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बीजेपी की चुनावी रणनीति: आँकड़ों की अफ़ीम

अमित शाह का कहना है कि सरकारी योजनाओं से लाभान्वित 22 करोड़ लोगों और 11 करोड़ भाजपा सदस्यों के आधार पर बीजेपी को 2019 में 50 करोड़ वोट मिलेंगे।
Amit Shah's web of lies

होमर के महाकाव्य ओडिसी में, ग्रीक नायक ओडिसीयस 'कमल खाने वालों' के एक कबीले से मिलता है जो मादक  पौधों, शायद पॉपी के फल या पानी में खिलने वाले नीले फूलों, को खा कर  दुनिया को भूल, आनंद में डूबे रहते हैं। 19वीं शताब्दी में, लॉर्ड टेनीसन ने अपनी कविता 'द लोटस-ईटर' में इस आकर्षक छवि को पुनर्जीवित किया था। यह कल्पना इतनी  लोकप्रिय थी कि निबंधक थॉमस डी क्विंसी ने “एक अंग्रेज कमल खाने वाले की स्वीकृति” नामक पुस्तक भी लिख डाली, जिसमें अफ़ीम का  सार पी के नशे से झूमने के अनुभवों का वर्णन किया गया था।

आज इस खोये हुए साहित्यिक इतिहास की याद कैसे आई? क्योंकि हाल की राजनीतिक घटनाओं ने इन कमल खाने वालों के मिथक को पुनर्जीवित कर दिया है।

बीजेपी ने दावा किया है कि उसकी सरकारी योजनाओं ने 22 करोड़ लोगों को लाभान्वित किया है और उसके 11 करोड़ सदस्यों को इनमें जोड़ लें तो वह अगले साल के आम चुनावों में शानदार जीत के करीब पहुंचा देगा।

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह देश भर में भाजपा कार्यकर्ताओं की  खोपडियों में इसे पीट-पीट कर भर रहे हैं और उनका आह्वान कर रहे हैं कि इन सभी 'लाभार्थियों' से मुलाकात करें और कम से कम 20 ‘लाभार्थियों’ के साथ चाय पीते हुए अपने समर्थन को ओर मज़बूत करें। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने नमो ऐप के माध्यम से इस तरह के 'लाभार्थियों' के साथ बातचीत की है। उन्होंने ऐसी रैलियों को भी संबोधित किया जिसमें ऐसे लोगों को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था।

कुल मिलाकर, यह 22+11 करोड़ लोग आने वाले आम चुनावों में भाजपा की रणनीति की आधारशिला है। बेशक, यह भी संभव है कि शाह, 22 करोड़ के आंकड़े का ढोल सिर्फ प्रचार के लिया पीट रहे हैं, और उन्होंने खुद भी यह गंभीरता से नहीं सोचा है कि वे सभी भाजपा को ही वोट देंगे। वास्तव में, हाल के एक साक्षात्कार में, उन्होंने कहा "अगर लाभान्वित परिवारों के आधे सदस्य भी उन्हे वोट करते है ..."। यानि - अंदरखाने कुछ पुनर्विचार चल रहा है।

लेकिन इस निष्कर्ष से बचा नहीं जा सकता कि यह सब कमल खाने वाली श्रेणी में आता है,  एक आम, कम पढ़े लिखे भारतीय के लिए भी। किसी ने कभी सुना है कि वे सभी लोग जो विशाल सरकारी कार्यक्रमों का हिस्सा हों, वे सरकार के पक्ष में ही वोट देते हैं? अगर ऐसा होता तो कांग्रेस अभी भी भारत पर शासन कर रही होती!

यह आंकड़े आये कहाँ से?

ये आंकड़े भी संदिग्ध हैं, जिस पर मुख्यधारा का मीडिया चुनौती देने से हिचकिचा रहा है। अमित शाह या बीजेपी ने अभी तक इस बारे में कोई ब्यौरा नहीं दिया है, जैसी कि उनकी पुराणी आदत है। वे सिर्फ इन आंकड़ों को उछालते हैं, जैसे कोई जादूगर टोपी से खरगोश निकाल देता है।

यदि आप नरेंद्र मोदी की वेबसाइट का इंफोग्राफिक्स नामक भाग देखें तो आपको मदहोश कर देने वाले अंतहीन आंकड़ों की फहरिस्त दिखेगी - कितने एलईडी बल्ब वितरित किए गए हैं (29.83 करोड़), कितने प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण किए गए (20.14 करोड़), शौचालयों के निर्माण (7.25 करोड़), मुद्रा ऋण (12 करोड़), प्रसवपूर्व चेक-अप (एक करोड़) आदि आदि।

नहीं! इन्हें आपस में जोड़ा नहीं जा सकता! इन आँकड़ों में ओवरलैप हो सकता है जैसे कि शौचालय के लाभार्थी वाला एक परिवार उज्वाला योजना के तहत एलपीजी गैस सिलेंडर भी ले सकता है। आपस में सबको जोड़ने का मतलब होगा उसी लाभार्थी को बार-बार गिनना। इससे तो कुल संख्या दोगुनी या तिगुनी हो जाएगी!

फिर यह भी सवाल है कि क्या आप परिवार के सदस्यों को लाभार्थियों के रूप में गिन रहे हैं या नहीं। तकनीकी रूप से देखें तो परिवार के सदस्य भी लाभान्वित होंगे। तो, क्या वे इस 22 करोड़ की संख्या में शामिल हैं या नहीं?

