविड प्रबंधन, बेरोजगारी-मंहगाई और अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के भंवर से निकल पाना भाजपा के लिए और कठिन होता जाएगा और 2022 में उत्तरप्रदेश में इसकी नैया डूबना तय है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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