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डिटेंशन सेंटर्स को स्कूल या अस्पताल बनाया जाए

प्रधानमंत्री की ओर से किये गए दावों की जाँच के लिए फ़रवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली के राजघाट से असम में गोलपाड़ा के माटिया तक की यात्रा का आयोजन किया गया था।
डिटेंशन सेंटर्स
पेशे से मज़दूरी करने वाली सरोजिनी हाजोंग जिनका नाम भी असम की एनआरसी की अंतिम सूची से बाहर पाया गया है, की एक ऐसे ही निर्माणाधीन डिटेंशन सेंटर के सामने से ली गई एक तस्वीर (रायटर्स)

दिल्ली चुनावों से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रामलीला मैदान से ऐलान किया था कि देश में एक भी डिटेंशन सेंटर मौजूद नहीं है। यह बात उन्होंने देशभर में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) के ख़िलाफ़ जारी आंदोलनों के मद्देनज़र कही थी। लेकिन मीडिया द्वारा पेश की गई रिपोर्टों में असम की कई जेलों में इस प्रकार के अस्थाई डिटेंशन सेंटरों के चलाए जाने की ख़बरें पहले से मौजूद थीं। इसके अलावा इस बात की भी जानकारी मिल रही थी कि असम के गोआलपाड़ा में एक स्थायी डिटेंशन सेंटर के निर्माण का काम भी जारी है। 19 फरवरी को जब मेधा पाटकर के साथ मैंने गुवाहाटी की जेल में बंद कार्यकर्ता अखिल गोगोई से भेंट की तो वहाँ के नोटिस बोर्ड पर हमें सात “विदेशियों” के बंदी बनाए जाने की सूचना देखने को मिली। फिर हमने बिहार में बैठकर योजना बनाई कि फरवरी के अंतिम सप्ताह में प्रधानमंत्री के दावों की सच्चाई जानने के लिए दिल्ली में राजघाट से गोआलपाड़ा के माटिया तक की यात्रा का आयोजन किया जाए। यह तय पाया गया कि यात्रा के अंत में निर्माणाधीन डिटेंशन सेंटर के बाहर एक मानव श्रृंखला निर्मित की जाए।

ढेर सारे अनुत्तरित सवाल हैं जिनका जवाब अभी दिया जाना बाकी है। मान लीजिये यदि यदि कोई अपनी नागरिकता साबित करने में असमर्थ पाया जाता है, तो क्या यह इतना बड़ा अपराध माना जाना चाहिए कि उसे जेल में ठूंस दिया जाए? और यदि जेल में भी डाला जाता है तो आख़िर कितने समय के लिए? यह तो स्पष्ट है कि “उम्र क़ैद” की सज़ा की भी अपनी एक मीयाद होती है और किसी को ताउम्र सलाखों के पीछे तो रखा नहीं जा सकता। तो फिर जिन्हें घुसपैठिये घोषित कर दिया जाएगा उन “विदेशी” नागरिकों का क्या होने जा रहा है, जब वे जेल की अपनी मीयाद पूरी कर लेंगे? या जिन्हें किन्हीं भी कारणों देश निकाला नहीं किया जा सकता, उनका क्या करने जा रहे हैं? अभी तो प्रश्न यह भी बना हुआ है कि उन हिंदुओं, सिखों, ईसाईयों, बौद्धों, जैनियों और पारसियों का क्या होगा जो सीएए के तहत नागरिकता पाने के हक़दार तो हैं, लेकिन यदि वे यह साबित कर पाने में अक्षम रहे कि 2014 से पहले वे बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान से भारत में शरण लेने के लिए भाग कर आए हैं तो उनके साथ क्या होने जा रहा है? ऐसा जान पड़ता है कि इन बेहद पेचीदा पहलुओं पर गहराई से विचार ही नहीं किया गया है। इनके लिए मोटे तौर पर एक बेहद आसान समाधान शायद सोच रखा गया है- कि यदि वे चाहें तो इस प्रकार के सभी “ग़ैरक़ानूनी” घुसपैठियों के मताधिकार को छीनकर उन्हें वर्क-परमिट के आधार पर काम करने की छूट दी जा सकती है।

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असम के गोआलपाड़ा में निर्माणाधीन डिटेंशन सेंटर की तस्वीर (रायटर्स)

