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असम: चाय बागान श्रमिकों की अंतहीन दर्दगाथा

यहाँ बसने और काम करने वाले चाय श्रमिकों व उनके परिवार–समुदाय के सभी लोगों के साथ-साथ इनकी आज की पीढ़ी की मानें तो अंग्रेज़ी हुकूमत के समय जो सवाल थे, आज़ाद मुल्क में उनका कोई मुक्कमल समाधान होने की बजाय वे और भी बढ़ते और जटिल होते गए हैं।

Tea Garden

असम के तिनसुकिया क्षेत्र के चाय बगानों से लौटकर...

"चल तो मीनी आसाम जाबे, देसे बड़ो दुख रे...” अपने समय में काफी लोकप्रिय रहा यह असमी जनगीत, अपना देश छोड़कर सुदूर असम के चाय बगानों में काम करने आए श्रमिकों की एक जीवंत गाथा जैसा ही है। सदौ असम जन संस्कृति परिषद के संस्थापक अध्यक्ष रहे प्रख्यात आसामिया लोक जन गायक भूपेन हजारिका का चाय बागान के श्रमिकों पर गाया चर्चित गीत- एक कली दो पत्तियाँ (चाय की) की परंपरा के चर्चित असमी जन गायक लोकनाथ गोस्वामी के बेहद लोकप्रिय रहे उपरोक्त जनगीत में झारखंड–बंगाल और ओड़ीशा जैसे पिछड़े इलाक़ों के एक ग्रामीण ग़रीब दंपति का गीति-वार्तालाप है। जिसमें वह अपने देस (इलाक़े) में व्याप्त ग़रीबी-बेकारी से हारकर असम के चाय बागानों में काम ढूँढने जाने का प्रस्ताव रखता है। प्रकारांतर में यह गीत अपने समय में हमारे ग्रामीण समाज में व्याप्त जीविका संकटों से पलायन करने वाले आदिवासी–ग़रीबों की बेबसी की गाथा बन गया।

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कहने को तो जिस दौर में यह गीत रचा गया था, तब से स्थितियों में काफी बदलाव दिखाया और बताया ही जा सकता है। लेकिन चाय श्रमिकों के मामले में स्थितियाँ कैसे और भी बदतर हुईं हैं इसकी मिसाल हैं 70 वर्षीय आदिवासी चाय श्रमिक मगदली मुंडा की कहानी। तिनसुकिया चाय बागान क्षेत्र राजगढ़ के सरोजिनी चाय बागान से कुछ वर्ष पूर्व सेवानिवृत हुई 70 वर्षीय मागदली मुंडा ख़ुद को अपने खानदान की चौथी पीढ़ी की चाय श्रमिक बतातीं हैं । इनकी स्मृतियों की धुंधली यादों के अनुसार देश की स्वतंत्रता से भी पहले इनके आजा–आजी (दादा-दादी) को किशोरावस्था में ही झारखंड के खूंटी इलाके से कई अन्य लोगों के साथ चाय बागान के अंग्रेज़ मालिकों के ठेकेदारों द्वारा ‘चालान‘ बनाकर लाया गया था। जिसमें यह शर्त दर्ज़ थी कि किसी भी स्थिति में काम की अवधि समाप्त हुए बग़ैर वे न तो चाय बागान छोड़ सकते हैं और न ही अपने देस वापस लौट सकते हैं।

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उन्हें कितनी मज़दूरी दी जाती थी मगदली मुंडा को याद नहीं है लेकिन उनकी दादी के बताए अनुसार बाहर से लाये गए मज़दूरों को छोटे बैरकों में भेड़–बकरियों की तरह ठूंस कर रखा जाता था। सिर्फ़ दो टाइम खाना देकर घंटों बिना आराम दिये खटवाया जाता था। चाय बागान से बाहर निकलने पर पूर्ण प्रतिबंध था। कोई यदि वहाँ से भागने की कोशिश करता भी था तो अंजान इलाका होने के कारण फौरन पकड़ लिया जाता था और बागान पहरेदार–मुंशियों द्वारा उसे खूब पीटा जाता था। अंततोगत्वा सभी को चाय बागान की अमानवीय दुनिया को ही अपनी वास्तविक दुनिया मानकर जीना पड़ा। 2017 में चाय बागान से रिटायर होने वाली मगदली मुंडा जी ने बताया कि परिवार की कंगाल स्थिति के कारण 13 बरस की उम्र में ही “छोकड़ी हाजरी“ प्रतिदिन 1 रुपये मज़दूरी में काम करना पड़ा।

