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बहुत 'राष्ट्रीय' नहीं है नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति !

नई नीति बड़े स्कूल परिसरों के निर्माण की बात करती है, जिनके संसाधनों को साझा किया जाएगा। इसके लिए दूर-दराज और आदिवासी इलाकों में शिक्षा दे रहे छोटे स्कूलों की संख्या को कम किया जाएगा।
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राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अंतिम मसौदा सार्वजनिक हो चुका है। इसे अभी देश की आधिकारिक शिक्षा नीति बनने के लिए कैबिनेट की अंतिम मुहर की जरूरत है। तेजी से बदलते शिक्षातंत्र के लिए नई शिक्षा नीति की मांग पिछले कुछ समय से जारी थी। पिछली नीति 1986 में लागू की गई थी, जिसमें 1992 में संशोधन किया गया था, इस नीति में बदलाव की बहुत ज़्यादा जरूरत थी। इस साल मई में लाए गए मसौदे से नया मसौदा किस तरह अलग है और इसके क्या परिणाम होंगे? 55 पेज का यह दस्तावेज़ भारी-भरकम शब्दों के साथ स्कूली शिक्षा के दृष्टिकोण, उच्च शिक्षा और पेशेवर शिक्षा की बात करता है। लेकिन पूरे दस्तावेज़ को पढ़ने से कई खामियों के बारे में पता चलता है।

बड़े स्कूल और पहुंच की समस्या

नई नीति में फिलहाल जारी शिक्षा नीति से एक खास बदलाव नज़र आता है। इसमें देश भर में बड़े परिसरों को बनाए जाने की बात है। इनमें कई स्कूल एक साथ होंगे। परिसरों में साझा पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं और शिक्षक होंगे। मसौदे की धारा 7.7 के मुताबिक़, ''स्कूल परिसर का लक्ष्य होगा: 1) शिक्षकों और दूसरे सहयोगी स्टाफ का एक जीवंत समुदाय बनाना 2) बचपन से कक्षा 12 तक, पेशेवर व प्रौढ़ शिक्षा तक, स्कूल के सभी स्तरों पर एकीकृत शिक्षा 3) परिसर में बनाए गए स्कूलों में अहम संसाधनों को साझा करना। इनमें प्रयोगशालाएं, कंप्यूटर लैब, खेल सुविधाएं और मानव संसाधन, जैसे सामाजिक कार्यकर्ता, काउंसलर, संगीत, शारीरिक शिक्षा, कला, संगीत जैसे विशेष शिक्षकों को भी एक-दूसरे के साथ बांटा जाएगा। 4) शिक्षकों, छात्रों, सहयोगी कर्मचारियों और अवसंरचना का एक बेहद जरूरी समूह तैयार करना, जिससे स्कूल सिस्टम में  संसाधनों का ज़्यादा इस्तेमाल, बेहतर संचालन, समन्वय, प्रशासन और प्रबंधन हो सके।''

इसके बाद अगले सेक्शन में स्कूलों के प्रबंधन की बात की गई है। यहां संसाधनों के ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग का तर्क दिया गया है, लेकिन एक बड़ी चिंता सामने आती है कि क्या बच्चों को इन सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा। क्योंकि ज्याद़ातर बड़ी सुविधाएं इन परिसरों में ही होंगी। इसमें साइंस स्ट्रीम वाले स्कूलों के उदाहरण को देखा जा सकता है। इस स्ट्रीम के स्कूल अधिकतर शहरी इलाकों में होते हैं, जहां बहुत दूर-दूर से हजारों छात्र पढ़ने के लिए आते हैं। राजधानी दिल्ली में ही 11वीं और 12वीं के लिए केवल एक तिहाई स्कूलों में ही साइंस स्ट्रीम उपलब्ध है। दूसरे राज्यों में तो यह अनुपात और भी अधिक गिर जाता है।
बड़े स्कूल परिसरों के पीछे एक कारण दूर-दराज़ और जनजातीय इलाकों में शिक्षा देने वाले बहुत सारे छोटे स्कूलों को बंद किया जाना भी है। नीति में इन छोटे स्कूलों को आर्थिक तौर पर ''अधिकतम उपयोगी न होना और प्रशासन के स्तर पर जटिल'' बताया गया है। इसलिए इनके उपाय के तौर पर इनका आपस में विलय कर दिया जाए और बड़े स्कूल परिसर बना दिए जाएं।

हालांकि इनके विलय या इन्हें आर्थिक तौर पर उपयोगी बनाने जैसी बातें मानव संसाधन मंत्रालय और नीति आयोग पहले भी करते रहे हैं। 2017 में मानव संसाधन मंत्रालय ने राज्यों को एक पत्र लिखकर बेहतर प्रशासन के लिए छोटे स्कूलों को युक्तिसंगत बनाने की बात कही थी। लेकिन यह प्रक्रिया राजस्थान, झारखंड, मध्यप्रदेश और ओडिशा में छात्रों और उनके परिवारों के लिए विनाशकारी साबित हुई। झारखंड में 4600 स्कूलों का आपस में विलय कर दिया गया, वहीं राजस्थान में 22,000 स्कूलों को आपस में मिलाया गया। इससे हजारों छात्रों को झटका लगा, क्योंकि उन्हें स्कूल के लिए अब बहुत दूर तक यात्रा करनी पड़ रही थी या उन्हें स्कूल छो़ड़ना पड़ा। 

