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असम चुनाव: शुरू में जनता का रुख भाजपा सरकार के खिलाफ होने के बावजूद वह क्यों जीत गई ?

यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बाद में घटी घटनाओं का एक मिश्रण था, जिसमें भाजपा विरोधी कई दलों का एक साथ मैदान में उतरना और उम्मीदवारी से जुड़े मुद्दों का उभरना था।
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एक महीने पहले एनडीए की बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियों के आयोजन के बाद भी कई लोगों के लिए यह सोचना लगभग  नामुमकिन था कि असम में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) राज्य में फिर से सरकार बना लेगा। 

भाजपा सरकार राज्य में लगातार सत्ता विरोधी विरोध का सामना कर रही थी जिसमें सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के खिलाफ लोगों का सड़कों पर आना, भारी भ्रष्टाचार के आरोप, जैसे कि महिलाओं के लिए बनी अरुणोदय योजना में भरष्टाचार, असम पुलिस सब-इंस्पेक्टर (एसआई) नौकरी घोटाला, कथित पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग (P& RD) में नौकरी घोटाला आदि जनता के सर चढ़कर बोल रहे थे और राज्य में आंदोलन चल रहे थे। सरकार कई मोर्चों पर वादों को पूरा करने में विफल रही - जिसमें लोगो को स्थायी भूमि दस्तावेज़ उपलब्ध कराने में विफलता, भारी और छोटे उद्योगों का बंद होना, चाय बगानों में लगे आदिवासियों की जरूरतों को पूरा न कर पाना, और हवाई अड्डों और अन्य उद्योगों को निजी खिलाड़ियों को बेचना शामिल है। तो फिर इस सब के बावजूद, भाजपा नेतृत्व वाला गठबंधन, यानी मित्ररजोत कैसे सत्ता को बरकरार रखने में कामयाब हो गया?

कई सवाल उठते हैं, सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह कि आखिर महाजोत के साथ ऐसा क्या गलत हुआ, जो कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में 10 पार्टियों का नया महागठबंधन, जो मुख्य रूप से ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) और बोडो पीपुल्स फ्रंट (BPF) के गठबंधन से बना था। 

इसके अलावा, सीएए-विरोधी आंदोलनों से बने नए क्षेत्रीय दलों की भी विफलता रही - जैसे असम जनता परिषद (एजेपी) और रायजोर दल (आरडी) - जाहिर तौर पर असमिया राष्ट्रवाद की भावना उनकी रीढ़ था, जो एक और सवाल खड़ा करता हैं कि क्या भाजपा की जीत का मतलब असम में पहचान की राजनीति की मौत है। 

एक साथ कई दल मैदान में 

नंबर कभी झूठ नहीं बोलते। असम विधानसभा की कुल 126 सीटों में से भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 75 सीटें जीतीं हैं, जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगियों को केवल 50 सीटें मिलीं हैं। हालाँकि, संख्याओं से परे की बात यह है कि इस बार चुनाव के मैदान में बहुत सारे दल थे – और सभी बीजेपी का विरोध कर रहे थे।

कम से कम तीन प्रमुख दल पहली बार चुनाव मैदान में थे। ये ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और असोम जातीयबादी युबा-छात्र परिषद (AJYCP) और असम जनता पार्टी थे, फिर  जेल में बंद किसान नेता अखिल गोगोई की राइजोर दल भी मैदान में था जिसका समर्थन करीब  70 संगठन कर रहे थे, और फिर पत्रकार से राज्य सभा बने सांसद अजीत भुइयां की पार्टी आंचलिक गण मोर्चा भी मैदान में थी जिसका गठबंधन कांग्रेस, एआईयूडीएफ, बीपीएफ और वामपंथी दलों से था। 