दिल्ली से असम की इस यात्रा का आयोजन खुदाई खिदमतगार, नेशनल अलायन्स ऑफ़ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम), जस्टिस फोरम-असम और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) द्वारा किया गया, जिसमें देश के आठ विभिन्न राज्यों के 18 यात्री शामिल थे। 23 फरवरी से यह यात्रा राजघाट से शुरू हुई लेकिन जैसे ही इसने अलीगढ की सीमा में प्रवेश किया, इसे उत्तरप्रदेश की पुलिस द्वारा रोक दिया गया। पहले तो यूपी प्रशासन ने साफ़ मना कर दिया कि यह यात्रा अलीगढ और मथुरा से होकर नहीं गुज़र सकती। लेकिन अंत में इस शर्त पर राज़ी हुई कि कि यात्रा के दौरान इसके बिहार की सीमा में प्रवेश करने तक किसी भी प्रकार की सभा आयोजित नहीं की जाएगी। और इस प्रकार से हमें कानपुर की ओर जाने की अनुमति दे दी गई। कानपुर में जो हमारे स्थानीय स्वागतकर्ता थे उनपर पुलिस का दबाव था कि इस यात्रा को यहाँ पर रात्रि विश्राम के लिए न रुकने दिया जाए। और यात्रियों को तकरीबन कैदियों वाली स्थिति में रखते हुए लगातार निगाह बनाए रखी गई। यहाँ तक कि बस ड्राईवर तक को पुलिस थाने में ले जाकर पूछताछ की गई। अगले दिन जब यात्रा वहाँ से निकली तो रास्ते में पड़ने वाले गाँव नागपुर में जो कि नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में पड़ने वाला उनका गोद लिया हुआ गाँव है, में रुकने की अनुमति नहीं दी गई। अगली रात तक यह यात्रा चंदौली से होते हुए यूपी की सीमा पार कर बिहार के रोहतास पहुँच चुकी थी।

बिहार में यह यात्रा बिना किसी रोक-टोक के जारी रही और इसने पटना, लखमिनिया, जलकौउरा का दौरा किया और बेगूसराय, नारायणपुर और भागलपुर के खारिक में दो-दो सभाएं कीं। पश्चिम बंगाल में पहुँचने पर इस यात्रा को अलीपुरदुआर के समुकतला से आगे जाने पर रोक लगा दी गई। लेकिन जब पुलिस से इस बात को लेकर बहस की गई कि पश्चिम बंगाल विधानसभा में सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित हो चुका है, तब कहीं जाकर असम सीमा की ओर प्रस्थान की अनुमति मिल पाई।

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निर्माणाधीन गोआलपाड़ा डिटेंशन सेंटर (रायटर्स)

श्रीरामपुर बॉर्डर पर अर्धसैनिक बलों के साथ-साथ भारी संख्या में पुलिस का बन्दोबस्त किया गया था। पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार और असम के कोकराझाड़ की सीमा के दोनों ओर मीडिया की भी उपस्थिति बनी हुई थी। हमें सूचित किया गया कि असम के कोकराझार, धुबरी और गोआलपारा के इन तीनों जिलों में सीआरपीसी की धारा 144 लागू है, और हमें यहाँ से वापस लौटना होगा। मजेदार तथ्य ये है कि मौके की नज़ाकत को देखते हुए गोआलपारा के जिलाधिकारी ने अपने आधिकारिक बयान में पीएम के दावे को खारिज करते हुए इस बात को स्वीकार किया कि असम के माटिया में वाकई में “डिटेंशन सेंटर (निर्माणाधीन)” का काम जारी है, और यहाँ पर मानव श्रृंखला के निर्माण की अनुमति नहीं दी जा सकती। इसके जवाब में यात्रा में शामिल कार्यकर्ताओं की ओर से माँग रखी गई कि पीएम के बयान को सच साबित करने के लिए गोआलपारा में जिस डिटेंशन सेंटर का काम निर्माणाधीन है, या देश के किसी भी अन्य स्थानों पर इस तरह के काम चल रहे हैं, उन्हें स्कूलों या अस्पतालों में तब्दील किया जाए। 

यात्रियों ने अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी, अपने ही देश में स्वतंत्रतापूर्वक बिना रोक टोक के आने जाने की आज़ादी और शांतिपूर्ण एक जगह इकट्ठा होने की आज़ादी जैसे बुनियादी अधिकारों की अपनी माँगों को दोहराया। लेकिन प्रशासन ने भी तय कर रखा था कि यात्रा को असम में प्रवेश नहीं करने देना है। यात्रियों के पास भी धारा 144 की अवज्ञा करने और गिरफ्तारी देने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था। शाम को जाकर हमें रिहा किया गया। इन सबके बावजूद जिन कार्यकर्ताओं ने इस यात्रा में हिस्सा लिया था, उन्होंने तय किया कि अदालत से आदेश हासिल करने की सूरत में वे जल्द ही एक बार फिर से माटिया डिटेंशन सेंटर पर इकट्ठा होकर रहेंगे। जहाँ तक असम के जनजातीय लोगों की भावना का प्रश्न है तो हमें उसका सम्मान करना चाहिए। लेकिन हमें इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि यदि कुछ नागरिक अपनी नागरिकता को साबित नहीं कर पाने की हालत में पाए जाते हैं तो उसका समाधान डिटेंशन सेंटर्स तो कतई नहीं होने जा रहा। इसके बजाय यदि असम की स्थानीय आबादी को लगता है कि गैर-असमिया लोगों की उपस्थिति से वहाँ के संसाधनों, खासकर भूमि पर काफ़ी बोझ पड़ रहा है, तो ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वो असम के जनजातीय लोगों को सुरक्षित महसूस कराने के लिए, असम में बसे बंगाली भाषी आबादी को देश के दूसरे हिस्सों में पुनर्स्थापित करने के इंतज़ामात करे।

संदीप पाण्डेय एक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और रेमोन मैग्सेसे विजेता हैं। वह सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) से संबद्ध हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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