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ब्रांडिंग और मार्केटिंग से जनता को लुभाने की कोशिश

प्रधानमंत्री जी की जनसभाओं के प्रसारण के दौरान यदि प्रायोजित कार्यक्रम (स्पॉन्सर्ड) या विज्ञापन (एडवरटाइजमेन्ट) का कैप्शन चलता रहे तो यह इनके तेवर और तौर तरीकों के साथ अधिक संगत होगा।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: India Today

पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री जी की जनसभाओं के प्रसारण के दौरान यदि प्रायोजित कार्यक्रम (स्पॉन्सर्ड) या विज्ञापन (एडवरटाइजमेन्ट) का कैप्शन चलता रहे तो यह इनके तेवर और तौर तरीकों के साथ अधिक संगत होगा। प्रधानमंत्री के इन कार्यक्रमों को मेगा शो की संज्ञा दी जाती है। सूरत में आयोजित ऐसे ही एक मेगा शो में प्रधानमंत्री जी ने युवाओं के साथ संवाद किया। चाहे वह सरदार पटेल की  विशालतम प्रतिमा हो या फिर कुंभ का आयोजन - प्रधानमंत्री जी की दिव्यता और भव्यता के प्रति ललक किसी से छिपी नहीं है। जब से राहुल गांधी के मार्केटिंग और मीडिया प्रबंधकों ने दुबई में राहुल-राहुल के नारे लगाती भीड़ के बीच तूफानी मेगा शो आयोजित कर यह जतलाया है कि मोदी जी की अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता का राज अब राज नहीं रहा तब से ऐसे मेगा शो की जरूरत महसूस हो रही थी।

प्रधानमंत्री जी ने सूरत में पूछा कि कौन ऐसा भारतीय होगा जिसे सरदार पटेल की इस विश्व की विशालतम प्रतिमा पर गर्व नहीं होगा? प्रधानमंत्री की इस गर्वानुभूति को साझा न करने वाले लोग नकारात्मकता फैलाने के दोषी एवं राष्ट्रद्रोही कहे जा सकते हैं। सरदार जिस सादगी और मितव्ययिता को अपने जीवन का मूल मंत्र मानते रहे उसका उपहास करने के सरकार के रचनात्मक तरीके पर हमें अवश्य ही गर्व होना चाहिए। हमें इस बात पर भी गर्व होना चाहिए कि देश की आजादी की लड़ाई के लिए कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने वाले इन दिवंगत महापुरुषों को कितनी कुशलता से एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है- नेहरू वर्सेस सुभाष, गांधी वर्सेस सुभाष, सरदार वर्सेस नेहरू गांधी वर्सेस सरदार आदि आदि।