अचम्भे की बात तो ये है कि 11 करोड़ सदस्यता के आंकड़े के बारे में भी विवाद है। विभिन्न समाचार रिपोर्टों के अनुसार, शाह और विभिन्न बीजेपी नेता अलग-अलग स्थानों और समय पर बीजेपी की सदस्यता नौ से 14 करोड़ होने तक का दावा करते रहे हैं। 8 सितंबर को शाह ने कथित तौर पर कहा था कि उनके कार्यकाल में बीजेपी की सदस्यता आठ करोड़ से बढ़कर नौ करोड़ हो गई है। लेकिन जुलाई की शुरुवात में उन्होंने कहा था कि यह 11 करोड़ हो गयी है। इस बीच, कश्मीर में भाजपा नेता अली मोहम्मद मीर ने अप्रैल में 14 करोड़ सदस्यता होने का दावा किया था, जबकि बीजेपी महिला मोर्चा की नेता विजया राहतकर ने तीन करोड़ महिला सदस्यों के साथ 12 करोड़ होने का दावा किया था।

इस खिचड़ी को यदि अलग भी रख दें, तो इस तथाकथित सदस्यता पर भी संदेह का बादल है। नवंबर 2014 में, बीजेपी ने सदस्यता बढ़ाने का अभियान शुरू किया था जिसमें एक तरीक़ा यह था: कि आप दिए गए फोने नंबर  मिस्ड कॉल देकर बीजेपी के सदस्य बन सकते हैं। बाद में जारी रिपोर्टों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी होने के संकेत मिले है।  एक मामले में तो पश्चिम बंगाल के एक निवासी ने शिकायत दर्ज कराने के लिए ऑनलाइन खुदरा विक्रेता का नंबर घुमाया और खुद को भाजपा सदस्य के रूप में भर्ती पाया!

इस तरह की सदस्यता से क्या यह माना जा सकता है कि ये सभी 'सदस्य' भाजपा को वोट देंगे, उनके परिवार के सदस्यों को तो छोड़ दीजिये? और, क्या ये सदस्य पार्टी के लिए प्रचार भी करेंगे? यदि नहीं, तो यह ताश के पत्तों के घर की तरह ढह जाएगा। या फिर, आपको कमल खाने वाला कहा जाएगा।

क्या वे वास्तविक ‘लाभार्थी’ हैं?

यदि यह बात दरकिनार भी कर दी जाये कि पीड़ित लोगों को उनका हक़ देकर उन्हें ‘लाभार्थी’ का तिरस्कृत तमगा देना गलत है,  इन सभी योजनाओं और कार्यक्रमों का अनुभव दिखाता है कि वे सफल नहीं रहे हैं जैसाकि शाह एंड पार्टी उनके बारे में प्रचार कर रही है। चाहे यह एलपीजी रिफिल की उच्च लागत का सवाल हो या पानी न होने के कारण बेकार पड़े  शौचालयों का, या आवास योजनाओं में रिश्वत, या अपने लोगों के लिए मुद्रा ऋण का कथित वितरण, या खाली बैंक खातों का, या मनरेगा में काम के बाद महीनों मजदूरी न मिलने का सवाल हो - दोषों और कमियों की सूची अंतहीन है उसी तरह जैसे बीजेपी के आंकड़ों की सूची।  इसलिए, यह बहुत संदिग्ध है कि योजनाओं के सभी 'लाभार्थी' खुशी में डूबे हुए, ईवीएम पर कमल का बटन दबाने के लिए खास उत्साहित होंगे।

फिर ऐसे लोग हैं जिन्हें या तो छोड़ दिया गया है या भर्ती के बावजूद कोई लाभ नहीं मिला।  इसमें झारखंड में भूख से मरने वाले कम से कम 14 लोगों के परिवार शामिल होंगे, जिनमें से आधे लोगों को राशन से इंकार कर दिया गया था। राशन की दुकानों के माध्यम से गैर-कवरेज या अनियमित आपूर्ति के कारण आज भी लाखों लोग भोजन पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसी तरह का मामला उन लोगों का भी है जिन्हें मनरेगा अधिकारियों ने काम नही दिया - 2017-18 में ऐसे लगभग 1.3 करोड़ लोग थे।

क्या योजनाएँ रोज़गार और आय का स्थान ले सकती है?

और आखिरकार, सबसे बड़ा सवाल: नौकरियां नहीं हैं, किसानों की आय घट रही है, श्रमिक और कर्मचारी सड़कों पर न्यूनतम मजदूरी की मांग कर रहे हैं, देश में गहरा और स्थानिक आर्थिक संकट है - ऐसे में क्या ये सभी योजनाएं और कार्यक्रम कुछ राहत देने के लिए काफी हैं? जवाब स्पष्ट  है कि ऐसा नहीं हैं। अन्यथा, सभी लोग विरोध के लिए सड़कों पर क्यों हैं?

कमल खाने वालों की तरह, बीजेपी भी एक मुर्खो के स्वर्गलोक में रह रही है, एक बदली हुई चेतना की स्थिति जिसने वास्तविकता से अपना दामन छुड़ा लिया है। और, यदि यही उनकी चुनाव रणनीति है, तो उनके लिए  अगले साल एक बड़ा सदमा इंतजार कर रहा है।

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