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अमेरिका मध्य एशिया के लिए फिर से नई रणनीति सामने ला रहा है 

अमेरिका खुद को एक नई मिसाल के रूप में शामिल करने की कोशिश में लगा है, जहां रूस अभी भी एक कट्टर प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने खड़ा है, जबकि मुकाबले में "चीनी कारक" भी मौजूद है।
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C5 + 1 प्रारूप में मध्य एशियाई देशों के अपने समकक्षों के साथ अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ (बायें से तीसरे), 3 फरवरी, 2020 को ताशकंद में 

तकरीबन हर पाँच-छह साल में संयुक्त राज्य अमेरिका एक 'नई' मध्य एशियाई रणनीति के साथ प्रस्तुत हो जाता है। भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग जगत में इसे "फेसलिफ्ट" करना कहा जाता है- जैसे हवा में नए अहसास के लिए किये जाने वाले वाह्य परिवर्तन, गाड़ी में नया रेडिएटर ग्रिल बदलवाना, पीछे के बम्पर में छोटे-मोटे बदलाव, आकर्षक रंगों के विकल्प या इसी प्रकार के अन्य बदलाव शामिल हैं।

इसी परम्परा के क्रम को जारी रखते हुए अमेरिकी विदेश विभाग ने 5 फरवरी को मध्य एशिया के लिए 2019-2025 संयुक्त राज्य अमेरका की रणनीति नामक दस्तावेज जारी रखने का काम किया है।अपनी प्रस्तावना में दस्तावेज़ कहता है, "संयुक्त राज्य का इस क्षेत्र को लेकर प्राथमिक रणनीतिक उद्येश्य यह है कि मध्य एशिया का यह क्षेत्र और अधिक स्थिर और समृद्ध बन सके। यह क्षेत्र अपनी शर्तों के आधार पर विभिन्न प्रकार के अपने साझीदारों के साथ राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा हितों को आगे बढ़ाने के लिए स्वतंत्र बना रहे, वैश्विक बाजार से जुड़े और अंतर्राष्ट्रीय निवेश के लिए इसके दरवाजे खुले हों; यहाँ की लोकतांत्रिक संस्थाएं और अधिक मजबूत हो सकें, कानून का शासन  और मानवाधिकारों के प्रति सम्मान की स्थिति बहाल रहे।''  

क्या ऐसी ही बातें हम पहले भी नहीं सुन चुके हैं, जब ऐसा ही कुछ निबन्ध लगभग 1998 के आसपास बिल क्लिंटन के लिए स्ट्रोब टैलबोट ने पूर्व सोवियत गणराज्यों के सम्बन्ध में लिखा था?

इस बार यह नई रणनीति कुल छह उद्देश्यों की पहचान करती है: i) मध्य एशियाई देशों की संप्रभुता और स्वतंत्रता को मजबूत करने के रूप में; ii) मध्य एशिया में आतंकवाद के खतरों में कमी लाने के उद्देश्य से; iii) अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने के उद्येश्य से; iv) मध्य एशिया और अफगानिस्तान के बीच संपर्क को बढ़ावा देने; v) लोकतांत्रिक सुधार, कानून और मानवाधिकारों का राज स्थापित करने के लिए और, vi) व्यापार और निवेश को बढ़ावा देना इसमें शामिल हैं।
 
ये पाँचों उद्देश्य अमेरिका के इस तथाकथित विदेश मंत्रियों के C5+1 के राजनयिक मंच का यह ध्वजवाहक है। लेकिन क्या यह भी 2015 में पूर्व विदेश मंत्री जॉन केरी की विरासत की बात को ही बात को दुहरा नहीं रहा?

