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आर्थिक गुलामी छिपाने के लिए छद्म राष्ट्रवाद का शोर!

यह तय करना कठिन है कि प्रधानमंत्री जी की हड़बड़ी, उतावलापन और खटकने वाली उग्रता उनकी अपरिपक्वता है या फिर यह एक असफल राजनेता की बुनियादी मुद्दों से ध्यान हटाने की एक नितांत औसत और सस्ती रणनीति है।
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फाइल फोटो : साभार

जब से विश्व के अनेक देश परमाणु हथियारों से सम्पन्न हुए हैं तब से प्रत्यक्ष युद्ध या आरपार की लड़ाई की अवधारणा अप्रासंगिक हो गई है। दो परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के मध्य युद्ध सर्वनाश का कारण बन सकता है। अंतरिक्ष युद्ध के दृश्य अमेरिकी टेलीविजन के बहुचर्चित सोप ओपेरा स्टार वार्स और इससे प्रेरित हॉलीवुड फिल्मों में आकर्षक लगते हैं और रोमांच की सृष्टि करते हैं किंतु वास्तविक अंतरिक्ष युद्ध बहुत दूर की कौड़ी है। पिछले दशकों में भारत समेत पूरी दुनिया के देश धीरे धीरे अपने परमाणु कार्यक्रम तथा अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम को शांतिपूर्ण विकासोन्मुख दिशा देने की ओर अग्रसर हुए हैं। वैसे भी आम जनता के पसीने की कमाई को ऐसी तकनीक के विकास में प्रयुक्त किया जाना चाहिए जिससे देश आर्थिक व्यापारिक गतिविधियों में अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर सके और विकसित देशों की सशर्त और शोषणमूलक सहायता पर उसकी निर्भरता कम हो सके।

अपनी चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री जी सेना की आतंकवाद विरोधी युद्धक कार्रवाई और अंतरिक्ष युद्ध में भारत की प्रवीणता की चर्चा बहुत जोरों से कर रहे हैं। यह तय करना कठिन है कि प्रधानमंत्री जी की हड़बड़ी, उतावलापन और खटकने वाली उग्रता उनकी अपरिपक्वता है या फिर यह एक असफल राजनेता की बुनियादी मुद्दों से ध्यान हटाने की एक नितांत औसत और सस्ती रणनीति है। अपनी राष्ट्रभक्ति का उद्घोष करते प्रधानमंत्री बहुत चतुराई से अपने विरोधियों पर राष्ट्रद्रोही का तमगा लगा देते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा एवं आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे को एक सैन्य अभियान की सफलता-असफलता तक सीमित कर देने की प्रधानमंत्री की रणनीति कारगर हो न हो, उनका यह प्रयास सेना को राजनीति में रुचि लेने को प्रेरित कर सकता है और यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है कि यह देश के लोकतंत्र के लिए कितना घातक होगा। मूल प्रश्न यह नहीं है कि बालाकोट एयर स्ट्राइक में कितने आतंकी मारे गए? मूल प्रश्न यह है कि क्या बालाकोट एयर स्ट्राइक से आतंकवाद पर नियंत्रण पाने में कोई उल्लेखनीय सहायता मिली? सवाल यह भी है कि 2014 के बाद से कश्मीर में आतंकियों को मिलने वाला आंतरिक समर्थन क्यों बढ़ा है? क्यों आम कश्मीरी अपने को अलग थलग और असुरक्षित महसूस कर रहा है? क्यों इन पांच वर्षों में पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना के जवानों की शहादत एक आम बात हो गई है? क्यों बार बार सेना और अर्द्धसैनिक बलों का इस्तेमाल अपने देश के नागरिकों पर किए जाने की दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो रही है? क्यों बार बार देश के बहादुर जवानों की कठिन परीक्षा ली जा रही है? क्या किसी कौम या किसी प्रदेश के सारे नागरिकों पर संदेह करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना उचित है? क्यों हमारा खुफिया तंत्र सीमापार से हो रही घुसपैठ तथा हथियारों और विस्फोटकों की आमद को रोक पाने में नाकाम रहा है? यदि गुप्तचर विभाग द्वारा कोई इनपुट दिया भी गया है तो सुरक्षा एजेंसियां इस पर सम्यक और त्वरित कार्रवाई क्यों नहीं कर पाई हैं? क्या इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण उपलब्ध है कि किसी आतंकी समस्या का केवल सैन्य समाधान निकाला जा सका हो? क्या समस्याग्रस्त क्षेत्र के लोगों को बिना विश्वास में लिए, बिना उनके सामाजिक-आर्थिक विकास के आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर प्रधानमंत्री जी के पास नहीं है। देश के भीतर छिपे काल्पनिक आंतरिक शत्रुओं और काल्पनिक युद्धों को केंद्र में रखकर जनता को सशंकित, हिंसक और आक्रामक बनाने की यह चुनावी रणनीति देश को हिंसा और विप्लव के अंतहीन दौर में धकेल सकती है। 