''एकाउंटबिलिटी इनीशिएट(AI)'' के एक स्वतंत्र अध्ययन से पता चला है कि राजस्थान में पिछड़े सामाजिक तबकों, जैसे एससी-एसटी और ओबीसी के छात्रों के नामांकन में 6 प्रतिशत की गिरावट आई है। अध्ययन में यह भी पता चला कि इस प्रक्रिया में शामिल शिक्षकों, प्राचार्यों और पालकों से तो कोई सलाह ही नहीं ली गई।

शिक्षा के अधिकार पर लगाम लगाकर ड्रॉप आउट दर को कम करने की कोशिश!

इस हिस्से की शुरूआत बचपन और शिक्षा पर एक संक्षिप्त धारा से होती है। इस हिस्से में ड्रॉप आउट रेट और बच्चों को स्कूलों में थाम न पाने की असफलताओं के बारे में बताया गया है। सेक्शन 3.1 के मुताबिक़, ''स्कूली सिस्टम का एक प्राथमिक लक्ष्य है कि तय किया जाए कि बच्चे स्कूल में दाखिला लें और उपस्थिति दर्ज कराएं.... लेकिन बाद की कक्षाओं के आंकड़ों में बच्चों के स्कूलों में बने रहने से संबंधित कुछ समस्याएं सामने आई हैं। कक्षा 6 से 8 के बीच जीईआर (ग्रॉस एनरोलमेंट रेश्यो) 90.7 प्रतिशत रहा, वहीं कक्षा 9 और 10 के लिए यह 79.3 प्रतिशत और कक्षा 11 और 12 के लिए 51.3 प्रतिशत रहा। इससे पता चलता है कि कक्षा पांच, खासकर कक्षा 8 के बाद बड़ी संख्या में छात्र स्कूल छोड़ देते हैं। मंत्रालय द्वारा जारी किए जाने वाले सालाना शैक्षिक आंकड़ों के मुताबिक़ स्कूली उम्र के करीब 6.2 करोड़ छात्र 2015 में स्कूलों से बाहर थे।''

सालों तक विशेषज्ञों का मत रहा है कि ड्रॉपआउट रेट को कर करने के लिए इसके मूल कारणों का हल किया जाना चाहिए। इसके मूल कारणों में मुख्यत: शिक्षा में रूचि न होना, दूर-दराज के इलाकों में शिक्षा की ऊंची कीमत और उद्योगों में बाल मजदूरी शामिल हैं। इन बच्चों को वापस लाने के लिए गरीब बच्चों को ''शिक्षा के अधिकार(RTE)'' के तहत सार्वभौमिक शिक्षा की सीमा कक्षा 12 तक बढ़ाना चाहिए। RTE सीमा को बढ़ाए जाने की बात पिछले मसौदे में थी। लेकिन लगता है कि इस प्रावधान को अब बाहर फेंक दिया गया है क्योंकि सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नहीं है। इसी तरह की स्थिति शिक्षा खर्च पर है। मसौदे के मुताबिक़ जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च होना चाहिए, लेकिन इसमें केंद्र और राज्य सरकारों पर किसी भी तरह से इसके लिए बंधन नहीं लगाया गया है।

ढहती उच्च शिक्षा

अंतिम मसौदे में बड़े निर्माण को लेकर प्रेम दिखता है। न केवल यह बड़े स्कूली परिसरों की बात करता है, बल्कि यह मसौदा बेहद विशाल शैक्षणिक संस्थानों, जिनमें हजारों छात्र दाखिला लेंगे, उनकी वकालत करता है। सब-सेक्शन 10.1 के मुताबिक़, ''इस नीति का मुख्य जोर उच्च शिक्षा के बिखराव को खत्म करने को लेकर है। इसके लिए उच्च शिक्षा को बहुविषयक यूनिवर्सिटी, क़ॉलेज़ों और एचईआई(हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन) क्लस्टर में ले जाया जाएगा, जिनमें 3000 या इससे ज़्यादा छात्रों को पढ़ाने का लक्ष्य है।''

