आदिवासियों की परंपरागत चिकित्सा पद्धति को क्यों नहीं मिल पा रही पहचान?

झारखंड के आदिवासियों ने जंगलों में फलने फूलने वाले पेड़-पौधे की पत्तियां, तने, जड़, छाल और फल-फूल से मलेरिया और कालाजार जैसी बीमारी के उपचार के लिए औषधि की खोज की। करीबन दस साल पहले इन दोनों बीमारियों के लिए खोजी गई औषधि को सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपने शोध में सही माना और इसे मान्यता दी। लेकिन आदिवासियों की जिस चिकित्सा पद्धति के जरिये कलाजार और मलेरिया औषधि की खोज की गई उसे वर्षों बाद भी पहचान नहीं मिल पाई है।
झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्यप्रदेश, बंगाल या यूं कहें कि ट्राइबल इंडिया में इस तरह की दवाइयों को ट्राइबल मेडिसिन कहा जाता है, झारखंड में बीते कुछ सालों में विलुप्त होती सैकड़ों वर्ष पुरानी इस पद्धति का काफी प्रचार प्रसार हुआ और अस्सी के दशक के बाद से लोगों के बीच इसे ‘होड़ोपैथी’ के नाम से जाना जाने लगा।
इस चिकित्सा पद्धति को ‘होड़ोपैथी’ का नाम देने वाले डॉ. पीपी हेम्बरोम बताते हैं, “आदिवासियों की चिकित्सा पद्धति (होड़ोपैथी) को आज विदेशों में अलग माना जाता है लेकिन हमारे देश में नहीं। कालाजार और मलेरिया के लिए बनाई गई हमारी दवाओं को सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट और इंडियन स्कूल ऑफ ट्रोपिकल मेडिसिन कोलकाता ने प्रामाणित कर दिया, फिर भी हमें देश पहचान नहीं मिल पाई है।”
वे कहते हैं कि अब सरकार से गुहार लगाने से बेहतर है खुद ही इसके लिए कुछ किया जाए।
85 साल के डॉ. पीपी हेम्बरोम अपने पूर्वजों के समय से होड़ोपैथी यानी आदिवासी चिकित्सा पद्धति की प्रैक्टिक्स करते आ रहे हैं। इन्होंने होड़ोपैथी पर छह भाग में किताब भी लिखी जिसका नाम ‘आदिवासी औषध’ है। 2004 में डॉ हेम्बरोम को होड़ोपैथी के क्षेत्र में किए गए काम के लिए अमेरिकन वैज्ञानिक ‘डॉ जान विलियम हर्सबर्गन’ पुरस्कार से पुरस्कृत भी किया गया।
डॉ. पीपी हेम्बरोम के द्वारा होड़ोपैथी पर छह भाग में लिखी गई किताब।
होड़ोपैथी एक ऐसी आदिवासी चिकित्सा पद्धति है जो ट्राइबल भारत के मुंडा समाज की देशज उपचार विधि बताई जाती है। होड़ोपैथी यानी आदिम जनजातियों की पद्धति। ‘होड़ो’ मुंडारी भाषा से लिया गया शब्द है जिसका अर्थ ‘मानव’ होता है। पैथी ग्रीक शब्द से आया है जिसे हिंदी में अनुभूति और उर्दू में ‘एहसास’(फिलिंग) कहा जाता है। चिकित्सा की यह पद्धति पूर्ण से रूप से परंपरागत और आदिवासी समुदाय से संबंधित बताई जाती है।
झारखंड के जंगलों के इर्दगिर्द रहने वाले आदिवासी समुदाय और ग्रामीण इलाकों में इस पद्धति से आज भी उपचार किया जाता है। इसके चिकित्सक और जानकार शुगर, ब्लड प्रेशर, कालाजार, मलेरिया, कुपोषण, एनीमिया आदि जैसे रोगों को जड़ से ठीक करने का दावा करते हैं। वहीं एलोपैथी डॉक्टर इसे मेडिकल टर्म में एथ्नोमेडिसिन कहते हैं।
नहीं मिल पा रही है पहचान
झारखंड में 2010 में कुछ चिकित्सकों के द्वारा ‘होड़ोपैथी एथ्नोमेडिसिन डॉक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ (हेदान) का गठन किया गया, जिसका अध्यक्ष डॉ पीपी हेम्बरोम को बनाया गया।