C5 +1 में दिलचस्प खासियत यह है कि रूस और चीन को यह मंच अपने यहाँ जगह नहीं देता है। पिछले सप्ताह यूएस की मध्य एशिया रणनीति के रिलीज के तत्काल बाद ही विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ कजाकिस्तान और उजबेकिस्तान के दौरे पर निकल पड़े थे। 

वैचारिक रूप से अगर इसे देखना हो तो इसे अमेरिकी हितों के मद्देनजर कुछ "महत्वपूर्ण बदलावों" की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है, जो इस क्षेत्र में घटित हुई हैं। जैसा कि लिसा कर्टिस ने, जो कि राष्ट्रपति की उप सहायक और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में दक्षिण और मध्य एशिया के लिए वरिष्ठ निदेशक के रूप में कार्यरत हैं, ने पिछले हफ्ते वाशिंगटन में शीत-युद्ध के युग के जंगी घोड़े हेरिटेज फाउंडेशन के अपने दिशानिर्देश में प्रस्तुत किया था।

कर्टिस ने कजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान में हो रहे "नेतृत्व की गतिशीलता में बदलाव" को सूचीबद्ध किया था; और साथ ही इस क्षेत्र में चीनी प्रभाव के गहराते जाने और "मजबूत रूसी प्रभाव के बने रहने को रेखांकित किया है"। कजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान दोनों अपने संक्रमण काल के दौर में हैं और उनके यहाँ "बहु-मार्गीय" विदेशी नीतियां उभर रही हैं। 

नव-निर्वाचित कजाख राष्ट्रपति कास्सिम-जोमार्ट तोकायेव अपनी प्राथमिकता धीरे-धीरे मॉस्को और बीजिंग के साथ सहयोग बढ़ाने की ओर खिसका रहे हैं। जाहिर सी बात है कि कजाखस्तान चीन के खिलाफ अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति में खुद को उलझाने नहीं जा रहा है, हालाँकि यह अलग बात है कि वहाँ पर जो मुखर अमेरिकी समर्थक तत्व मौजूद हैं वे चीन या शिनजियांग में कथित रूप से कज़ाकों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार जैसे मुद्दों को लेकर चीन-फोबिया को भड़काने में लगे हैं।

तोकायेव पेशे से राजनयिक रहे हैं और वे रूस और चीन के बीच कजाकिस्तान को एक पुल के रूप में तब्दील करने और इसके जरिये एक बेहतर तालमेल स्थापित करने को लेकर उत्सुक हैं। क्रेमलिन भी इसको लेकर इच्छुक है, जैसा कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ तोकायेव के समझौते से स्पष्ट है कि उन दोनों देशों की सीमाओं पर परिवहन क्षेत्र के बुनियादी ढांचे को आधुनिक बनाने के लिए "वन बेल्ट वन रोड" और उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे को दुरुस्त किया जा सकता है। 

इतना ही नहीं, बल्कि तोकायेव वैश्विक मुद्रा के रूप में युआन के प्रबल समर्थक हैं, और रूस और चीन के साथ व्यापार और निवेश संबंधों को बढाने को लेकर बेहद उत्सुक हैं। कुल मिलाकर देखें तो इस सबसे वाशिंगटन खुद को असहज महसूस कर रहा है, कि कज़ाख विदेश नीति में "पश्चिमी दृष्टि" सूचीहीन हो चुकी है। कज़ाख नेताओं के साथ पोम्पेओ की हो रही वार्ता का मुख्य बिंदु यह रहा कि रूस या चीन के साथ रिश्ते बनाने से जितने लाभ की उसे उम्मीद है, उससे कहीं अधिक फायदा उसे अमेरिका के साथ रहने में होने जा रहा है।

कजाक की तुलना में नए बलशाली उज़्बेक प्रमुख शव्कत मिर्जीयोयेव के साथ वाशिंगटन की पटरी काफी आसानी से बैठती दिखती है, जिन्होंने हाल ही में राष्ट्रपति के रूप में करीमोव को स्थानापन्न किया है। मिर्ज़ियोएव का सुधारवादी और प्रगतिशील दृष्टिकोण (जबकि वास्तव में एक निरंकुश शासन की अध्यक्षता करते हुए) वाशिंगटन को भा रहा है, और इसके साथ ही उज़्बेक महत्वाकांक्षा कई अन्य स्तानों को भी उभार सकती है और इसके अपने भू-राजनीतिक फायदे हो सकते हैं। C5 +1 की पहल इसका एक प्रमुख उदाहरण है। 

