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बजट 2019: टैक्स रेवेन्यू में गिरावट, सरकार ने ख़र्च से हाथ खींचा

अनुमान है कि 2018-19 में टैक्स रेवेन्यू में 1.67 लाख करोड़ की कमी आएगी। इसलिए सरकार ने सार्वजनिक ख़र्च पर शिकंजा कस दिया है, ख़र्च को 1.6 लाख करोड़ रुपये घटा दिया है।
बजट 2019: टैक्स रेवेन्यू में गिरावट, सरकार ने ख़र्च से हाथ खींचा

यदि आप नव-उदारवादी हठधर्मिता द्वारा की गई बर्बादी को देखना चाहते हैं, तो मोदी सरकार के पहले शासन काल के अंतिम वर्ष के वित्त पर एक नज़र डालें। 5 जुलाई को संसद में पेश किए जाने वाले 2019-20 के पूर्ण बजट में यह विवरण सामने आएगा, लेकिन लेखा महानियंत्रक (सीजीए) के पास पिछले साल के ख़र्च और आय के बारे में सभी आंकड़े मौजूद हैं।

इस साल फ़रवरी में पेश किए गए अंतरिम बजट में, आम चुनावों से ठीक पहले, मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अनुमान लगाया था कि रेवेन्यू प्राप्तियों के रूप में उसे 7.3 लाख करोड़ रुपये की उम्मीद थी, जो मुख्य रूप से कर संग्रह से आनी थी। हालांकि, सीजीए से पता चलता है कि मार्च के अंत तक (जो वित्त वर्ष 2018-19 का अंत है), रेवेन्यूप्राप्तियां कुल 15.6 लाख करोड़ रुपये की रहीं। यह 1 करोड़ 65 लाख करोड़ रुपये की भारी कमी को दर्शाती है।

इस कमी के कारणों का पता लगाना कोई मुश्किल बात नहीं है। फ़रवरी में शुद्ध कर रेवेन्यूका अनुमान 14.8 लाख करोड़ रुपये लगाया गया था, जबकि मार्च के अंत तक मात्र 13.2 लाख करोड़ रुपये ही हासिल हुआ - जो सीधे-सीधे 1 करोड़ 74 लाख रुपये की कमी को दर्शाता है। यह बढ़ती जीएसटी की प्राप्ति, बेहतर आयकर अनुपालन, व्यापक कर शुद्ध के जाल और बड़े दावों के विपरीत की तस्वीर है।

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कर रेवेन्यूमें रेवेन्यूके विभिन्न अन्य स्रोतों को जोड़ने के बाद, सरकार की कुल प्राप्तियों का अंतिम आंकड़ा 16.66 लाख करोड़ रुपये रहा, जो अंतरिम बजट में अनुमानित 18.23 लाख करोड़ से कम रहा था।

यह विश्वास करना मुश्किल है कि वित्तीय वर्ष समाप्त होने से ठीक एक महीने पहले, सरकार को इस बात का कोई अंदाज़ा ही नहीं था, जोकि अपने आप में एक खेदजनक स्थिति है। इससे एकमात्र निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि चुनावों पर नज़र रखते हुए फ़रवरी में आंकड़े कृत्रिम रूप से बढ़ा दिए गए थे।

यह मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और वित्तीय गुरुओं के लिए काफ़ी प्रथागत सा है, जो रेवेन्यूकी कमी का सामना करने के बाद आवेग में आ जाते हैं। वे तुरंत ख़र्च में कटौती के वैश्विक नवउदारवादी नुस्खे को ट्राई करने लगते हैं, उनके अनुसार, जिसका अभ्यास सभी सरकारों द्वारा हर समय करना चाहिए, लेकिन विशेष रूप से यदि रेवेन्यूगिर रहा हो तो। अन्यथा, वे कहते हैं, कि घाटा बढ़ेगा, और किसी भी नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में ऐसा नहीं होना चाहिए।

भारतीय वित्त मंत्रालय के दिग्गज इस पौराणिक कथा में डूबे हुए है, और इसलिए, वे भी ख़र्च को निचोड़ रहे हैं, जैसा कि ऊपर दी गई तालिका में देखा जा सकता है। फ़रवरी में अंतरिम बजट में कुल व्यय का अनुमान 24.57 लाख करोड़ रुपये था, लेकिन मार्च में सीजीए से पता चलता है, कि यह वास्तव में 23.11 लाख करोड़ रुपये था। यानी इसमें 1 करोड़ 45 लाख रुपये की कटौती की गई है।

यह शिकंज़ा वित्तीय वर्ष के आखिरी महीने में कसा गया, यानी मार्च में। दरअसल, वित्त मंत्रालय ने पूरे साल भर में वित्त ख़र्च पर शिकंजा कसा था। और इसे विभिन्न ख़र्चों की तैयारी में किया गया था जो वर्ष समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो रहे थे। उदाहरण के लिए, इस वर्ष किसानों की आय के पूरक (पीएम-केसान) के लिए योजना की पहली किश्त के लिए 20,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जिसके बाद इस वर्ष 75,000 करोड़ रुपये की एक और किश्त दी जानी थी। तथाकथित सामाजिक सुरक्षा योजना सहित इस तरह के कई अन्य उदाहरणों का हवाला दिया जा सकता है। इस तरह के विशेष राजनीतिक निर्णयों के अलावा, किसी भी वर्ष को उठा कर देखें तो आप पाएंगे कि सरकार वित्तीय वर्ष के अंत यानी मार्च में ख़र्च को बढ़ा देती है। यह इस तरह के अंतिम-मिनट के ख़र्च को समायोजित करने के बाद की स्थिति है, साथ ही चुनाव संबंधी ख़र्च के बाद की भी है जो सरकार के ख़र्च में कमी के साथ समाप्त हो जाती है।

अब सवाल यह है: आगामी बजट में, सरकार कैसे इस गिरते रेवेन्यूके संकट से निपटने का प्रस्ताव करती है? यह लोगों के लिए चिंता का विषय है क्योंकि सरकार ऐसा होने पर ख़र्च में कटौती करने की इच्छा रखती है। और, यह ऐसे समय में ओर भी विनाशकारी होगा जब अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुज़र रही है, मांग बढ़ रही है, निवेश रुक रहा है, और बेरोजगारी बढ़ रही है।

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