इस चुनाव की दिलचस्प बात यह रही कि भाजपा का लगातार विरोध करने वाले दल दो खेमों में बंटे थे। जबकि कांग्रेस की अगुवाई वाले 10 पार्टी के महागठबंधन ने एजेपी और रायजोर दल से कई बार महाजोत में शामिल होने की अपील की, लेकिन दोनों सीए-विरोधी दलों ने राष्ट्रीय पार्टी या 'सांप्रदायिक पार्टी', जैसे एआईयूडीएफ के साथ किसी भी तरह के गठबंधन को खारिज कर दिया था। इसने इन दलों को दो खेमों में बांट दिया – और दोनों ने भाजपा का विरोध किया और साथ ही साथ एक-दूसरे के विरोध में भी चुनाव लड़े। 

आखिर में एजेपी और आरडी खुद  ही आपस में सीट का बंटवारा नहीं कर पाए। चुनाव परिणामों से पता चलता है कि कम से कम 13 विधानसभा सीटों पर, एजेपी या दोनों क्षेत्रीय दलों के संयुक्त वोट ने कांग्रेस के वोट या बीपीएफ में से किसी एक के वोट को हजम कर लिया। अगर इन 13 सीटों को जोड़ा जाए तो कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 63 सीटें मिल सकती थीं, न कि मौजूदा 50 सीट। 
इन 13 सीटों के अलावा, छह और सीटें ऐसी हैं, जिनमें एजेपी और आरडी, और असोम गण परिषद (एजीपी) या फिर भाजपा के डमी निर्दलीय उम्मीदवार, या फिर एक मामले में, यहां तक कि एनडीए की सहायक पार्टी उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जो मैदान में थी ने महाजोत के वोट खा लिए।

राज्य में अब इस तरह की राय बन रही है कि अगर ये दो दल नहीं होते तो महाजोत वास्तव में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ देता। हालांकि, इस बाइनरी से आगे क्या होता या नहीं क्या हो सकता है, कहना मुश्किल है लेकिन यह कहना सुरक्षित है कि बहुत से उम्मीदवारों के मैदान में होने मतदाता भ्रमित हुए, जिसका फायदा भाजपा को मिला।

पहचान की राजनीति के बादल 

यह सवाल कि क्या असम की पहचान की राजनीति जो सीएए-विरोधी आंदोलन से निकली थी क्या वह मर चुकी है, यह कहा जा सकता है कि पहचान की राजनीति के कई चेहरे अभी भी मौजूद हैं। चुनावों से पहले, भाजपा ने सरकार को ऊपर से लेकर नीचे तक दी गई आर्थिक सहायता या उनकी मांग मानने का लाभ मिला, जिसके तहत चाय बगानों में काम करने वाले आदिवासी या वे छह समुदाय शामिल हैं जो अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा मांग रहे थे। हालांकि, नीचे ज़मीन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपना काम कर रहा था, चाय बागानों और चार नदी (बालू वाली नदी) क्षेत्रों में उनका काम जारी था, जैसे कि माजुली में एकल विद्यालय स्थापित करना आदि।

इस बीच, कांग्रेस मूक दर्शक बनी रही, और कुछ नहीं किया बल्कि चाय बगानों में काम करने वाले आदिवासियों के वेतन को दोगुना करने का वादा भी अंतिम मिनट में किया गया, लेकिन भूमि दस्तावेज़ों, बाढ़ की विनाशकारी भूमि, या वे भूमि दस्तावेज़ जो कि सीधे तौर पर असम  की पहचान की राजनीति से जुड़े हुए थे पर चुप रही। 

भाजपा ने आदिवासियों के ऊपरी तबके को खुश करने के लिए स्वायत्त निकायों का संरक्षण और उनका निर्माण करके जनजातियों के बड़े हिस्से को सुन्न कर दिया, जैसे कि कांग्रेस ने अतीत में किया था, इस प्रकार उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने से आदिवासियों में सरकार के खिलाफ़ गुस्सा कम हो गया। एक तरह से, पहचान की राजनित का एहसास वास्तव में इस दौर के चुनावों में कुछ ज्यादा नहीं हो सका, क्योंकि चुनाव से पहले ही ये काम किए जा चुके थे।

