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बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 साल, लेकिन...

बैंकों के राष्ट्रीयकरण की स्वर्ण जयंती है, लेकिन क्या इसका जश्न मनाया जा सकता है क्योंकि आज पूरी प्रक्रिया रिवर्स गेयर में दिखाई दे रही है। यानी सरकार एक बार फिर बैंकों के निजीकरण के तरफ़ बढ़ती दिख रही है।
 bank nationalisation
Image Courtesy: Scroll.in

देश के बैंकिंग इतिहास में आज के दिन का एक खास महत्व है। दरअसल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 19 जुलाई, 1969 को 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इन बैंकों पर अधिकतर बड़े औद्योगिक घरानों का कब्ज़ा था। आज इसे पचास बरस हो गए हैं। लेकिन आज पूरी प्रक्रिया रिवर्स गेयर में दिखाई दे रही है। यानी सरकार एक बार फिर बैंकों के निजीकरण के तरफ़ बढ़ती दिख रही है।

राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर 1980 में आया, जिसके तहत सात और बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया। विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रीयकरण के बाद भारत के बैंकिंग क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई।

इस समय भारत में बहुत से विदेशी और निजी क्षेत्र के बैंक सक्रिय हैं, लेकिन एक अनुमान के अनुसार बैंकों की सेवाएँ लेने वाले लगभग 90 फ़ीसदी लोग अब भी सरकारी क्षेत्र के बैंकों की ही सेवाएँ लेते हैं। इस समय भारत में 27 बैंक राष्ट्रीयकृत हैं।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला एक संकटपूर्ण समय में आया था। भारत इससे पहले दो युद्ध झेल चुका था, एक 1962 में चीन के साथ और दूसरा 1965 में पाकिस्तान के साथ। इसके अलावा देश सूखे की भी मार झेल रहा था।

इंदिरा गांधी ने 29 जुलाई 1969 को लोकसभा में बताया कि बैंकों के राष्ट्रीयकऱण का उद्देश्य कृषि, छोटे उद्योग तथा निर्यात में वृद्धि को बढ़ावा देना, नए उद्यमियों को प्रोत्साहित करना था सभी पिछड़े क्षेत्रों को विकसित करना है।

उनका कहना था "बैंकिंग प्रणाली जैसी संस्था, जो हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचती है और जिसे लाखों लोगों तक पहुंचाना चाहिए, के पीछे आवश्यक रूप से कोई बड़ा सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए जिससे वह प्रेरित हो और इन क्षेत्रों को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं तथा उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दें।"

विशेषज्ञ कहते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ा। 1970 के दशक में राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के तौर पर सकल घरेलू बचत लगभग दोगुनी हो गई।

लेकिन बाद में इसमें काफी उतार-चढ़ाव आए। बैंकिंग सेवा के विस्तार और अर्थव्यवस्था को गति देने के उद्देश्य के अलावा इस राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य बेरोज़गारी की समस्या से निपटना, समाज के कमजोर वर्गों तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोगों का बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं के माध्यम से उत्थान करके देश की आर्थिक उन्नति को एक नई दिशा प्रदान करना था।

अपने सभी उद्देश्यों में तो ये राष्ट्रीयकरण कामयाब नहीं हो पाया लेकिन फिर भी ये एक ऐतिहासिक और अच्छा फैसला माना गया। जैसे ऊपर भी बताया गया कि आज भी बैंकों की सेवाएँ लेने वाले लगभग 90 फ़ीसदी लोग सरकारी क्षेत्र के बैंकों की ही सेवाएँ लेते हैं।

मगर अब इसे धीरे-धीरे फेल करने की कोशिश की जा रही है। सरकारी बैंकों का मर्जर किया जा रहा है। उनकी अपेक्षा निजी बैंकों को बढ़ावा दिया जा रहा है।

आईडीबीआई बैंक का उदाहरण इसे समझने के लिए बेहतर उदाहरण है। आईआरडीएआई ने एलआईसी को आईडीआईबी बैंक के 51% शेयरों को खरीदने के लिए मंजूरी दीI यह पहला सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक है जिसे सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण से बाहर निकाल दिया गया है

मोदी सरकार के पिछले पांच सालों में बैंकों के साथ फर्जीवाड़े में लगातार बढ़ोतरी हुई है और यह घटनाएँ कांग्रेस की पिछली सरकार की तुलना में चार गुना बढ़ गई है। वर्ष 2013-14 में फर्जीवाड़े के चलते कुल 10,170 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, जो वर्तमान में बढ़कर 41,168 करोड़ रुपये हो गया है।

आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार बैंकों को फर्जीवाड़े के चलते वर्ष 2017-18 में 41,168 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। 2016-17 की तुलना में यह नुकसान 72 फीसदी बढ़ा है। वर्ष 2017-18 में बैंकों के साथ फर्जीवाड़े की कुल 5,917 घटनाएं हुईं जबकि इससे पहले 2016-17 में कुल 5,096 फर्जीवाड़े हुए थे, जिसमें 23,934 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था।

आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को माना है कि  बैंकों के साथ होने वाले फर्जीवाड़े भारतीय अर्थव्यवस्था के एक गंभीर समस्या है। रिजर्व बैंक ने कहा कि “धोखाधड़ी प्रबंधन में सबसे गंभीर चिंता का विषय बन गई है, जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा बैंकों के क्रेडिट पोर्टफोलियो में स्थित है”। आरबीआई के अनुसार अधिकतर फर्जीवाड़ा करेंट अकाउंट के जरिये किया गया।

इतना ही नहीं पूंजीपतियों ने बैंकों का लाखों करोड़ रुपया गबन किया हुआ है और फरार हो गए हैं। नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और विजय माल्या के उदाहरण हमारे सामने हैं।

बड़े डिफाल्टरों को बड़े बेल आउट पैकेज भी दिए गए लेकिन वो भी डूब गए। सरकार ने अपने धन की वसूली करने की बजाय जमाकर्ताओं यानी आम जनता के पसीने की कमाई को पूंजीपतियों के बढ़ावे के लिए इस्तेमाल किया।

इतना ही नहीं सरकार बैंकों की निगरानी करने वाली सबसे बड़ी संस्था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के काम में भी लगातार हस्तक्षेप कर रही है। वैधानिक तौर पर आरबीआई सरकारी हस्तक्षेप के बिना काम करने वाली स्वायत्त संस्था है। लेकिन मोदी सरकार ने आजादी के बाद से लेकर अभी तक इस्तेमाल नहीं की गई आरबीआई आधिनियम की धारा 7 का भी पहली बार उपयोग किया। आरबीआई अधिनियम की धारा-7 सरकार को यह अनुमति देती है कि वह जनहित में आरबीआई को अपने निर्देशों के आधार पर काम करने के लिए कहे। आजादी से लेकर अब तक इस धारा का इस्तेमाल नहीं किया गया था। जिसका मतलब यह था कि यह कहा जा सकता था कि आरबीआई की स्वायत्तता के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि आरबीआई की आजादी को खुले तौर पर हड़पने की कोशिश की गई।

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