गांधी-सुभाष-अम्बेडकर-सरदार सबकी स्मृति में शानदार संग्रहालयों के निर्माण का श्रेय प्रधानमंत्री जी के समर्थक उन्हें देते रहे हैं। दिव्यता और भव्यता की इस चकाचौंध में, इन महापुरुषों की जय जयकार के नारों के शोर में इनके मूल स्वर और स्वरूप को छिपते देखना हताशा उत्पन्न करता है। इन महापुरुषों के विचार भारतीय जनमानस की सहिष्णुता और सर्वसमावेशी प्रकृति के पोषक रहे हैं। भारत की चिंतन परंपरा के इन जीवित जाग्रत स्तंभों को शानदार विदाई देकर स्मृति शेष बनाया जा रहा है और यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि वे इन स्मारकों से बाहर न निकल पाएं। इनकी प्रतिमाओं को इतना विशाल बनाया जा रहा है कि जिस आम हिंदुस्तानी को इन्होंने अपना आदर्श माना था उस आम भारतीय के साथ उनका नाता टूट जाए। आम आदमी इन प्रतिमाओं को देखकर अपने बौनेपन को महसूस कर सके और इनके सेलिब्रिटी स्टेटस की चमक में खो जाए। एक और कवायद बहुत चुपचाप चल रही है। सोशल मीडिया के माध्यम से इन महापुरुषों के जीवन के नए पाठ गढ़े जा रहे हैं। कपोल कल्पित सत्यों के अजीबोगरीब खुलासों से भरी सोशल मीडिया की इन पोस्ट्स के माध्यम से इन महापुरुषों की छवि को या तो धूमिल किया जा रहा है या बदला जा रहा है। स्कूल कॉलेज के पाठ्यक्रम से इन्हें विलोपित किया जा रहा है, इनके विचारों के साथ घातक छेड़छाड़ की जा रही है। देश के किसी कोने में अचानक नाथूराम गोडसे का मंदिर बन जाता है, कुछ बुद्धिजीवी टेलीविज़न चैनलों पर उसके लिए सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं और उसकी निंदा करने से इनकार कर देते हैं। शहीद दिवस पर बापू का पुतला बनाकर उस पर पर गोली चलाई जाती है और महात्मा नाथूराम गोडसे अमर रहे के नारे लगाए जाते हैं। किंतु सरकार उदार है, वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की समर्थक है इसलिए इन पर होने वाली कार्रवाई प्रतीकात्मक होती है या फिर ऐसी घटनाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। दलितों और आदिवासियों के साथ हिंसा और अत्याचार का विरोध करने वालों के लिए सरकार इतनी सहिष्णु नहीं रहती।

सूरत में प्रधानमंत्री जी के संवाद का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक उपलब्धियों पर केंद्रित था। बजट प्रस्तुत किए जाने से पूर्व पिछले दो वर्षों के जीडीपी के आंकड़ों में बदलाव किया गया और चमत्कारिक रूप से इसमें वृद्धि हुई। बजट कैश एकाउंटिंग की पुरातन पद्धति के आधार पर तैयार किया गया है। सरकार एक्रूअल और कंसोलिडेटेड एकाउंटिंग की पद्धतियों को अपनाने से बचती रही है क्योंकि इनमें आंकड़ों में हेरफेर नहीं हो सकती। राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों के त्यागपत्र की वजह भी बेरोजगारी के आंकड़ों में छेड़छाड़ से उनकी असहमति बताई जा रही है। मुद्रा लोन के आंकड़ों पर सवाल उठते रहे हैं। यह नए उद्योग-व्यवसाय को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक मदद के स्थान पर अपने वोट बैंक को आकर्षित और उपकृत करने का एक जरिया बन गया है। अनेक आकलन दर्शाते हैं कि प्रधानमंत्री जी की प्रिय उज्ज्वला योजना भी छिपी हुई शर्तों के कारण असफल हुई। मार्च 2018 तक गैस कनेक्शन पर दी गई आर्थिक सहायता की भरपाई करने के लिए सरकार पहले 6 सिलिंडर पर सब्सिडी नहीं देती थी। विभिन्न अखबारों के सर्वेक्षण यह बताते हैं कि उज्ज्वला योजना के लाभार्थी सिलिंडर रीफिल या तो लेते ही नहीं हैं या लंबे अंतराल के बाद लेते हैं। इन्हें कंट्रोल की दुकानों से मिलने वाला केरोसिन भी बन्द कर दिया गया जिसे लेकर असंतोष फैला। अप्रैल 2018 से सब्सिडी मिलने पर भी सिलिंडर रीफिल लेने के लिए नकद रकम का अभाव भी परेशानी का सबब रहा है क्योंकि सब्सिडी तो बाद में बैंक खाते में जाती है। प्रधानमंत्री जी ने जनधन खातों का उल्लेख बड़े गौरव के साथ किया। समय समय पर अनेक मीडिया रिपोर्ट्स इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण करती रही हैं कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी जीरो बैलेंस वाले जनधन खातों की संख्या चिंताजनक रूप से अधिक है। सरकार के दबाव में बैंक कर्मचारी ऐसे खातों में स्वयं 1-2 रुपये डाल रहे हैं। इन खातों के मेंटेनेंस पर बैंकों की एक बड़ी राशि खर्च हो रही है। खातों में लेनदेन न होने के कारण बड़ी संख्या में ऐसे खातों को निष्क्रिय मान कर बन्द भी किया गया है। नोटबन्दी और जीएसटी के कारण बैंकों के कामकाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। कॉर्पोरेट ऋणों की वसूली न होने के कारण एनपीए बैंकों की माली हालत को और खस्ता बना रहा है। इस भयावह स्थिति को छिपाने के लिए सरकार बैंकों के विलय जैसे खतरनाक कदम उठा रही है। जबकि सरकार अच्छी तरह से जानती है कि बड़ा बैंक आवश्यक नहीं है कि मजबूत भी हो। मजबूती देने के नाम पर उठाया गया यह कदम कहीं सरकारी बैंकों का विनाश न कर दे। खतरनाक आर्थिक हालात से घबराई सरकार द्वारा रिज़र्व बैंक से 3.60 लाख करोड़ रुपये की मांग, उससे तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल की असहमति और इस्तीफे की सच्चाई तो सामने आते आते ही आएगी पर वित्त मंत्रालय की रिज़र्व बैंक कानून की धारा 7 को लागू करने की हड़बड़ी किसी से छिपी नहीं है जिससे वह जनहित के मुद्दों का हवाला देकर रिज़र्व बैंक के कामकाज को नियंत्रित कर सके।

