आरटीआई संशोधन को लेकर सरकार के आधारहीन तर्क
सूचना वह मुद्रा है जिसकी समाज की व्यवस्था तथा जीवन में हिस्सेदारी के लिए प्रत्येक नागरिक को आवश्यकता होती है- एपी शाह, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली एवं मद्रास उच्च न्यायालय, 2010।
सिर्फ शाह ही नहीं बल्कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के कई न्यायाधीशों ने बार-बार ज़ोर दे कर कहा है कि सूचना का अधिकार लोकतंत्र की आधारशिला है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने वर्ष 1981 में कहा था कि एक समाज जिसने लोकतंत्र को अपने "धार्मिक आस्था" के रूप में चयन किया है उसके नागरिकों को यह जानना चाहिए कि उसकी सरकार क्या कर रही है ?
भगवती से पहले 1975 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस के.के. मैथ्यू ने कहा कि लोगों को "सरकारी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक रुप से किए गए हर सरकारी कार्य को जानने का अधिकार है। ख़र्च के हर एक सार्वजनिक लेनदेन के विवरण को जानने के वे हक़दार हैं।"
लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने एक ऐसे कानून के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी जो नागरिक के जानने के अधिकार पर नियंत्रण करेगी। सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 की प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान सुगबुगाहट महसूस हुई जो सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम से पहले आया था। और सूचना के अधिकार कानून को 2005 में संसद में पारित किया गया था।
तीसरी बार बनी एनडीए सरकार इस अधिकार का अतिक्रमण करने की कोशिश कर रही है जो नागरिकों ने लंबी प्रक्रिया के बाद प्राप्त किया था। यह केंद्र और राज्यों में सूचना आयुक्तों के लिए तय किए गए वेतन, भत्ते और कार्यकाल को निर्धारित करने वाले आरटीआई अधिनियम में एक संशोधन लाकर इस अधिकार का अतिक्रमण कर रही है।
इस अधिनियम में ये संशोधन संसद में एक असाधारण अवसर साबित हुआ जहां विधेयक को टेबल पर रखने के लिए एक वोट और फिर एक वर्ग की आवश्यकता थी। अंत में 224 सांसदों ने लोकसभा में इस विधेयक को मंजूरी दी और सदन की संरचना और मतों को देखते हुए लोकसभा में हंगामे के बीच ये विधेयक 23 जुलाई को पारित करने के लिए पूरी तरह तैयार था।
आरटीआई अधिनियम में केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त, अन्य केंद्रीय सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयोगों के प्रमुखों का वेतन व भत्ता निर्वाचन आयोग के सदस्यों के वेतन और भत्ते के बराबर होता है। राज्य सूचना आयुक्त मुख्य सचिवों के वेतन और भत्ते के बराबर के हकदार हैं जो राज्यों में सर्वोच्च श्रेणी के नौकरशाह हैं। सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है, या जब तक वे 65 वर्ष के नहीं हो जाते।
केंद्र सरकार अब पूरे देश में सभी सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और कार्यकाल को खुद नियंत्रित करने जा रही है. जम्मू कश्मीर केवल इसका अपवाद है, जिसका अपना सूचना का अधिकार है।
विधेयक को पटल पर रखते हुए कार्मिक, लोक शिकायत व पेंशन राज्य मंत्री (जितेंद्र सिंह) ने एक अजीब बात कही कि आरटीआई कानून जो 14 वर्षों से जारी है इसका कोई नियम नहीं था। उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि एक साधारण क़ानून द्वारा स्थापित ऐसे निकाय का वेतन और भत्ते तय करने को लेकर भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) जैसे संवैधानिक निकाय के साथ बराबरी नहीं की जा सकती है।
हमें निश्चित कार्यकाल को समाप्त करने को लेकर औचित्य का इंतजार करना होगा। लेकिन सरकार ने इस विधेयक को संसदीय स्थायी समिति के हवाले करने का भी विरोध किया है। यह एक मूल प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ देता है: सरकार ये संशोधन क्यों कर रही है?