होड़ोपैथी के जानकार और इसके वैध, चिकित्सकों का मानना है कि न ही सरकारी स्तर पर ट्राइबल मेडिसिन को लेकर कोई प्रचार-प्रसार होता है और न इसे और पैथी की तरह अबतक कोई पहचान मिल सकी है।
हेदान की संस्थापक सदस्य व संस्था की महासचिव डॉ वास्वी कीड़ो बताती हैं, “1997-98 में हमलोगों ने झारखंड जड़ी-बूटी चिकित्सक संघ की शुरूआत की। विभिन्न जिलों के जंगलों में घूम घूमकर जड़ी, बूटी से औषधि तैयार करने वाले लोगों को कनेक्ट किया। इनकी संख्या बढ़ती गई और एक बड़ा फोरम बन गया। बाद में ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश से कॉल आने लगा और लोग वहां से भी जुड़ने लगे।
आंध्र प्रदेश के सिकंदराबाद स्थित ट्रेनिंग से हमारे लोगों को ट्रेनिंग के लिए आमंत्रण आने लगा। इसकी मांग और बढ़ने लगी। तब हमलोगों ने झारखंड में जड़ी बूटी संघ के विस्तार के बारे निर्णय लिया और फिर 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर होड़ोपैथी एथनोमेडिसीन डॉक्टर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (हेदान) नामक संस्था का गठन किया।”
हेदान की माने तो झारखंड में करीब 600 से अधिक होड़ोपैथी के वैध, चिकित्सक काम कर रहे हैं। जबकि पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में ऐसे लोगों की संख्या 150 सौ ही है।
हेदान के द्वारा राज्यपाल को लिखा गया पत्र।
हेदान पिछले कई सालों से होड़ोपैथी ट्राइबल मेडिसिन को आयुष में शामिल करने की मांग करता आ रहा है। इसे लेकर हेदान का प्रतिनिधिमंडल झारखंड राज्यपाल द्रोपदी मुर्मू, केंद्रीय आदिवासी जनजतीय मंत्रालय, केंद्रीय आयुष मंत्री श्रीपद नाइक तक से मिल चुका है। वास्वी कीड़ो बताती हैं कि हेदान इसे लेकर पीएमओ तक पत्र लिख चुका है, लेकिन इस दिशा में सरकार की तरफ अबतक कोई खास पहल नहीं की गई है।
मोदी सरकार ने आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध, और होम्योपैथी जैसी चिकित्सा पद्धति की शिक्षा और अनुसंधान को बढ़ावा देने के उदेश्य से 2014 में आयुष मंत्रालय का गठन किया था। हेदान की मांग है कि आयुष मंत्रालय में होड़ोपैथी को भी शामिल किया जाए।
हेदान की ओर से पीएमओ को लिखे गए पत्र के बाद पीएमओ के द्वारा हेदान को पत्र को आयुष मंत्रालय को फॉरवर्ड किया गया पत्र
हेदान का गठन करने वालों में डॉक्टर एएस हेमरम, डॉ पीपी ऐमरम, डॉ सिलास हेमरम, जीवन जगनाथ आदि भी शामिल हैं। इनके मुताबिक ट्राइबल मेडिसिन के डॉक्टर तीन तरह के होते हैं। पहला जिन्हें 40-50 साल की प्रैक्टिस का अनुभव हो। दूसरा व तीसरा जिन्हें 20-30 व 10 वर्ष का अनुभव हो।
रांची के बुंडू प्रखंड के रहने वाले वैधराज मान सिंह मुंडा भी हेदान से जुड़े हैं और बीते 15 साल से प्रैक्टिस करते आ रहे हैं। वो बताते हैं, “15 साल से होड़ोपैथिक जड़ी बूटी से औषधियां बनाकर उपचार करते आ रहे हैं। होड़ोपैथी सबसे पुरानी पद्धति है। मुंडा समाज में इस पद्धति के तहत जीभ से चखकर लोग आज भी दवा बनाते हैं। नाड़ी पकड़कर बीमारी बता देते हैं। यह विधि विलुप्त हो रही थी, जिसे फिर से हमलोग जिंदा करने के लिए लगे हैं। इस पद्धति से फलेरिया, हाड्रोसील, घेघा छोड़ कई बीमारियों का सफलता पूर्वक इलाज होता है।”
प्राकृतिक पेड़-पौधे हैं ट्राइबल मेडिसिन के स्रोत
मलेरिया और कालाजार के लिए जिन दवाइयों को प्रामाणित किया वो झारखंड के जंगलों में पाए जाने प्राकृतिक पेड़े पौधे से तैयार की गई दवा है।