किन्तु छद्म राष्ट्रवाद के इस शोर में एक गहन संकट को छिपाया जा रहा है जो हमारी आर्थिक और सैन्य आज़ादी को खतरे में डाल रहा है। नव उपनिवेशवाद आधुनिक युग में प्रच्छन्न दासता बनाए रखने की एक कारगर रणनीति रही है जिसका सफल प्रयोग ताकतवर मुल्क शोषण और गैर बराबरी को बढ़ावा देने के लिए करते रहे हैं। दरअसल इन महाशक्ति कहे जाने वाले देशों की सरकारें भी अब विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों या कॉर्पोरेट घरानों तथा बड़ी वित्तीय संस्थाओं के एजेंट के रूप में कार्य कर रही हैं। किसी देश पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अब प्रत्यक्ष युद्ध और सैन्य हस्तक्षेप के स्थान पर आर्थिक नियंत्रण और तकनीकी सर्वोच्चता स्थापित करने की नीति अपनाई जाती है। प्रधानमंत्री के दो बड़े आर्थिक कदम नोटबन्दी और जीएसटी पश्चिम की बड़ी वित्तीय कंपनियों और बड़े बैंकिंग संगठनों की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन हेतु भारतीय अर्थव्यवस्था को अनुकूल बनाने के प्रयास के रूप में देखे जा सकते हैं। सरकार द्वारा नोटबन्दी  से पहले अधिकृत रूप से इसके संभावित सामाजिक आर्थिक प्रभावों को लेकर कोई अध्ययन नहीं कराया गया था। नोटबन्दी लागू करने से पहले इसके विभिन्न पहलुओं पर संसद में कोई चर्चा भी नहीं हुई थी। देश की जनता की ओर से भी सरकार पर इस तरह का कोई कदम उठाने हेतु दबाव नहीं बनाया गया था। सर्वप्रथम नोटबन्दी को भ्रष्टाचार, आतंकवाद और कालेधन पर प्रहार के रूप में चित्रित किया गया। बहुत बाद में यह बताया गया कि यह कैशलेस या लेस कैश समाज की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। आंकड़े बताते हैं कि जिन कथित उद्देश्यों -कालेधन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद की समाप्ति- को लेकर नोटबन्दी की गई थी, सरकार उन्हें प्राप्त करने में असफल रही। किंतु वास्तविकता यह है कि नोटबन्दी का सरकार द्वारा प्रचारित उन कथित उद्देश्यों की प्राप्ति से कोई संबंध नहीं था। नोटबन्दी प्रधानमंत्री जी का मौलिक प्रयोग नहीं थी। अपितु इसकी योजना अमेरिकी सरकार, बड़ी डिजिटल पेमेंट तथा ई कॉमर्स कंपनियों तथा अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा पहले से बना ली गई थी। प्रधानमंत्री जी की मार्केटिंग टीम द्वारा नोटबन्दी को इस तरह प्रस्तुत किया गया कि वह उनकी लार्जर दैन लाइफ छवि में चार चांद लगा दे। यह तथ्य अब सार्वजनिक विमर्श में हैं कि नोटबन्दी पूर्व नियोजित थी। इसके लिए यूनाइटेड स्टेट्स फ़ेडरल गवर्नमेंट की एक स्वतंत्र एजेंसी यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशल डेवलपमेंट तथा इसके द्वारा वित्तपोषित संस्था  कैटेलिस्ट भारत सरकार के संपर्क में थीं। नोटबन्दी से ठीक पहले अक्टूबर 2016 में कैटेलिस्ट की स्थापना का उद्देश्य सरकार, जनता,क्रियान्वयन एजेंसियों एवं विभिन्न स्टेक होल्डर्स के मध्य आपसी तालमेल की कमी से उत्पन्न उन समस्याओं का समाधान करना था जो आम जनता और छोटे व्यापारियों द्वारा डिजिटल भुगतान प्रणाली को अंगीकार करने की प्रक्रिया को बाधित कर रही थीं।

