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आदम और मनु की नालायक औलादों के बीच हव्वा की नातिन और इडा की पोतियाँ

यही इडा की पोती और हव्वा की नातिनें थीं जो होली के दिन दिल्ली से सांस भर दूरी के गुड़गांव - गुरुग्राम - में दरवाज़ा पीटते हमलावरों के डर से बिलख रही थीं। जान बचाने के लिए कलप रही थीं। किसी सुषमा स्वराज के ट्वीट के इन्तज़ार में सिसक रही थीं।
आदम और मनु की नालायक औलादों के बीच हव्वा की नातिन और इडा की पोतियाँ
Image Courtesy: ASTHVI

होली के दिन पाकिस्तान में दो हिन्दू लड़कियों को अगवा कर लिये जाने की ख़बर के बाद दो दिन पहले एक और किशोरी के अपहरण का समाचार आया है । तीनों - रीना (15 वर्ष), रवीना (13 वर्ष), माला कुमारी (16 वर्ष) की कहानी एक सी है ; तीनों नाबालिग थीं । तीनों को सिंध से अगवा किया गया और पंजाब के लाहौर में जाकर धर्म परिवर्तन करा के निकाह पढ़वा दिया गया । पाकिस्तानी अख़बारों के मुताबिक़ पिछले दो महीनो में इन सहित ऐसी कुल 7 वारदातें हुई हैं।

पाकिस्तान के ये मामले अपहरण और जबरिया शादी-निकाह की वजह से नहीं, धर्म के अलग होने - बच्चियों के हिन्दू होने और अपहरणकर्ताओं के मुसलमान होने की वजह से चर्चा में हैं । लड़कियाँ भी मुसलमान हुई होतीं या अपहरणकर्ता भी हिन्दू हुए होते तो इतना तूमार खड़ा होना तो अलग बात है, चर्चा भी नहीं हुई होती। सुनने में भले कितना आदिम और असभ्य क्यों न लगे किन्तु कड़वा सच यह है कि इस तरह की घटनाएँ प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक माने जाने वाले भारतीय प्रायद्वीप - अशोक के जम्बूद्वीप - में, विशेषकर जिन इलाक़ों में लिंगानुपात बुरी तरह असंतुलित है, प्रचलन में मानी जाती रही हैं। जिस भोपाल में बैठ कर मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, वहाँ 24 बच्चे हर रोज़ ग़ायब हो रहे हैं। इनमे से 80 प्रतिशत लड़कियाँ हैं। आबादी में उनका अनुपात भले कम हो मगर बेटियों के "अचानक गुम" हो जाने की घटनाओं में सतपुड़ा और विंध्य की पहाड़ियों-घाटियों में बसे आदिवासियों की बेटियों की तादाद कहीं ज़्यादा है। अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि चार दिन पहले रीवा के एक स्कूल से परीक्षा देकर निकली किशोरी को दिनदहाड़े उठा लिया गया था। बाक़ी देश की हालत भी कोई सुकून देने वाली नहीं है - इधर ओड़िशा और छत्तीसगढ़ उधर उत्तराखंड और नेपाल की तराई और असम तक की बच्चियाँ-युवतियाँ इस तरह की जघन्यता के अनुपात से अधिक शिकार हैं तो दिल्ली, मुम्बई, पटना भी निरापद नहीं हैं। 

इसमें सांप्रदायिकता और कट्टरता कितनी है यह एक पहलू है जो लाहौर और इस्लामाबाद के हाईकोर्ट्स में दायर दो अलग-अलग हैबियस कोर्पस याचिकाओं पर चल रही सुनवाई के बाद सामने आ ही जायेगा। मगर इसमें तीन नन्ही औरतो की ज़िंदगी शामिल है यह समझने के लिए किसी फ़ैसले की ज़रूरत नहीं है। नन्ही औरतें जो हव्वा की नातिन और इडा की पोती हैं - संस्कृति की वाहक और सभ्यता की थाती हैं। सीमा के इस पार हों या उस पार, अपराधी साम्प्रदायिकता और उसकी जड़ सामन्तवाद और पितृसत्तात्मकता की पहली शिकार वे ही हैं। पृथ्वी के गोलार्ध का उत्तर हो या दक्षिण हर रंग की साम्प्रदायिकता और तत्ववादी कट्टरता की ध्वजा का ध्वज-स्तम्भ सबसे पहले अपने धर्म-मज़हब की स्त्री की देह में गाड़कर फहराया जाता है। हिन्दू-मुस्लिम, सुरक्षा-असुरक्षा के नारे तो भावनात्मक उन्माद और लामबंदी के लिए हैं; असली शिकार तो घर में हैं। 

यही इडा की पोती और हव्वा की नातिनें थीं जो होली के दिन दिल्ली से सांस भर दूरी के गुड़गांव - गुरुग्राम - में दरवाज़ा पीटते हमलावरों के डर से बिलख रही थीं। जान बचाने के लिए कलप रही थीं। किसी सुषमा स्वराज के ट्वीट के इन्तज़ार में सिसक रही थीं।
मगर न उधर के सिंध में वे अकेली हैं न इधर के हरियाणे में वे तन्हा हैं। कराची और लाहौर, इस्लामाबाद और कसूर में इडा की पाकिस्तानी नातिनों की हिमायत में लोग, वहाँ के वामपंथ, कम्युनिस्ट पार्टी और लोकतांत्रिक संगठनों की अगुआई में लोग सड़कों पर थे तो इधर हरियाणा के सीटू, जनवादी महिला समिति के नुमाइंदों के साथ जनवादी आंदोलन के नेता गुरुग्राम के दहशतज़दा हव्वा के भारतीय परिवार के साथ खड़े थे।
एक अंतर ज़रूर था और वह यह था कि उधर पाकिस्तानी प्रेस सिंध की इन तीन लड़कियों के अपहरण को लेकर अपनी हुक़ूमत की लानत-मलामत कर रही थी, उन्हें न्यूज़ीलैंड से सीखने की सलाह दे रही थी - वहीं इधर का मीडिया - गोदी मीडिया - इस सब पर मुँह सिले सरबसर नंगे खड़े राजा का बाजा बजा रहा था।

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