हेदान के पूर्व उपाध्यक्ष और होड़ोपैथी के चिकित्सक लॉरेंस सिलास हेम्बरोम (80) बताते हैं कि मलेरिया की दवा जंगल में पाए जाने वाले पेड़ ‘काक जंघा’ के पत्ते, छाल, जड़ तीनों से दवा बनती है, जबकि कालाजार के लिए पुनर्नवा और चित्रक पौधे के जड़ों से दवा बनाई जाती है।
वैद्यराज मान सिंह मुंडा कहते हैं कि उन्होंने हाल ही में गैस्टिक और लीवर ठीक करने के लिए एक चूरन तैयार किया है जिसका नाम ‘डाइजेस्टिक चूर्ण’। वहीं हेदान ने मालनूट्रिशन के उपाचर हेतु एक साग की खोज की है। इसके मुताबिक मालनूट्रिशन खून की कमी कारण होने वाली बीमारी है और खोजा गया साग खाने से शरीर में तेजी से ब्लड की मात्रा बढ़ेगी। इसी तरह झारखंड के जंगलों में बरसात के दिनों ‘रूगड़ा’ जो एक प्रकार का मशरूम होता है, उसमें काफी प्रोटीन और विटामीन पाया जाता है। इसे लोग अलग अलग नाम भी जानते हैं। फिलहाल बाजार में इसकी कीमत दो सौ रूपये किलो तक है।
लेकिन इन सबके बीच बीते दो साल में ट्राइबल मेडिसिन जैसे किफायती उपचार की विधि को बचाने की चुनौती भी बरक्स आ खड़ी हुई है। झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक और वनाधिकार कानून के जानकार संजय बसु मलिक का मानना है कि ट्राइबल मेडिसिन जैसी उपचार की विधि तभी अस्तित्व में रहेगी जबतक जंगलों पर पूर्ण रूप से आदिवासी व अन्य परंपरागत वन वासियों का अधिकार बचा रहेगा।”
संजय बसु मलिक कहते हैं, “झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्यप्रदेश में प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि अधिनियम 2016 से प्राप्त होने वाली राशि दुरूपयोग किया जा रहा है।
जंगलों की घेराबंदी की जा रही है। लोगों को जंगल से बेदखल किया जा रहा है। जंगलों के बड़े हिस्सों को निजी कंपनी को देने की प्रक्रिया शुरू हो गई, ताकि भारी मात्रा में लकड़ी का दोहन किया जा सके हैं। व्यवसाय के उदेश्य से जंगलों में फलने-फूलने वाले प्राकृतिक पेड़ पौधों को नष्ट कर लिप्टस और सागवान के पड़े लगाए जा रहे हैं।” बसु का यह भी कहना है कि नष्ट किए जा रहे वही पेड़ पौधे हैं जिससे आदिवासी समाज औषधि बनाता और इसका प्रयोग वे अपने स्वास्थ्य उपचार हेतु किया करते हैं।
गौरतलब है कि देश के 11 लाख आदिवासियों को बेदखल करने हेतु सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार झारखंड के हजारों ऐसे आदिवासी किसान हैं जिनपर बेघर होने का संकट अब भी बरकारार है।
वहीं, झारखंड वन अधिकार मंच के संयोजक मंडली के सदस्य जॉर्ज मोनीपल्ली मानते हैं कि कैम्पा कानून के तहत प्राकृतिक जंगल प्रभावित हो रहे हैं। वो कहते हैं कि जंगल में पाए जाने वाले जिस पेड़ पौधों से जड़ी-बूटी की दवाई बनती है, वो प्राकृतिक जंगल में पाए जाते हैं। और प्राकृतिक जंगल माइनर फॉरेस्ट प्रोडक्ट में आता है। कैम्पा कानून के तहत पूरी तरह से प्राकृतिक जंगलों को नष्ट करके ही लिप्टस, सागवान जैसे पेड़ लगाए जा रहे हैं।
इसे लेकर डॉ वास्वी कीड़ो की भी राय कुछ इसी तरह की है। इनके मुताबिक जंगलों से आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है जो कि ट्राइबल मेडिसिन के लिए एक संकट है। वो कहती हैं कि ट्राइबल मेडिसिन आदिवासियों की ही की खोज है और जंगलों के प्राकृतिक पेड़ पौधों पर टिकी है।