द स्क्रॉल में जनवरी 2017 में प्रकाशित टोनी जोसेफ के लेखों की श्रृंखला की तीसरी कड़ी अंडरस्टैंडिंग डी मॉनीटाइज़ेशन :हू इज बिहाइंड द वॉर ऑन कैश एंड - हमें यह बताती है कि भारत 2015 में बेटर दैन कैश अलायन्स का सदस्य बन गया था। यह अलायन्स कैशलेस कैटेलिस्ट से भी संबंधित है और इसका उद्देश्य विकासशील देशों को कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर जबरन धकेलने की रणनीति तैयार करना है। 19 जुलाई 2018 को ब्रेट स्कॉट द गार्डियन में प्रकाशित एक लेख में लिखते हैं- इसी प्रकार वित्तीय संस्थाएं हमें कैशलेस सोसाइटी और डिजिटल बैंकिंग की ओर धकेल रही हैं। इसका वास्तविक उद्देश्य कॉरपोरेट जगत को मुनाफा प्रदान करना है। वीसा और मास्टरकार्ड जैसी भुगतान कंपनियां अपने द्वारा बेची जाने वाली डिजिटल पेमेंट सर्विसेज में बढ़ोत्तरी चाहती हैं जबकि बैंक लागत में कमी लाना चाहते हैं। धकेलने की इस प्रक्रिया के दो भाग हैं- बैंक अपनी शाखाओं और एटीएम आदि में कैश की कमी उत्पन्न कर असुविधा की स्थिति बनाते हैं। फिर वे विकल्प में डिजिटल पेमेंट को जोर शोर से पेश करते हैं। इस तरह लोगों को डिजिटल बैंकिंग को चुनने हेतु बाध्य किया जाता है।

