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बिहार : शिक्षकों की मांगों को अनसुना करती सरकार 

सुशासनी व्यवहार का दावा करने वाली एनडीए सरकार अपने विभिन्न मुद्दों पर आंदोलन कर रहे शिक्षकों की मांगों को लगातार अनसुना कर रही है। यहाँ तक कि उन पर लाठीचार्ज भी करवा रही है। 
Teacher Movement in Bihar

एक समय, बिहार के आम लोगों के साथ-साथ राज्य के सभी कर्मचारियों को एनडीए गठबंधन सरकार ने ‘सुशासन‘ की आशा ख़ूब बंधायी थी। किन्तु जैसे-जैसे शासन स्थायी होता गया तो लोगों को सुशासन की जगह कुशासन मिलने लगा। फलतः सड़कों पर विक्षोभ व विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला भी बढ़ने लगा। सबक सिखाने के लिए सरकार ने भी तय सा कर लिया है कि हर विरोध-विक्षोभ प्रदर्शन से सिर्फ़ लाठी की भाषा में बात करनी है। 19 जुलाई को प्रदेश के 4 लाख नियोजित शिक्षकों की ओर से आए शिक्षक प्रतिनिधियों के विधान सभा के समक्ष विरोध प्रदर्शन करने पर हुई पुलिसिया कार्रवाई इसी का ताज़ा उदाहरण है।


‘ समान काम का समान वेतन और नियोजित शिक्षकों को सभी ग़ैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करने समेत अपनी सात सूत्री मांग को लेकर बिहार के नियोजित शिक्षक लगातार आंदोलन कर रहे हैं। अपनी मांगों पर सरकार की संवेदनहीनता से निराश होकर शिक्षक बिहार के हाई कोर्ट की शरण में भी गए। जहां उनके हक़ में ये फ़ैसला भी आया कि राज्य की सरकार आंदोलनकारी शिक्षकों की मांगें पूरी करे। लेकिन बाथे–बथानी जैसे कई जनसंहारों के आरोपियों को साफ़ बरी किए जाने के बिहार हाई कोर्ट के फ़ैसले पर चुप रहनेवाली वर्तमान राज्य सरकार ने शिक्षकों को समान काम का समान वेतन देने के फ़ैसले को मानने से इंकार कर दिया। और इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका दायर कर कह दिया कि नियोजित शिक्षक राज्य कर्मचारी हैं ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट में बिहार सरकार के पक्ष में केंद्र की सरकार के अटर्नी जनरल ने पैरवी करते हुए साफ़ कह दिया कि– केंद्र सरकार द्वारा सर्व शिक्षा अभियान के मदद की राशि राज्यों की जनसंख्या और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर दी जाती है, न कि वेतन बढ़ोत्तरी के लिए! जिससे सहमत होकर सुप्रीम कोर्ट ने बिहार हाई कोर्ट के फ़ैसले को निरस्त्र कर कहा कि बिहार सरकार चाहे तो अपने संसाधन से ‘समान काम के बदले समान वेतन‘ दे सकती है। इसके बाद सारे शिक्षक संगठनों ने राज्य की सरकार से कोर्ट के सुझाव पर अमल करने की मांग को लेकर राज्यव्यापी आंदोलन शुरू कर दिया। सरकार का इसपर कोई सकारात्मक रुख नहीं दिखने के कारण राज्य के 18 शिक्षक संगठनों कि संयुक्त संघर्ष समन्वय समिति ने नियोजित शिक्षकों की मांगों को लेकर 19 जुलाई को विधान सभा सत्र के समय विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा की।

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19 जुलाई के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए बिहार के कोने कोने से पहुंचे नियोजित शिक्षकों का गर्दनीबग धरनास्थल पर भारी जुटान हुआ। सरकार के नकारात्मक रवैये से शिक्षकों में इतना भारी क्षोभ था कि अधिकांश शिक्षक अपनी ड्यूटी से आकस्मिक अवकाश लेकर वहाँ आए थे। आंदोलनकारी शिक्षकों की अधिक संख्या होने के कारण इधर उधर खड़े हो रहे शिक्षकों से वहाँ भारी संख्या में तैनात पुलिस बल की नोक झोंक बढ़ने लगी। पुलिस द्वारा लगाए गए मुख्य बैरियर के सामने ही प्रदर्शनकारी शिक्षक जमा थे। लेकिन अचानक पुलिस ने वहाँ वाटर कैनन से पानी की बौछार शुरू कर शिक्षकों की भीड़ को तितर-बितर करना शुरू कर दिया। प्रतिक्रिया में प्रदर्शनकारियों ने भी बैरियर तोड़ डाला तो पुलिस टूट पड़ी। आला अधिकारियों का आरोप है कि पहले प्रदर्शनकारियों की ओर से पत्थर चलाने के कारण ही पुलिस ने हल्का बल प्रयोग किया है। लेकिन मौक़े पर ली गयी तस्वीरों और सोशल मीडिया में वायरल वीडियो में पुलिस की बर्बरता साफ़ दिख रही है। कई आंदोलनकरी शिक्षक नेताओं को गिरफ़्तार कर 4000 से अधिक अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया गया है।
शिक्षकों के साथ सरकार के दमनात्मक रवैये के ख़िलाफ़ विधान सभा और परिषद की कार्रवाई विपक्ष दलों के भारी विरोध के कारण कई बार स्थगित हो चुकी है। विपक्ष ने एक स्वर से आंदोलनकारी शिक्षकों की सभी मांगों को पूरा करने के साथ-साथ मुख्यमंत्री से इस्तीफ़े की मांग की है। संयुक्त शिक्षक संघर्ष समिति ने भी पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ पूरे राज्य में काला दिवस मनाते हुए विरोध प्रदर्शन और सरकार का पुतला फूंकने की घोषणा कर सभी गिरफ़्तार आंदोलनकारी शिक्षकों की अविलंब रिहाई व मुक़दमे की वापसी की मांग की है।
इसी वर्ष 27 जून को जब राज्य भर के नियोजित कंप्यूटर शिक्षक अपने स्थायीकरण की मांग को लेकर जुटे थे तो उन्हें भी दौड़ा-दौड़ा कर पुलिस ने पीटा था। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार नौकरी–वेतन की मांग करने वालों के साथ लगातार लाठी की ही भाषा में बात कर रही है।
सवाल है कि सरकारें ऐसा क्यों कर रहीं हैं? सोशल साईट में इन घटनाओं में दी जा रही प्रतिक्रियाओं में से एक में काफ़ी महत्वपूर्ण बात उठाई गयी है। जिसमें बिहार के इन आंदोलनकारी शिक्षकों के बहाने सभी आंदोलन करने वाले सभी लोगों से ये पूछा गया है कि- चुनाव के समय जब हम सरकार चुनते हैं तब हमारी सोच क्या रहती है और कौन सा मुद्दा रहता है? निस्संदेह, यह सवाल तो बनता ही है। क्योंकि अभी ही सम्पन्न हुए चुनाव में जो अप्रत्याशित जनादेश सामने आया है क्या वह सत्ताधारी पार्टी के सकारात्मक कार्यों के कारण आया है? इसलिए अपने सवालों पर आंदोलन कर रहे विभिन्न तबक़ों और संगठनों और उसमें शामिल लोग इससे बरी नहीं हो सकते, कि जब नीति निरर्धारण के लिए नेता व सरकार चुनने की बारी आए तब किसी और मुद्दे पर वोट दिये जाएँ और बाद में पाँच बरस तक अपने मुद्दों-मांगों की ख़ाली थाली पीटी जाए?

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