इस नीतिगत दस्तावेज़ में तक्षशिला और नालंदा समेत आईवी लीग की यूनिवर्सिटी को प्रेरणा बताया गया है। लेकिन स्वायत्ता और बाज़ारू ताकतों से चलने वाले संस्थान इस मसौदे की दो चिंताजनक बातें हैं। नीति में इस बात पर जोर दिया गया है कि ''सभी कॉलेजों को आखिर में स्वायत्त कॉलेज बनना होगा, जो उच्च शिक्षा के बहुविषयक संस्थान होंगे, यह मुख्यत: अंडरग्रेजुएट शिक्षा पर केंद्रित रहेंगे। इसलिए एक कॉलेज को ज़रूरी तौर पर एक डिग्री देने वाला स्वायत्त संस्थान होना चाहिए या फिर एक यूनिवर्सिटी का हिस्सा। दूसरे मामले में कॉलेज पूरी तरह यूनिवर्सिटी का हिस्सा होगा।'' (सेक्शन10.3)

लेकिन इस बात ने शिक्षकों को शिक्षानीति के बारे में आशंकित कर दिया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के श्री तेगबहादुर खालसा कॉलेज में इंग्लिश पढ़ाने वाले सैकाट घोष ने न्यूज़क्लिक को बताया कि कॉलेजों की स्वायत्ता की बात में बोर्ड ऑफ गवर्नर्स का एक नया प्रावधान है। यह लोग संस्थान के सभी बड़े फैसलों के लिए जिम्मेदार रहेंगे।

उन्होंने आगे कहा, ''बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में शामिल होने के लिए कोई नियम-कायदों का ज़िक्र नहीं है। यह कोई भी व्यक्ति हो सकता है। जो अकादमिक से जुड़ा हो या न जुड़ा हो। दूसरी बात, यह लोग शिक्षकों का पे स्केल, तनख्वाह या वृद्धि भी निर्धारित कर सकते हैं। इसका मतलब फिलहाल जारी सभी नियमों को खत्म कर दिया जाएगा। अभी तक यूनिवर्सिटीज़ में सरकार द्वारा बनाए गए वेतन आयोग की सिफारिशों को माना जाता है। तीसरी बात, लोकतांत्रिक फैसले लेने वाली संस्थाएं जैसे ''एकेडमिक एंड एक्जीक्यूटिव काउंसिल'' भी खत्म हो जाएंगी, इससे कैंपस के भीतर विमर्श और बातचीत को धक्का लगेगा। सबसे अहम बात सार्वजनिक संसाधानों पर निजी कब्ज़े का दबाव बढ़ेगा। जब यह कॉलेज के लिए स्वायत्ता की बात करता है, तो इसका मतलब है की कॉलेज का यूनिवर्सिटी से संबंध खत्म हो जाएगा। जैसा हम सभी जानते हैं कि पूरे देश से लोग दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए आते हैं, चाहे कोई भी कॉलेज हो। जब एक बार कॉलेज का यूनिवर्सिटी से संबंध खत्म हो जाएगा तो रामलाल आनंद या श्याम लाला कॉलेज जैसे कम विख्यात कॉलेजों में कम बच्चे दाखिला लेंगे। अगर ऐसा होता है तो इन कॉलेजों को बंद करने की नौबत आ जाएगा या इनका निजीकरण कर दिया जाएगा।''

राज्यों से छुड़ाई जा रही शिक्षा

पिछले मसौदे से एक कदम पीछे हटते हुए नए मसौदे में शिक्षामंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की बात कही गई है। इस आयोग में शिक्षा से संबंधित मंत्रालयों के लोग, राज्यों के शिक्षामंत्री और कुछ दूसरे प्रसिद्ध व्यक्ति सदस्य होंगे। दस्तावेज़ के मुताबिक़ यह आयोग शिक्षा पर केंद्रीय सलाहकारी बोर्ड (CABE) की जगह लेगा, जो अभी तक परिणाम देने में नाकामयाब रहेगा। CABE मैकेनिज्म ने भारतीय शिक्षा में बहुत योगदान दिया है, लेकिन यह तेजी से आगे बढ़ने के लिए जरूरी काम नहीं कर पाया। CABE एक पदेन संस्था है, जो न केवल समय-समय पर बैठक करने में नाकामयाब रही है, बल्कि इसमें दैनिक स्तर पर अहम मसलों के लिए काम करने वाली कोई विशेषज्ञ समिति भी नहीं है।

हालांकि अनीता रामपाल, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी की फैकल्टी ऑफ एजुकेशन की पूर्व शिक्षिका हैं, उन्हें लगता है कि नए तंत्र के जरिए राज्यों के क्षेत्राधिकार पर अतिक्रमण किया जा रहा है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह कहना गलत होगा कि CABE अच्छी तरह से काम नहीं कर रही थी। रामपाल के मुताबिक, ''यह एक सलाहकारी संस्था थी, जिसका बेहद कम रोल था।  शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसके बावजूद नई संस्था राज्यों के शिक्षा से जुड़े मामलों में फैसले लेने के अधिकार को खत्म कर देती है। शिक्षामंत्री के सीधे नीचे काम करने वाला शिक्षा आयोग असहमति की आवाज के लिए बहुत कम जगह छोड़ेगा
 

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