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असम एनआरसी : डिटेंशन सेंटर जेल से भी बदतर!

"राज्य सरकार व्यवहारिक तौर पर जेल और डिटेंशन सेंटर में कोई अंतर नहीं करती है। इसलिए डिटेनी और सामान्य अपराधी में भी कोई अंतर नहीं हो पाता है। इसलिए जेल प्राधिकरण डिटेनी पर भी जेल मैन्युअल लागू करते हैं। लेकिन जेल मैन्युअल के तहत मिलने वाले लाभों को नहीं देते हैं।" 
detention centre
image courtesy- the sentinal

असम के मामले में जब फॉरेन ट्रिब्यूनल द्वारा फॉरेनर्स एक्ट -1946 के तहत किसी को विदेशी घोषित कर दिया जाता है, तब उसे असम के छह डिटेंशन सेंटर में से किसी एक में भेज दिया जाता है। फॉरेनर्स एक्ट-1946 के तहत यह एक ऐसी जगह होती है जहां पर आवाजाही पर प्रतिबन्ध लगा रहता है, एक नियत अवधि के बाद अथॉरिटी से अनुमति लेनी पड़ती है। यहां पर रहने वाले लोगों को दूसरे लोगों से मिलने-जुलने की अनुमति नहीं होती है, कुछ कामों को करने की अनुमति नहीं होती है। ऐसी जगहों को डिटेंशन सेंटर कहा जाता है। इसलिए किसी भी जगह को इन नियमों को लागू करते हुए अथॉरिटी डिटेंशन सेंटर में तब्दील कर सकती है।

नियम के तहत कहा जाए तो यह कस्टडी की तरह नहीं होता है। यह नॉन कस्टोडियल विकल्पों की तरह होता है। इसमें व्यक्तिगत अधिकारों को उस तरह से नहीं छीना जाता जिस तरह से कस्टडी में छिना जाता है। फिर भी अथॉरिटी को यह अधिकार हासिल होता है कि वह इसे कस्टडियल स्थिति में बदल दे।व्यवहार में फॉरेन ट्रिब्यूनल डिटेंशन सेंटर का इस्तेमाल हर उस व्यक्ति को रखने के लिए करते हैं,जो अपनी नागरिकता को साबित नहीं कर पाते हैं। जिन्हें दूसरे देश  स्वीकार नहीं करते हैं। यानी एनआरसी की अंतिम लिस्ट में बाहर हुए लोग जब अपील सबंधी सारी संस्थाओं की मदद लेने के बाद भी अपनी नागरिकता साबित करने में असफल रहेंगे तो उन्हें डिटेंशन सेंटर ही भेजा जाएगा। इसकी सम्भावना सबसे अधिक है।

साल 2012 में असम के तीन जगहों पर डिटेंशन सेंटर थे - गोलपारा ,कोकराझार और सिल्चर। बाद में जाकर इसमें तीन और जोड़े गए - तेजपूर , जोरहाट और डिब्रूगढ़।  फॉरेनर्स एक्ट के तहत किसी को डिटेन करने की कोई नियत अवधि नहीं होती है। यानी यह तय नहीं है कि  किसी को कब तक डिटेंशन सेंटर में रखा जा सकता है।

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डिटेंशन के विषय पर काम कर रहे संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यकारी समूह का मानना है कि अवैध प्रवासियों का डिटेंशन किसी तरह का नियम होने की बजाय अपवाद होना चाहिए। यानी ऐसी स्थितियों में किसी को डिटेन किया जाए जब डिटेंशन के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं हो। और किसी को जिंदगी भर के लिए डिटेन कर लिया जाए, वह उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन है। 

डिटेंशन सेंटर से मिले आंकड़ें बताते हैं कि असम में साल 2009 से ही बहुत लोग डिटेंशन सेंटर में बंद है। 33 फीसदी लोग दो साल से अधिक समय से बंद है। साल 2015 के बाद,जब से सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी की कार्रवाई शुरू हुई है, डिटेंशन सेंटर में सलाना औसत से ज्यादा लोगों को बंद किया गया। यहाँ पर बंद बहुत सारे लोग मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं।

दस्तावेज़ न होने से नागरिकता नहीं दिए जाने से जुड़ी प्रक्रिया की वजह से ऐसा भी देखने को मिलता है पति- पत्नी एक ही डिटेंशन सेंटर में नहीं रहते हैं। अलग-अलग डिटेंशन सेंटर में चले जाते हैं। इसे ऐसे समझिए कि पति ने अपनी नागरिकता पहले गंवा दी, बाद में पत्नी ने नागरिकता गँवा दी। यानी ऐसा भी देखने को मिला है कि पति तेजपुर के डिटेंशन सेंटर में हैं और पत्नी गोलपारा के डिटेंशन सेंटर में। सोचकर देखिये कि यह कितना दर्दनाक है कि दस्तावेज न होने की वजह से नागरिकता चली जाए और नागरिकता चले जाने के बाद दंपति साथ-साथ न रह पाए। ऐसे में बच्चों के साथ सबसे अधिक नाइंसाफी होती है। अवैध अप्रवास की वजह से बच्चों को भी डिटेंशन सेंटर में रखा जाता है और छह साल बीत जाने के बाद उन्हें अपने माँ - बाप से अलग रखा जाता है। मानवाधिकारों के लिहाज से देखें तो बच्चों को डिटेंशन सेंटर में रखना बहुत बड़ा अपराध लगता है। साफ तौर पर दिखता है कि उन्हें एक ऐसे अपराध की सजा दी जा रही है, जो उन्होंने किया ही नहीं। गर्भधारण किए हुए औरत को भी रियायत नहीं दी जाती है। उन्हें भी डिटेंशन सेंटर में ही रहना पड़ता है।