सीएए-विरोधी आंदोलन भी कोई खास मुद्दा नहीं बन पाया क्योंकि कोविड-19 के संकट की लहर चुनाव आते-आते समाप्त हो गई थी, जिसने यह संकेत दिया कि ऐसा भाजपा के मजबूत स्वास्थ्य मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के बेहतर प्रबंधन की वजह से हुआ है। भगवा पार्टी ने बोडोलैंड इलाके की यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) को अपने साथ लेकर बीपीएफ जैसे खिलाड़ियों को अलग-थलग कर उसकी हवा निकाल दी थी। 

इसी का नतीजा है कि यूपीपीएल ने विधानसभा चुनावों में छः सीटों पर कब्जा कर लिया, यह दिसंबर 2020 में भाजपा के साथ बोडोलैंड में अपनी गठबंधन सरकार के गठन के बाद हुआ।

एजेपी और आरडी ने सीए-विरोधी भावना को लेकर भजापा को पछाड़ने की पूरी कोशिश की, लेकिन अखिल गोगोई की अनुपस्थिति हर जगह महसूस की गई और आरडी के अभियान पर इसका असर पड़ा। जबकि एजेपी को लोगों के वोट का एक हिस्सा मिला, लेकिन वह इस वोट के जरिए कोई सफलता हासिल नहीं कर पाई। 

भाजपा की ध्रुवीकरण की कोशिश 

असम में मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की भाजपा की कोशिश के तहत उसने इत्र विक्रेता बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ पर निशाना साधा। यह 2016 के विधानसभा चुनावों के दौरान भी हुआ था कि पार्टी ने एआईयूडीएफ को "मिया" पार्टी या स्पष्ट रूप से बांग्लादेशियों की 'पार्टी' कहना शुरू कर दिया था, असमिया घुसपैठ फ़ोबिया और धर्म को हुकूमत का दुश्मन बनाने के उपकरण के रूप में ऐसा किया गया। 

इस बार, हिमंत बिस्वा सरमा ने अक्टूबर 2020 की शुरुआत में अपने आरोपो की शुरुवात करते हुए कहा कि राज्य की 35 प्रतिशत ‘आबादी' समुदाय के आधार पर 65 प्रतिशत आबादी में   विभाजन पैदा करना चाह रही है। राज्य की मुस्लिम आबादी 34.22 प्रतिशत है।
सीएम सर्बानंद सोनोवाल द्वारा मुसलमानों को "मुगलों के वंशज" के रूप में संदर्भित किया गया, फिर सरमा ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों को "बाबर के वंशज" कहा, और विवादास्पद कदम का हवाला दिया जिसमें उन्होने मदरसों को स्कूलों में बदल दिया था।

दरअसल, 2016 में, यह फिर से ये सरमा ही थे जिन्होने मुगलों के खिलाफ अहोम जनरल लछित बोरोफुकन की बहादुरी की याद दिलाते हुए 2016 के चुनाव अभियान की शुरुआत की थी और चुनाव को ‘सरायघाट की आखरी लड़ाई’ कहा था। जिसमें उन्होने इस प्रसिद्ध लड़ाई को हिंदुत्व के ताने-बाने से जोड़ते हुए, असम में हिंदुत्व-प्लस-नस्लवादी राजनीति का एक नया ब्रांड पेश किया, जिसके मूल में बांग्लादेशी थे। 

जबकि भाजपा विकास के अपने वादे पर सवार थी, इस प्रकार असम में मतदाताओं ने कांग्रेस की स्थिर और पक्षपाती राजनीति का विकल्प ढूंढ लिया था। हालांकि, पांच साल बाद, भाजपा अपने वादे पूरे करने में विफल रही, असम में सीएए-विरोधी भावना के साथ यह दिखाई देने लगा था कि भाजपा सरकार को उखाड़ने का समय आ गया है। 

लेकिन, नई राजनीतिक पार्टियों को बनने वक़्त बहुत लग गया। इस दौरान, भाजपा ने एक बार फिर से एआईयूडीएफ को आसान लक्ष्य बनाया और क्षेत्रीयता और हिंदुत्व को मिलाने के अपने जाँचे सूत्र का सहारा लिया। इस बार उनके लिए यह और भी आसान था क्योंकि कांग्रेस एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन में थी। 

असमियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स या एनआरसी के परिणाम से असंतुष्ट है, उन्हे भी कथित बांग्लादेशियों के खिलाफ सरमा के आरोप घड़ने से राहत मिली, जिसके परिणामस्वरूप लगता है भाजपा के वोट शेयर में बढ़ोतरी हुई - क्योंकि भगवा पार्टी न केवल अपने दम पर 60 सीटें जीत पाई बल्कि वोट शेयर में 3.70 प्रतिशत का इजाफा भी कर पाई। भाजपा का वोट शेयर 2016 के 29.51 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 33.21 प्रतिशत हो गया। कांग्रेस, एआईयूडीएफ और बीपीएफ सहित अन्य सभी दलों के वोट शेयरों में कमी देखी गई। 

ध्रुवीकरण की राजनीति के संदर्भ में, हालांकि, एआईयूडीएफ का भी योगदान है। पार्टी प्रमुख अजमल ने 21 जनवरी को धुबरी जिले के गौरीपुर निर्वाचन क्षेत्र में एक रैली को संबोधित करते हुए कथित तौर पर कहा था कि: "भाजपा ने देश भर में 3,500 मस्जिदों को सूचीबद्ध किया है और 2024 के चुनावों में अगली सरकार बनने पर वे सभी को ध्वस्त कर देंगे।"

उनकी टिप्पणी से तुरंत बहस छिड़ गई, 24 जनवरी को नलबाड़ी में भाजपा के "विजय संकल्प समरोह" में भगवान राम का आह्वान करते हुए सरमा ने अजमल और पूरे विपक्ष को हराने का आह्वान किया। 

दिलचस्प बात यह है कि एआईयूडीएफ के वोट शेयर में 2016 के बाद से 3.76 प्रतिशत की गिरावट आई है, हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों में उसे इस बार की 13 सीटों की बजाय 16 सीटें मिलीं थी।

भाजपा की सड़क और पुल की 'लाभकारी राजनीति'  

केंद्र और राज्य दोनों की तरफ से कई योजनाओं लैस, भगवा पार्टी ने असम में एक नए तरह का वोट बैंक बनाया है। सरमा, कांग्रेस मंत्रालय में शिक्षा मंत्री थे, उन्होने अपने कार्यकाल के दौरान ही लैपटॉप बांटना शुरू कर दिया था और भाजपा कार्यकाल के दौरान भी उसने इस योजना को जारी रखा, जहां अब उनके पास अधिक शक्ति है। इसलिए, उसने योजनाओं का एक तानाबाना पेश किया - जिसमें मैट्रिक पास लड़कियों को स्कूटी देने से लेकर, ग्रामीण महिलाओं के लिए अरुणोदय योजना, गर्भवती चाय आदिवासी महिलाओं को 12,000 रुपये की सहायता,  भूमि दस्तावेज़ों को देने के साथ इस प्रकार के लाभार्थियों का समूह तैयार किया जो अब हिताधिकारी राजनीति के नाम से प्रसिद्ध है।

भले ही इन योजनाओं में से अधिकांश भ्रष्टाचार का निवाला बन गई हैं, लेकिन एक प्रमुख धारणा है कि सरमा ने बहुत काम किया है। लाभार्थियों को तैयार करने की उनकी राजनीति के अलावा, लोगों को बहस में व्यस्त रखने से किसे क्या हासिल हुआ, सरमा शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) शिक्षकों के बीच भी लोकप्रिय हैं। चुनाव से ठीक पहले, 6 फरवरी को, सरमा ने 29,000 से अधिक शिक्षकों को नियमित नौकरी दे दी थी।

इसके अलावा, 12 सितंबर, 2020 को, सरमा ने लगभग 12,000 करोड़ रुपये के बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाओं की घोषणा की - जिसमें कॉलेजों के निर्माण से लेकर सड़कें बनाने तक की योजानाएं शामिल हैं - जिनमें से कई, अभी भी लंबित हैं या काम चल रहा हैं।