द सिटीजन में 6 जनवरी 2017 को प्रकाशित नॉरबर्ट हैरिंग का आलेख अ वेल केप्ट ओपन सीक्रेट- वाशिंगटन इज बिहाइंड इंडियाज ब्रूटल एक्सपेरिमेंट ऑफ अबॉलिशिंग मोस्ट कैश यह बताता है कि नोटबन्दी की पूर्व तैयारी के रूप में यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशल डेवलपमेंट द्वारा नोटबन्दी से करीब वर्ष भर पहले एक अध्ययन कराया गया था जिसके निष्कर्षों को बियॉन्ड कैश रिपोर्ट के रूप में जनवरी 2016 में प्रस्तुत किया गया था। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत, अमेरिका और विश्व की 35 प्रमुख डिजिटल पेमेंट तथा ई कॉमर्स कंपनियों की भागीदारी देश को डिजिटल भुगतान की ओर जबरन धकेलने के इस अभियान में थी। नोटबन्दी जैसे कदम नवउदारवादी अर्थव्यवस्था द्वारा बिग फाइनेंस कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए फैलाए जाने वाले डिजिटल टेररिज्म का आदर्श उदाहरण हैं। भारत सरकार ने विकासशील देशों में कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने की इच्छुक अमेरिकी सरकार और विश्व की चुनिंदा डिजिटल पेमेंट तथा ई कॉमर्स कंपनियों के लिए हमारे देश को एक प्रयोग स्थल के रूप में उपलब्ध करा दिया। प्रधानमंत्री जी ने यह विचार नहीं किया कि विश्व के सर्वाधिक विकसित और संपन्न देशों के लिए तैयार किए गए डिजिटल अर्थव्यवस्था के मॉडल को हड़बड़ी में बिना किसी तैयारी के हमारे गरीब और पिछड़े देश में लागू करने का कैसा विनाशक परिणाम हो सकता है। प्रधानमंत्री अपनी जिन आर्थिक उपलब्धियों की बड़े गौरव से चर्चा करते हैं उन पर बारीकी से नजर डालने पर एक पैटर्न सामने आता है। बड़ी फाइनेंस कंपनियों और कॉर्पोरेट ताकतों के अनुकूल अर्थव्यवस्था गढ़ने के मानकों पर मोदी सरकार खरी उतर रही है। किंतु हर मानव विकास सूचकांक में हमारा प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। मानव अधिकारों के पालन में अब तक शानदार रहे हमारे रिकॉर्ड में चिंताजनक रूप से गिरावट आई है। मानवाधिकारों के हनन को राष्ट्रवाद से जोड़ा जा रहा है। इसे मजबूत सरकार की निशानी के रूप में पेश किया जा रहा है। सरकार विरोधियों को राष्ट्रद्रोही बताकर कुचलने की प्रवृत्ति बढ़ी है। 

आर्थिक क्षेत्र में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है। निर्धन और निर्धन हुए हैं तथा अमीर और ज्यादा अमीर। संपत्ति का मुट्ठी भर लोगों के पास केंद्रीकरण हुआ है। देश के छोटे कारोबारियों और नौकरीपेशा लोगों से मिल कर बने मध्य वर्ग के आर्थिक जीवन को कड़ी डिजिटल निगरानी के दायरे में लाया जा रहा है। उनसे अधिकाधिक करों की वसूली की जा रही है किंतु दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेट घरानों को घोषित-अघोषित लाभ एवं छूट देने में अतिशय उदारता बरती जा रही है।

वर्तमान सरकार ने भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए गठित संस्थाओं का प्रयोग केवल अपने विरोधियों पर दबाव बनाने हेतु किया है। सरकार की इस नीति के अनेक दुष्प्रभाव देखने में आएंगे। एक सबसे घातक परिणाम जो अभी से दिखने लगा है, वह है भ्रष्टाचार का एक मुद्दे के रूप में अपनी अहमियत खो देना। 