कम्युनिटी फॉरेस्ट राइट लर्निंग एडवोकेसी (सीएफआरएलए) की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में लगभग 33 हजार गांव हैं। इसमें 14850 गांव जंगलों से जुड़े हैं। वहीं 2011 की जनगणना के मुताबिक 26 प्रतिशत झारखंड में ट्राईबल (अनुसूचित जनजाति) है। इसे आंकड़ों में देखे तो करीबन 79 लाख। और इस आबादी का 80 फीसदी हिस्सा जंगलों में निवास करता है।
वहीं इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट सर्वे 2017 के के अनुसार झारखंड में 23,553 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में जंगल है। इसमें 4।5 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल आरक्षित जंगल है जबकि बाकि अनाराक्षित वन भूमि है। झारखंड को जंगलों का राज्य कहा जाता है। यही वजह कि यहां सैकड़ों ऐसे प्राकृतिक पेड़ पौधे हैं जो मेडिकेडेड (औषधियुक्त) बताए जाते हैं।
पांच सौ हर्बल गांव बसाए जाएंगे
इधर झारखंड सरकार होड़ोपैथी को आयुर्वेद का ही हिस्सा बताती है। जबकि होड़ोपैथी के विशेषज्ञ इसे आर्युवेद से अलग और देश की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति बताते हैं। उनके मुताबिक आयुर्वेद 1500 वर्ष पुरानी चिकित्सा विधि है जबकि होड़ोपैथी यानी ट्राइबल मेडिसिन की चिकित्सा पद्धति पांच हजार वर्ष से भी पुरानी है। उनके मुताबिक आयुर्वेद उपचार अधिक से अधिक हजार ही पौधे पर ही निर्भर है, जबकि होड़ोपैथी में लगभग पांच हजार पेड़ पौधे होते हैं।
इसपर डॉ वास्वी कीड़ो कहती हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सबसे प्रचीन चिकित्सा पद्धति यानी होड़ोपैथी को सरकार नहीं मानती है। आज जब ट्राइबल भारत की एक बड़ी आबादी इलाज की इस पद्दति की तरफ लौट रही है। आज यह रोजगार का बड़ा माध्यम बन सकता है तो उसे सरकार की ओर से कोई सहायता या पहचान नहीं मिल रही है।”
झारखंड में हेड़ोपैथी को लेकर राज्य सरकार का क्या मत है, इसे जानने के लिए राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रामचंद्र चंद्रवंशी से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई। झारखंड में वर्तमान भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है।
आयुष में होड़ोपैथी को शामिल किए जाने की मांग पर भाजपा झारखंड के प्रदेश प्रवक्ता प्रवीन प्रभाकर कहते हैं, “होड़ोपैथी आयुर्वेद से ही जुड़ा हुआ है। झारखंड में आयुर्वेद की ही परंपरा को ही होड़ोपैथी कहते हैं। कोई चीज को अलग से मान्यता तब मिलती है जब वो अलग रूप से स्थापित हो जाए। सरकार झारखंड में आयुर्वेद और होड़ोपैथी को बढ़ावा देने के लिए पांच सौ हर्बल गांव बसाने जा रही है।”
हेदान राष्ट्रीय स्तर पर यह मांग है करता रहा है कि केरल की तर्ज पर झारखंड सरकार होड़ोपैथी के जानकार लोगों की तीन साल की ट्रेनिंग करवाए। झारखंड के पाकुड़ जिला में पहाड़िया सेवा समिति नाम की संस्था होड़ोपैथी चिकित्सा पद्धति की ट्रैनिंग देती है, जिसे सरकार की तरफ से कोई मान्यता या सहयोग नहीं दिया जाता है। यहां तीन साल का सर्टिफिकेट कोर्स होता है। इसमें नामंकन लेने के लिए मैट्रिक या इंटर की जरूरत नहीं होती है बल्कि कम से कम 500 प्लांट का नाम जानना जरूरी होता है।
कैसे बनती हैं दवाएं?