मोदी सरकार की आर्थिक उपलब्धियों और नाकामियों के आकलन का हर प्रयास “मेरे आंकड़े-तेरे आंकड़े” और “सच्चे आंकड़े-झूठे आंकड़े” की अंतहीन और अर्थहीन बहस में उलझकर रह जाएगा। लेकिन एक सामान्य ट्रेंड देखने में यह आया है कि मानव विकास सूचकांकों और जीवन स्तर की बेहतरी के मानकों पर सरकार का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है। नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कदम आम लोगों के छोटे छोटे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में शायद कामयाब हुए हों किन्तु खास लोगों के बड़े बड़े भ्रष्टाचार को तो बढ़ावा मिलता ही दिखता है। छोटे लोगों के बड़े बड़े त्यागों की बुनियाद पर बड़े बड़े लोगों की छोटी और क्षुद्र ख्वाहिशें पूरी की जा रही हैं। प्रधानमंत्री जी की अर्थ नीतियों से मुक्त अर्थव्यवस्था का खुलापन तो नहीं आया बल्कि सरकारी नियंत्रण की वापसी जरूर हुई है। इन नीतियों से अब तक आम जनता के हिस्से में निजीकरण की लूट और शासकीय तंत्र का भ्रष्टाचार और निकम्मापन ही आए हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं जब पारदर्शी, भ्रष्टाचार मुक्त और तकनीकी पर आधारित अर्थव्यवस्था की बात करती हैं तो उनकी सोच में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साम्राज्य की स्थापना हेतु अनुकूल वातावरण तैयार करने का लक्ष्य ही होता है। देश के आर्थिक विकास पर भी प्रधानमंत्री जी के दिव्य और भव्य के प्रति आकर्षण की छाप दिखती है। उद्घाटन और शिलान्यास की आपाधापी में और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के विराट आर्थिक लक्ष्यों को साकार करने की हड़बड़ी में आम आदमी की अनदेखी लगता है उनसे बार बार हो रही है। सूरत में युवाओं के साथ संवाद के दौरान एक भी सवाल प्रधानमंत्री के मुहावरे में “नकारात्मक” नहीं था। सारे सवाल नितांत “सकारात्मक” थे। भारत का इतना खुशहाल स्वरूप अब तक विज्ञापनों में भी नहीं दिखा था। यदि यह आत्मप्रवंचना को दर्शाता है तो यह देखना दुःखद है कि एक ऐसा नेता जिससे देश की जनता ढेरों उम्मीद पाले बैठी थी, चाटुकारों की फ़ौज से घिरा हुआ है और उसे आत्मप्रशंसा के अलावा कुछ भी सुनना मंजूर नहीं है। लेकिन यदि यह मार्केटिंग की कोई रणनीति है तब बड़े खेद के साथ यह कहना होगा कि इसमें अमानवीयता का पुट है।