बहरहाल टेक्नॉलॉजी आधारित भ्रष्टाचार निरोधक युक्तियां बड़ी आसानी से इकॉनॉमिक सर्विलेंस के लिए प्रयुक्त की जा सकती हैं जिनके द्वारा आम आदमी के आर्थिक जीवन को इस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है कि उसे बिग फाइनेंस की जरूरतों के मुताबिक आसानी से ढाला जा सके। लाइव लॉ में 26 सितंबर 2018 को प्रकाशित मनु सेबेस्टियन का आलेख आधार पर जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ के बहुमत से असहमति रखते फैसले के कुछ अति महत्वपूर्ण बिंदुओं को उजागर करता है। मनु सेबेस्टियन के अनुसार जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में इस बात को रेखांकित किया है कि आधार कार्यक्रम की सॉफ्टवेयर संरचना की बुनियाद का दर्जा रखने वाली डी डुप्लीकेशन टेक्नोलॉजी का सोर्स कोड न तो केंद्र सरकार के पास है न ही यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पास है। यह सोर्स कोड एक विदेशी कारपोरेशन के पास है। 2016 में आधार एक्ट लागू होने से पूर्व यूआईडीएआई द्वारा अमेरिकी कंपनी एल 1 आइडेंटिटी सॉल्यूशन्स के साथ करार किया गया था जिसके अनुसार किसी भी भारतीय नागरिक की निजी जानकारी इस कंपनी को हस्तगत की जा सकती है। दरअसल एल1 आइडेंटिटी सॉल्यूशन्स के पास आधार के बायोमेट्रिक सॉफ्टवेयर का स्वामित्व है। सेबेस्टियन अपने आलेख में ग्रेट गेम इंडिया न्यूज द्वारा 25 अगस्त 2017 को प्रकाशित एक समाचार का उल्लेख करते हैं जिसके अनुसार एल1 आइडेंटिटी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में सीआईए के पूर्व डायरेक्टर जॉर्ज टेनेट, एफबीआई के पूर्व डायरेक्टर लुइस फ्रीच तथा यूएस होमलैंड सिक्योरिटी के तत्कालीन डायरेक्टर एडमिरल लॉय भी शामिल थे। एल1 आइडेंटिटी सॉल्यूशन्स की सेवाएं सीआईए भी लेता रहा है। आधार कार्यक्रम के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आलोक गुप्ता बाद में भारत में कैशलेस समाज बनाने को कार्यरत कैटेलिस्ट के डायरेक्टर ऑफ प्रोजेक्ट इन्क्यूबेशन बने।

इधर भारत अमेरिका के साथ अनेक सैन्य समझौते भी कर रहा है। द लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (2016) और कम्युनिकेशन कॉम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी अरेंजमेंट्स (2018) हस्ताक्षरित हो चुके हैं। बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट फ़ॉर जिओ स्पैसीएल कोऑपरेशन पर हस्ताक्षर करने की दिशा में हम अग्रसर हैं। गिरीश शहाणे का स्क्रॉल.इन में 26 सितंबर 2018 को प्रकाशित आलेख यह बताता है कि इन समझौतों पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत अमेरिकी सैन्य ढांचे पर हथियारों की आपूर्ति के लिए पूर्णतः आश्रित हो जाएगा। आने वाले वर्षों में उसके लिए रूस से हथियार खरीदना पहले कठिन और फिर असंभव हो जाएगा।

भारत पाकिस्तान के मध्य हालिया तनाव के दौरान हमारे टीवी चैनल डोनाल्ड ट्रम्प के भविष्यवक्ता रूप की चटकारे ले ले कर चर्चा करते नहीं अघाते थे। जब ट्रम्प कहते कि दोनों देशों के मध्य स्थिति गंभीर है और भारत कोई सैन्य कार्रवाई कर सकता है तब बालाकोट हो जाता और जब ट्रम्प कहते कि भारत-पाकिस्तान से आज कोई अच्छी खबर आने वाली है तो विंग कमांडर अभिनंदन की वापसी के लिए पाकिस्तान तैयार हो जाता। यह घटनाक्रम दर्शाता है कि हमारे फैसले किस तरह वाशिंगटन द्वारा तय किए जा रहे थे। पाकिस्तान तो खैर अमेरिकी सहायता का मोहताज अमेरिका का पिट्ठू देश है किंतु शीतयुद्ध के जमाने में भी दुनिया को गुटनिरपेक्षता का मार्ग दिखाने वाले भारत में आया यह बदलाव आश्चर्यजनक और दुःखद है। ट्रम्प के सत्तासीन होने के बाद से डीप स्टेट की अवधारणा चर्चा में रही है और कोई आश्चर्य नहीं यह पूरा खेल सैन्य साजोसामान बनाने वाली कंपनियों, बड़ी वित्तीय संस्थाओं आदि द्वारा रचा गया हो।

जनता को यह सोचना होगा कि उग्र राष्ट्रवाद की दुहाई देती सरकार कहीं देश को दुनिया के ताकतवर मुल्कों की बड़ी बड़ी वित्तीय संस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी की ओर तो नहीं धकेल रही है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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