होड़ोपैथी को एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद के इलाज से कहीं सस्ता बताया जाता है। इसके जानकारों का कहना है कि होड़ोपैथी के तहत बनाई जाने वाली दवाओं से पहले ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति और उनके बीच होने वाली बीमारी का अध्ययन किया जाता है। पहले जंगलों के वैसे पेड़ पौधे जिसमें जहर की मात्रा नहीं हो, उसकी पहचान की जाती है। फिर उस पेड़ पैधे के पत्ते, फल, फूल, तना, छाल को लेकर लैबोरेट्री में लाया जाता है। उसके बाद उसकी क्वालिटी तय की जाती है। फिर सफाई कर इसे पीसा-कूटा जाता है। तब जाकर इसे दवा के रुप में प्रयोग किया जाता है।
झारखंड में होड़ोपैथी के चिकित्सकों को 500-1000 पेड़ पौधों का नाम और उनकी किस्म का ज्ञान होता है। इसके अधिकतर चिकित्सक आदिवासी समुदाय से आते हैं और जंगलों से जुड़े होते हैं। झारखंड के संथाली, मुंडारी, उरांव, खड़िया, बैगा, भील और गौंड जैसी बड़ी आदिवासी आबादियों के बीच हौड़ोपैथी चिकित्सा पद्धति का काफी प्रचलन है।
हेदान की यह भी मांग है कि आदिवासी बहुल्य राज्य में होड़ोपैथी के अध्यन के लिए कम से कम एक विश्वविद्यालय हो। राष्ट्रीय स्तर पर और नेशनल काउंसिल ऑफ आयुर्वेद की तर्ज पर नेशनल काउंसिल ऑफ एथनोमेडिसिन का गठन किया जाए। प्रवीन प्रभाकर, होड़ोपैथी के अध्यन के लिए विश्वविद्लाय और इसे अलग से मान्यता दिए जाने पर सहमत हैं। वो कहते है कि इसके लिए होड़ोपैथी के विशेषज्ञ दस्तावेज़ लेकर सरकार से मिलें तो उसपर अवश्य विचार किया जाएगा।
भारत सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में कुपोषण, एनिमिया, मलेरिया का प्रकोप काफी अधिक है। रिपोर्ट के मुताबिक 78 प्रतिशत ट्राइबल एनिमिया और 67 कुपोषण से ग्रासित हैं। झारखंड सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक बीते दस साल में 15 लाख लोग मलेरिया से पीड़ित हुए हैं। हेदान का दावा है कि कुपोषण, एनिमिया, मलेरिया और महिला संबंधित बीमारियों का उपचार होड़ोपैथी में शतप्रतिशत है। झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में लगभग सात सौ आदिवासी जनजातियां निवास करती हैं।
(लेखक मो. असगर खान एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं। न्यूज़क्लिक लेख में किए गए किसी भी दावे की स्वतंत्र तौर पर पुष्टि नहीं करता है।)
(यह स्टोरी एनएफआई मीडिया फैलोशिप प्रोग्राम 2019-20 के तहत प्रकाशित की गई है।)
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