डिटेंशन में रखे हुए लोगों को डिपोर्ट भी करना होता है। यानी उस देश के हवाले कर देना जिस देश से वे आएं हैं। असम की सीमा बंगालदेश से जुडी हुई है। इसलिए जब भी कोई बंगाली मुस्लिम अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाता है तो उसे स्वाभाविक तौर पर बांग्लादेशी मान लिया जाता है। यह स्थिति स्थानीय जनता में धारणा की तरह बैठ चुकी है। हर एक बंगाली मुस्लिम आम जनता में बांग्लादेशी होने की छाप लेकर चलता रहता है। 

यूएन की रिपोर्ट कहती है कि फॉरेन ट्रिब्यूनल भी मुस्लिमों के साथ ऐसा ही रुख अपनाते हैं। अगर किसी मुस्लिम की नागरिकता शक के घेरे में हैं। तो बहुत कम मामलों में ऐसा हो पाता है कि वह उन्हें मुस्लिम मानने की धारणाओं से मुक्त मानें। साल 2013 के मोसलेम मंडल बनाम स्टेट ऑफ़ असम के मामलें में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने यह फैसला दिया कि किसी व्यक्ति को दस्तवेजों के अभाव में नागरिकता से दूर रखने की स्थिति या विदेशी घोषित कर दिए जाने की स्थिति में उसे दो महीने के अंदर दूसरे देश को सौंप यानी डिपोर्ट कर दिया जाएगा। 

असम सनमिलिशिया बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि विदेशी घोषित किये हुए लोगों की लिस्ट भारत सरकार के गृह मंत्रालय को भेजी जाएगी। मंत्रालय इसे विदेश मंत्रालय को भेजेगा। विदेश मंत्रालय इस लिस्ट को बांग्लादेश सरकार को भेजगी। बांग्लादेश सरकार लिस्ट में दिए गए नामों की छानबीन करेगी। उसके बाद ही लोगों को लेने के लिए तैयार होगी। असलियत यह है कि अवैध प्रवासी घोषित हो जाने पर अभी तक बांग्लादेश में भेजे गए लोगों की संख्या बहुत कम है। ख़बर भी है कि हाल-फिलहाल अवैध प्रवासियों को बाहर भेजने से जुड़ा बांग्लादेश के साथ ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ है। इसलिए एनआरसी की अंतिम लिस्ट के तहत बाहर हुए लोगों में से जो लोग अपील संबंधी सारी अधिकारिता खत्म करने के बाद भी अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे तो उनके साथ क्या होगा? अभी इस पर बस कयास लगाए जा रहे हैं, इसपर कोई निश्चित व्यवस्था सामने नहीं दिखती है। 

सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने असम के डिटेंशन सेंटर में जाकर इस पर रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट को उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भेजा। उनसे न्यूज़क्लिक ने बात की। हर्ष मंदर ने बताया कि डिटेंशन सेंटर में जिस तरह से लोगों को भेजा जाता है, उसमें किसी तरह की यथोचित प्रक्रिया नहीं अपनायी जाती है। संदिग्ध वोटर और विदेशियों से किस तरह से व्यवहार किया जाएगा, इसके बारे में भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। जेल में बच्चों और कैदियों के साथ कुछ कोड (नियम) का पालन किया जाता है लेकिन डिटेंशन सेंटर में ऐसा नहीं है। उनके साथ क्या होगा जिन्हें बांग्लादेश अपनाने से मना कर देगा,क्या उन्हें जिंदगी भर डिटेंशन सेंटर में रहना पड़ेगा। क्या यह संवैधनिक और न्यायिक है? राज्य सरकार व्यवहारिक तौर पर जेल और डिटेंशन सेंटर में कोई अंतर नहीं करती है। इसलिए डिटेनी और सामान्य अपराधी में भी कोई अन्तर नहीं हो पाता है। इसलिए जेल प्राधिकरण डिटेनी पर भी जेल मैन्युअल लागू करते हैं। लेकिन जेल मैन्युअल के तहत मिलने वाले लाभों को नहीं देते हैं। जैसे कि पैरोल ,काम करने पर मज़दूरी  आदि। केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा डिटेंशन सेंटर के लिए कोई मैनुएल नहीं बनाया गया है। इसलिए न्याययिक तौर पर तो नहीं लेकिन व्यवहारिक तौर पर डिटेंशन सेंटर में जेल का मैन्युएल का इस्तेमाल होता है। इस तरह से नागरिकता न साबित करने वाले लोगों के साथ अपराधियों की तरह बर्ताव किया जाता है। लेकिन अपराधियों को जो सहूलियत दी जाती है, वह डिटेंशन सेंटर में रहने वाले लोगों को नहीं दी जाती है। कहने का मतलब यह है कि डिटेंशन सेंटर की स्थिति जेल से भी बदतर होती है।

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