विदेश नीति के संबंध में प्रधानमंत्री जी ने कहा कि भले ही इजराइल और फिलिस्तीन के संबंध आपस में खराब हों, ईरान और सऊदी अरब के बीच मनमुटाव हो लेकिन इनमें से प्रत्येक देश के साथ हमारे संबंध मधुर हैं। किंतु हमारी वर्तमान विदेश नीति का एक आकलन यह भी हो सकता है कि बदलाव की इस प्रक्रिया में हमने पुराने मित्रों का विश्वास खोया है और नए मित्रों का भरोसा अर्जित करने में नाकाम रहे हैं। सच्चाई यह है कि विदेश नीति में परिवर्तन की इस प्रक्रिया में अभी तो पड़ोसी देशों के साथ हमारे संबंध पहले से खराब ही हुए हैं। कहा जाता था कि पाकिस्तान का अस्तित्व भारत विरोध की बुनियाद पर खड़ा हुआ है किंतु क्या भारत की विदेश नीति भी कथित पड़ोसी शत्रुओं के साथ वैमनस्य पर आधारित होनी चाहिए? क्या भारत की  शांतिप्रिय, गुटनिरपेक्ष वैश्विक छवि को राष्ट्र के लिए घातक माना जा सकता है? क्या सच्चे राष्ट्रवादी नेतृत्व की विदेश नीति की पहचान आक्रामक भाषा शैली ही है? क्या हम सैन्य शक्ति की धौंस बताते प्रसारवादी बड़े भाई का आक्रामक रूप ले सकते हैं और क्या यह हमारे लिए उचित है? क्या सरकार के इर्दगिर्द सक्रिय हिंदूवादी संगठनों का अल्पसंख्यक मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति दृष्टिकोण उन देशों के साथ हमारे संबंधों में संदेह का पुट नहीं ला रहा है जिनमें इन धर्मावलंबियों की बहुलता है या जो इन धर्मों द्वारा संचालित हैं? क्या सत्ताधारी दल का दक्षिणपंथी रुझान रूस जैसे देशों के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाने में एक मानसिक अवरोध उत्पन्न नहीं कर रहा है? यह वे सवाल हैं जो पूछे जाने चाहिए।