संशोधन के लिए मंत्री का तर्क एनडीए के पहले कार्यकाल के दौरान अर्थात वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में इसी मुद्दे पर उठाए गए कदम का विरोध करता है। वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान 1998 में इस सरकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) विधेयक पेश किया था। ये विधेयक लोकसभा के विघटन के साथ समाप्त हो गया था और इसे दिसंबर 1999 में फिर से पेश किया गया था। आखिरकार चार साल बाद संसदीय स्थायी समिति में और संसद के दोनों सदनों में विचार-विमर्श के बाद सीवीसी विधेयक क़ानून बन गया।
सीवीसी अधिनियम की धारा 5 (7) केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के वेतन और भत्ते को संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के अध्यक्ष द्वारा लिए जाने वाले वेतन-भत्ते के बराबर करता है। बेशक, यूपीएससी संविधान के अनुच्छेद 315 के तहत स्थापित किया गया था। सीवीसी में दो सतर्कता आयुक्त यूपीएससी के सदस्यों के बराबर वेतन-भत्ते पाने के हक़दार हैं।
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लिए धन्यवाद जिसे एनडीए सरकार ने 2017 में स्वीकार किया और यूपीएससी के अध्यक्ष तथा सदस्यों के वेतन में वृद्धि की गई। इनका वेतन अब उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश के बराबर है।
सीवीसी स्थापित करने के लिए संसद को संविधान की आवश्यकता नहीं है। केंद्र सरकार और केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक निकाय की आवश्यकता को सबसे पहले 1964 में के संथानम समिति ने पहचान किया था। इसलिए सीवीसी कानून के संवैधानिक अनिवार्यता को बनाए रखने और भ्रष्टाचार मुक्त शासन के लिए पूर्ण रूप से वैधानिक कार्य करता है।
दूसरी ओर निरंतर न्यायिक आदेशों में केंद्र और राज्यों के सूचना आयोग संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत वाक्य तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में सुरक्षित रखने के लिए अपील करने की अंतिम अदालत हैं। (इनमें से कुछ उपर दिए गए हैं।)
इसके अलावा ये आरटीआई अधिनियम पारदर्शिता की व्यवस्था को अपनाता है जो भ्रष्टाचार मुक्त शासन के लिए पहला शर्त है। इसका प्रस्तावना एक पारदर्शी व्यवस्था को भ्रष्टाचार रोकने के लिए एक पहल के रूप में काम करता है। यह इस विषय को सशक्त करता है कि जनता सरकार और इसकी संस्थाओं को जवाबदेह बनाने में सक्षम बने।
हालांकि सीवीसी के पास केवल सिफारिशी शक्तियां हैं जबकि सूचना आयोग के फैसले बाध्यकारी हैं। केवल उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा जो अनुच्छेद 226 और 32 के तहत प्राप्त है अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए, उसके फैसले को निरस्त कर सकती है। अदालतें लोक सूचना अधिकारी पर जुर्माना भी लगा सकती हैं। यह उन नागरिकों को क्षतिपूर्ति कर सकता है जो गलत तरीके से सूचना देने से इनकार करने या इसे देने में किसी अनुचित देरी के कारण हानि उठाते हैं।
इन संशोधनों की खामियों पर सरकार का ध्यान खींचने की आवश्यकता को देखते हुए मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है। सेवानिवृत्त सिविल सेवकों के एक समूह ने मेरे पत्र का समर्थन किया है। पत्र में लिखा गया हैः “जैसा कि आपने आरटीआई अधिनियम की 10 वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए अक्टूबर 2015 में कहा था कि आरटीआई प्रशासन के कार्य के बारे में जानकारी मांगने के अलावा उससे सवाल पूछने के लिए सामान्य नागरिक को अधिकार देता है, ये एक जीवंत लोकतंत्र की नींव है।”
आरटीआई अधिनियम सरकार को अपने कामकाज की निगरानी करने और अपने कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने का अवसर प्रदान करता है। मैंने पत्र में लिखा "बड़े पैमाने पर स्वीकार किए गए आपके मिनिमम गवर्नमेंट एंड मैक्सिमम गवर्नांस के वादे के लिए केंद्र और राज्यों में सूचना आयोगों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की आवश्यकता है।"
हर साल सूचना आयोग दो लाख से अधिक अपील और शिकायतों पर निर्णय देता है जिनमें से मामूली संख्या में ही इन्हें अदालतों के सामने चुनौती दी जाती है।
मेरे द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे पत्र का एक अन्य पहलू यह है कि संसद ने 2005 के आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और कार्यकाल को स्वयं निर्धारित किया है। यह उस महत्वपूर्ण भूमिका की मान्यता थी जिसे निभाना है। संसद ने इस योजना को यह सुनिश्चित करने के लिए तैयार किया कि वे बिना किसी डर या पक्ष और स्वायत्तता से काम करेंगे।
सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, यह देखते हुए कि सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम आरटीआई मामलों में हर दस अपील में से नौ में पार्टी है। ये संशोधन इस वैधानिक सुरक्षा को हटा देते हैं और उनके वेतन और कार्यकाल को निर्धारित करने की शक्ति को सौंपते हैं। वे इन निर्धारणों के लिए केंद्र सरकार को सशक्त बनाना चाहते हैं। इस तरह वे इस अधिनियम की संघीय प्रकृति का विरोध करते हैं जो कि मैंने अपने पत्र में लिखा हूं कि बड़े पैमाने पर स्वीकार किए गए प्रधानमंत्री के कोऑप्रेटिव फेडरलिज्म सिद्धांत का उल्लंघन कर रहा है।
(वजाहत हबीबुल्लाह 2005 से 2010 तक भारत के मुख्य सूचना आयुक्त थे और कंस्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप के सदस्य हैं जो सामाजिक-राजनीतिक विकास के मुद्दे पर सक्रिय है।)
( इस लेख के लिए कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के एक्सेस टू प्रोग्राम इनफार्मेशन के हेड वेंकटेश नायक ने जानकारी मुहैया करायी है )
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