 ये परियोजनाएं, चाहे समाप्त हो गई हैं या नहीं, ने भाजपा को कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन से बढ़त दिला दी। काम को अधूरा रखना, जैसे जोरहाट से माजुली तक पुल के निर्माण का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ है, स्पष्ट रूप से मतदाताओं से यह अधिक समय, एक और कार्यकाल की मांग करता है।

कॉंग्रेस का देर से जागना; एआईयूडीएफ का उम्मीदवारों का चयन

दूसरी तरफ विपक्षी कांग्रेस पार्टी भीतरी दरार से टकरा रही थी, और इस साल जनवरी में पार्टी में दरार की अफवाहें आम थी। पिछले पांच वर्षों में, पार्टी कई मोर्चों में विभाजित रही है। इन सभी दरारों और गुटों ने कांग्रेस को हाल ही में तब तक व्यस्त रखा जब तक पार्टी की केंद्रीय कार्यकारिणी ने अपने एक महासचिव जितेंद्र सिंह को राज्य कार्यकारिणी के भीतर दरारों को कम करने के लिए नहीं भेजा, साथ ही छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल ने भी अपना राज्य छोड़ असम कांग्रेस को समझाने में तीन महीने लगाए।
 
इससे पहले कांग्रेस सुस्त स्थिति में थी और राज्य में हिंदुस्तान पेपर कॉरपोरेशन लिमिटेड की दो इकाइयों के बंद होने, राज्य की खराब शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से संबंधित मुद्दों, भ्रष्टाचार के मुद्दों जैसे कई मुद्दों पर आंदोलन करने या आवाज़ उठाने में विफल रही, या यहां तक कि बाढ़ या भूमि दस्तावेज़ संबंधित मुद्दे भी नहीं उठा पाई। पिछले पांच वर्षों में, पार्टी सीएए पर भी कड़ा रुख अपनाने में विफल रही।

यहां तक कि सीट बंटवारे के दौरान उसने बीपीएफ या एआईयूडीएफ को जीतने वाली निश्चित सीटें दे दी। उदाहरण के लिए, निचले असम निर्वाचन क्षेत्र बिज़नी को एक प्रतिष्ठित पत्रकार, जमशेद अली को हटकर बीपीएफ उम्मीदवार कमल सिंह नारज़री के लिए छोड़ दिया गया। अली यहां यूपीपीएल में शामिल हो गए और महाजोत यह सीट हार गई।

कई लोगों ने आरोप लगाया कि उम्मीदवारी बांटने के लिए एआईयूडीएफ प्रमुख अजमल पैसा ले रहे हैं। इसने उनके कई जिला स्तरीय कैडरों को यहां तक कि एआईयूडीएफ पार्टी कार्यालयों, जैसे हैलाकांडी में बर्बरता करने के लिए प्रेरित किया। हालांकि, बावजूद इसके एआईयूडीएफ, हेलाकांडी  की सभी तीन सीटें जीतने में कामयाब रही।

महाजोत के लिए बंगाली लैंड बराक घाटी हल्की कामयाबी की रेखा बनी  

कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों के लिए, हल्की कामयाबी की रेखा बंगाली बहुल बराक घाटी बनी,  जहां दोनों पार्टियों ने 2016 की तुलना में अधिक सीटें जीतीं हैं। कांग्रेस ने बराक घाटी की 15 सीटों में से चार सीटें जीती, जबकि एआईयूडीएफ ने पांच सीटें जीतीं, पिछली विधानसभा से एक ज्यादा। भाजपा ने 2016 में घाटी से आठ सीटें जीती थीं, जबकि वह इस बार केवल छह सीटें ही जीत सकी। अधिक ध्रुवीकरण होने के बावजूद, भाजपा को घाटी में दो सीटों का नुकसान हुआ क्योंकि सीट बंटवारे के फार्मूले ने महाजोत के पक्ष में काम किया था। रायजोर दल और एजीपी ने भी घाटी में अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन चूंकि दोनों पार्टियां मुख्य रूप से असमिया बहुल पार्टियां हैं, इसलिए वे कामयाबी हासिल करने में नाकाम रही।

लेखक, असम से इंडिपेंडेंट कंटेन्ट मेनेजमेंट के सलाहकार है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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