अफगानिस्तान के लिए सैन्य आपूर्ति के लिए अमेरिका के लिए एक वैकल्पिक परिवहन मार्ग प्रदान करने की दिशा में उज्बेकिस्तान की ओर से एक सकारात्मक दृष्टिकोण दिखता है। वाशिंगटन इस बात की सराहना करता है कि ताशकंद ने मास्को से कुछ दूरी बनाकर रखी है- जी कि न तो बहुत करीब और न ही काफी दूर की है - और चयनात्मक मुद्दों पर सम्बन्ध बनाये रखने के विकल्प को उसने खुला छोड़ रखा है। कजाकिस्तान के विपरीत उज़्बेकिस्तान ने मास्को के नेतृत्व वाले सीएसटीओ से एक निश्चित दूरी बनाकर रखी हुई है और यूरेशियाई आर्थिक संघ के प्रति उसका रवैया कुल मिलाकर मिला-जुला वाला है।

इतना सब होने के बावजूद मिर्ज़ियोएव ने रूस के नेतृत्व में चल रही एकीकरण की परियोजनाओं के बारे में अपनी कुछ दिलचस्पी दिखाई है, जो वाशिंगटन के लिए चिंता का सबब बनी हुई है। इसको लेकर कर्टिस का एक दिलचस्प सूत्रीकरण देखने को मिला था: “रूस का इस क्षेत्र में हमेशा से ही जबरदस्त प्रभाव रहा है। हम इसकी उम्मीद भी नहीं करते कि इसमें कोई बदलाव आने वाला है। हम उसकी बराबरी करने की कोशिश में भी नहीं लगे हैं। हम तो सिर्फ वहाँ पर मौजूद रहना चाहते हैं। हम तो बस इतना चाहते हैं कि इन देशों के लिए विकल्प मौजूद रहें। ” 

सुनने में तो यह काफी सौम्य लगता है, लेकिन वास्तव में सोवियत युग के बाद के दौर में इन घास के मैदानों में यह शानदार खेल काफी खराब हो सकता है। इस सम्बन्ध में नब्बे के दशक में अमेरिकी विश्लेषकों ने मध्य एशिया में संभावित रूस-चीन हितों के टकराव के लिए निरंतर अभियान चलाए रखा था। अमेरिका ने शर्माते हुए यहाँ तक प्रस्तावित किया था कि इन मैदानी क्षेत्रों में रुसी प्रभाव को खत्म करने के लिए यदि अमेरिकी-चीनी अनैतिक संबंध भी बनाने पड़ें तो उसे हिचकना नहीं चाहिए, क्योंकि यह दोनों ताकतों के लिए “विन-विन” वाली स्थिति हो सकती है।

लेकिन वास्तव में हुआ ये कि न तो मास्को और ना ही बीजिंग इस चक्कर में फँसे, बल्कि इसके विपरीत उन दोनों ने अपने बीच मध्य-एशियाई रणनीतियों को लेकर सामंजस्य स्थापित करने का काम आरंभ कर दिया। रूस ने इस क्षेत्र के विकास में चीन की महत्वपूर्ण भूमिका को जहाँ सराहने का काम किया, वहीँ चीन ने इस क्षेत्र में रूस के ऐतिहासिक हितों और सुरक्षा के प्रदाता के रूप में इसकी प्रमुख भूमिका को स्वीकार किया।
 
आज, अमेरिका खुद को एक नई मिसाल के रूप में शामिल करने की कोशिश में लगा है, जहां रूस अभी भी एक कट्टर प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने खड़ा है, जबकि मुकाबले में "चीनी कारक" भी मौजूद है।