सरकार के इस कार्यकाल का आकलन करने के लिए “बदलाव” और “बदला” में कौन सा शब्द उपयुक्त रहेगा यह जनता को तय करना होगा। जब यह तय होगा तो हम यह भी तय कर लेंगे कि प्रधानमंत्री जी परिवर्तनवादी हैं या प्रतिक्रियावादी। प्रधानमंत्री जी को 2014 में निर्णायक जनादेश विकास और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के लिए मिला था। किंतु जिस आम आदमी ने उन्हें यह जनादेश दिया था वह ही विकास के एजेंडे से नदारद है अलबत्ता विकास की मार्केटिंग के लिए उसे पोस्टर ब्वॉय बनाना सरकार की मजबूरी है। पिछले कुछ समय से अगर जनता में यह धारणा घर कर रही है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे का उपयोग सरकार द्वारा राजनीतिक विरोधियों को निपटाने के लिए किया जा रहा है तो अवश्य ही इस धारणा का कोई न कोई आधार होगा। बहरहाल इसका दुष्परिणाम यह हुआ है भ्रष्टाचार ने एक मुद्दे के रूप में अपनी अहमियत खो दी है। प्रधानमंत्री जी ने परिवारवाद का खुल कर विरोध किया है किंतु आंतरिक लोकतंत्र का अभाव, निर्णय लेने की शक्ति का एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रित हो जाना और चाटुकारिता को प्रश्रय यदि परिवारवाद के दोष हैं तो यही अधिनायकवाद के भी लक्षण हैं जिससे ग्रस्त होने का आरोप प्रधानमंत्री जी पर लगता रहा है। पता नहीं इसे प्रधानमंत्री जी अपनी सफलता मानते हैं या विफलता कि अपने सहयोगियों के द्वारा उन्होंने नॉन इश्यूज पर विमर्श को केंद्रित कर दिया है और अयोध्या में राम मंदिर जैसे ढेरों मुद्दे रोज प्रकट हो रहे हैं और इन पर जनता को सोचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। आधुनिक राजनीतिक विमर्श को एक ऐसी परीक्षा में बदल दिया गया है जिसमें पूछे गए प्रश्न ही असंगत हैं, उत्तर के रूप में सुझाए गए विकल्प भी अनुपयुक्त हैं किंतु परीक्षार्थी की मजबूरी यह है कि उन्हें इन्हीं में से ही चयन करना है। इस सरकार के कार्यकाल की एक और विशेषता यह रही है कि सारी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता(अविश्वसनीयता) और कार्य प्रणाली चौक चौराहों पर चर्चा और जन समीक्षा का विषय बन गई है। न्यायपालिका, सेना, सीबीआई, आरबीआई,चुनाव आयोग जैसी देश की आधारभूत संरचनाओं के प्रमुख निस्संकोच जनता में बयानबाजी कर रहे हैं। सरकार की इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप की चर्चा आम है। विपक्षी दल इन संस्थाओं की आलोचना में सारी सीमाएं और मर्यादाएं लांघ रहे हैं। यह सरकार की प्रशासनिक अक्षमता है जिसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार के विश्वास के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। एक घातक स्थिति विभाजनकारी विमर्श का फैलाव है। बहुसंख्यक अपनी समस्याओं के लिए अल्पसंख्यकों को दोषी समझें। सवर्ण अपनी समस्याओं के लिए वंचितों को उत्तरदायी मानें। अल्पसंख्यक और वंचित बहुसंख्यकों और सवर्णों पर दोष मढ़ें। राज्यों और केंद्र के मध्य तनाव बढ़े। नारियों की समस्याओं को हिंदू नारी और मुस्लिम नारी की समस्याओं में बांट कर देखा जाए। वर्तमान सरकार शायद इस तरीके से राजनीतिक बाजी जीत ले पर कहीं देश और देशवासी पराजित न हो जाएं।

मोदी जी की नजर पहली बार मतदान करने वाले युवाओं पर है जिनके सम्मुख वे स्वयं को परिवारवाद और भ्रष्टाचार के घातक गठबंधन से संघर्ष करते एक साहसी आम आदमी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। पिछली बार किए गए वादों को पूरा करने में अपनी लगभग मुकम्मल नाकामी को छिपाने के लिए वे सत्तर साल के कुशासन और गड्ढे पाटने जैसे मुहावरों का सहारा ले रहे हैं। उनके मार्केटिंग प्रबंधक मार्केटिंग के इस बुनियादी सिद्धांत को भूल रहे हैं कि बेहतरीन विज्ञापन के बाद जब घटिया उत्पाद परोसा जाता है तो ग्राहक की नाराजगी चरम पर होती है। वोकल और प्रोएक्टिव होना अच्छा होता है लेकिन हमेशा नहीं। सत्ता पक्ष में होते हुए प्रधानमंत्री विपक्षी की भांति आक्रामक हैं। पर उनके यह हमले राहुल गांधी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न कर रहे हैं। जनता राहुल को ऐसे नायक के रूप में देख रही है जिसे उसके प्रतिद्वंद्वी लांछित करते हैं, उपहास का पात्र बनाते हैं, अपमानित करते हैं किंतु वह हौसला नहीं खोता और अंततः विजयी होता है। प्रधानमंत्री परसेप्शन बनाने की कला में पारंगत हैं किंतु वह यह देख नहीं पा रहे हैं उनकी कोशिशें उनके विरुद्ध ही परसेप्शन का निर्माण कर रही हैं और जनता कहीं उन्हें उन गलतियों की सजा भी न दे दे जो उन्होंने की नहीं हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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