उन दिनों बागान मालिक द्वारा प्रति मज़दूर परिवार को प्रति सप्ताह 3 किलो अनाज और थोड़ा जलावन दिया जाता था। खाना पकाने व मिट्टी का तेल तथा मसाला इत्यादि अपने पैसे से लाना होता था। बैरेक के एक कमरे में ही पूरे परिवार को रहना पड़ता था। चाय बागान के ही अन्य मुंडा परिवार में उनकी शादी हुई जिसमें वहीं के लोग बाराती और सराती बने। मगदली जी के अनुसार आज़ादी के बाद हालात में थोड़ा सुधार तो हुआ लेकिन मजदूरी दर बढ़ाने और शिक्षा व चिकित्सा सुविधा मिलने के मामले में दिखावे के ही सुधार हुए। अलबत्ता सरकारी चाय बगानों के श्रमिकों कि स्थिति थोड़ी बेहतर हुई। कई जगहों पर सरकारी स्कूल व चिकित्सा केंद्र खुले जहां सामान्य बीमारियों की निःशुल्क दवाएं मिलने लगीं।

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चाय बागानों के पहले और अब के हालात में हुए बदलाव के बारे में पूछे जाने पर मगदली मुंडा जी को कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं नज़र आता है। हर चुनाव में वोट के पहले वादा–आश्वासन और कुछ राशन–पैसे दे दिये जाते हैं और उसके बाद कोई झाँकने तक नहीं आता है। हाल ही में सरकार द्वारा351 रुपये मजदूरी की घोषणा के बावजूद 167 रुपए मजदूरी ही मिल रही है। रहने के लिए डेढ़ कमरे का बैरेक जैसा ही जो क्वार्टर मिला है, वो खस्ताहाल और सीलन भरा है। अधिकांश जगहों पर अभी भी पूरी बिजली नहीं आयी है। बच्चों की पढ़ाई कुछेक सरकारी स्कूलों के भरोसे ही चल रही है और बेहतर व आगे की पढ़ाई के लिए निजी स्कूल हैं। बागान के अस्पतालों में सामान्य बीमारी का ही इलाज होता है, गंभीर बीमारी होने पर अपने ख़र्चे पर निजी अस्पताल जाना पड़ता है। सबसे बुरी हालत है उन परिवारों की जिनके लोग या तो बागान से रिटायर हो गयें हैं अथवा बेकार हैं या ठेका मजदूरी में काम करते हैं। इन्हें बगान क्षेत्र से बाहर लेकिन कंपनी की इजाज़त से वहीं आसपास खाली ज़मीनों पर अस्थायी झोपड़ेनुमा घर बनाकर जैसे-तैसे रहना पड़ रहा है। कभी कभार कुछ को सरकार की विकास योजनाओं का लाभ मिल जाता है। सरकार द्वारा रहवास का भूमि–पट्टा नहीं मिलने के कारण कभी भी हटाये जाने का खतरा ऐसा बना हुआ है कि यहाँ से उजड़े तो फिर कहाँ बसेंगे? चाय बगान की स्थापित यूनियनें मालिकों–सरकार की एजेंट बनीं बैठीं है और इनके अधिकांश नेता चाय मजदूरों के नाम पर अपना जुगाड़ बैठाने में ही लगे रहते हैं।

मगदली जी को अब अपनी मुंडा भाषा भी याद नहीं है क्योंकि उसे बोलने-जानने वाले लोग लगभग समाप्त हो गए हैं। चाय बगान के स्थायी निवासी बन चुके सभी आदिवासियों व अन्य श्रमिकों की एक ही भाषा है “सादरी“ जो इनकी अपनी पहचान है। अब ये अपने देस भी नहीं लौट सकते क्योंकि इनके पुरखा ही सबकुछ छोड़कर वहाँ से चले आए थे और अधिकांश को तो अपने देस का गाँव घर तक याद नहीं है। जबकि इस देस यानी असम की सरकार इन्हें आदिवासी की मान्यता ही नहीं देती। ऐसे में आदिवासी होते हुए भी अपनी क़ानूनी मान्यता से वंचित इनका सम्पूर्ण अस्तित्व ही आज चुनौतियों के चक्रव्यूह में घिरा हुआ है।

189_0.jpgमगदली मुंडा के अलावा यहाँ बसने और काम करने वाले चाय श्रमिकों व उनके परिवार–समुदाय के सभी लोगों के साथ-साथ इनकी आज की पीढ़ी की मानें तो अंग्रेज़ी हुकूमत के समय जो सवाल थे, आज़ाद मुल्क में उनका कोई मुक्कमल समाधान होने की बजाय वे और भी बढ़ते और जटिल होते गए हैं। चाय बगान के श्रमिकों की दारुण स्थितियाँ विश्व मीडिया द्वारा कई कई बार सबके सामने ध्यानार्थ लायी में गईं हैं लेकिन सरकार, नेता,स्थानीय जन प्रतिनिधियों से लेकर बगान मालिकों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है। इस तरह सब की चाय की चुस्कीयों में स्वाद भरने वाले चाय श्रमिकों की वर्तमान की ज़िंदगी और भविष्य, दोनों निरंतर बेस्वाद बने हुए हैं।

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