कर्टिस यह बता पाने में असमर्थ रहीं कि इस सबके बीच किस प्रकार से अमेरिकी उम्मीदों को बरक़रार रखा जाये: "देखिये, चीन वहाँ पर बुनियादी ढाँचा खड़ा करने में मदद कर रहा है, जो विकास कार्य में मदद के लिए बेहद जरुरी है। लेकिन सिर्फ एक चीज है जिसको लेकर हमारी चिंता बनी हुई है, और वह यह कि यह बुनियादी ढांचे को लेकर जो वित्तीय मदद की जा रही है, उसे पारदर्शी होना चाहिए। हम नहीं चाहते कि ऐसे देश अति-ऋण ग्रस्तता के बोझ तले दब कर रह जाएँ और अपनी संप्रभुता खो बैठें। यह वो चीज है, जिसको लेकर हम चिंतित हैं।"

इस बात की संभावना करीब-करीब शून्य ही है कि कजाकिस्तान या उज्बेकिस्तान, अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति की बोगी में सवारी करने के लिए तैयार हो जाएँ। और ना ही ये दोनों क्षेत्रीय महाशक्तियाँ अमेरिकी भागीदार बनने के लिए रूस और चीन के साथ अपने संबंधों में गिरावट लाने की इच्छुक होंगी। उनके लिए रूस और/या चीन के साथ रचनात्मक संबंध बनाए रखना कोई विकल्प नहीं है, बल्कि ऐसा करना उनकी जरुरत है। जहाँ तक अमेरिका का सवाल है, उसे इस भू-राजनीतिक सच्चाई से नफरत है।

मध्य एशियाई नेत्रत्व इन सबका अभ्यस्त हो चुका है, जैसा कि अमेरिकी नौसेना के युद्ध संबंधी महाविद्यालय में कार्यरत प्रसिद्ध यूरेशियाई विद्वान और नेशनल इंटरेस्ट पत्रिका के पूर्व संपादक, प्रोफेसर निकोलस ग्वोसदेव, अमेरिकी क्षेत्रीय नीतियों के "कहने-कर दिखाने में फर्क" के रूप में इसे बताते हैं। 

“समर्थन करने की ढकोसलेबाजी वाले बयानों और वास्तव में ठोस रूप से वाशिंगटन जितना कर पाने की स्थिति में है के बीच की जो खाई है वह बनी रहती है।"
ग्वोसदेव लिखते हैं, "संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर यूरेशियाई स्थान को लेकर जनता के बीच में 'महान शक्ति परीक्षण' का केंद्र बिंदु बनाने के लिए समर्थन का कोई विशेष आधार नहीं है।" और इन सबसे ऊपर, "यहाँ तक कि अमेरिकी सरकार के भीतर भी हमें काफी लालफीताशाही और बजटीय दिक्कतें नजर आती हैं, जहाँ पर यह सवाल प्रमुखता से बना हुआ है, कि अमेरिकी कोशिशें किस दिशा में होनी चाहिए।”

क्षेत्रीय नीतियों के सम्बन्ध में अमेरिका की "कहने-करने में अंतराल" है- यह वह "खाई है जो वाशिंगटन की थोथी बयानबाजी के और जो वह वास्तव में ठोस रूप से कर सकने में सक्षम है के बीच घिरी हुई है।" सोवियत युग की समाप्ति के बाद की जगह को लेकर अमेरिका की अप्रभावी नीतियों के सम्बन्ध में प्रोफेसर ग्वोस्देव यहाँ निर्णायक समालोचना प्रस्तुत करते हैं, उनका तर्क है कि यूरेशिया को लेकर अमेरिकी क्षेत्रीय रणनीति मात्र "आकांक्षात्मक और प्रतीकात्मक" हैं और इसे किसी भी प्रकार के "ठोस, एकजुट यूरो-अटलांटिक कोशिशों” का समर्थन हासिल नहीं है।

निष्कर्ष के तौर पर ग्वोस्देव कहते हैं कि बीजिंग और मॉस्को का "इस खेल में काफी कुछ दाँव पर लगा हुआ है,"  जैसा कि उनके द्वारा जिस मात्रा में संसाधनों को इसमें झोंके जाने से ही यह खुद-ब-खुद स्पष्ट है। यह इस बात का एक यथार्थवादी आकलन है कि 2025 तक यह नई अमेरिकी रणनीति किस प्रकार का प्रदर्शन कर पाने में सक्षम होगी।

(सौजन्य: इण्डियन पंचलाइन)  


 

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