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भाग 4 - कोयले की मौत पर सवाल: नवीकरणीय ऊर्जा पर बड़बोलापन और इससे जुड़ी आशाएं

नवीकरणीय ऊर्जा में नीतिगत कटौतियों और इसके अर्थशास्त्र के चलते कोयला अब एक ज़्यादा बेहतर मददगार के तौर पर सामने आता है।
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पांच हिस्सों वाली सीरीज़ का यह चौथा भाग है, जिसमें हम जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा की ओर जाने की वैश्विक और भारतीय प्रतिबद्धताओं का परीक्षण कर रहे हैं। क्यों कोयला भारत में भविष्य में भी प्रासंगिक रहेगा? क्यों नवीकरणीय क्षमताओं से जीवाश्म ईंधन को बदलना अपने आपमें संकटकारी है? जबकि नवीकरणीय संसाधन स्वच्छ होने से काफ़ी दूर हैं।

भारत की ऊर्जा जरूरतें 2020 के दशक के आखिर तक चीन से भी ज्यादा  हो जाएंगी। बीपी एनर्जी आउटलुक 2018 के मुताबिक़ भारत में ऊर्जा खपत हर साल 4.2 फ़ीसदी से भी ज्यादा तेजी से बढ़ रही हैं। यह दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में सबसे ज़्यादा है। इसलिए यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि भारत निःकॉर्बानिकरण के अपने लक्ष्यों की तरफ प्रगति करे।

कोयला

हाल में कोयला नीति आई है, वो भारत के ऊर्जा ढांचे के केंद्र में है। इसके तहत कोयला भारत के बिजली उत्पादन में दो तिहाई हिस्सा रखेगा। भारत के 5 ट्रिलियन डॉलर की इकनॉमी बनने के लिए हमारी कोयले से गलबहियां जरूरी हैं।  

यहां उठ रहे सवालों के दो पहलू हैं: क्या भारत "ग्रीन लक्जरी" या "हरित विलासिता" का वहन कर सकता है। या फिर अपनी नवीकरणीय प्रतिबद्धताओं के लिए भारत को अपने हिसाब से वक़्त लेना चाहिए (नीचे पेरिस समझौते में भारत की सहमति से संबंधित चार्ट देखिए)।

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- भारत की ऊर्जा मांग 2040 तक दोगुनी हो जाएगी।

- 2017 में चीन की तुलना में भारत की मांग 30 फीसदी थी, जो 2040 में 50 फ़ीसदी हो जाएगी।

- 2016 में वैश्विक मांग में भारत की हिस्सेदारी 5 फ़ीसद थी, जो 2040 में बढ़कर 11 फ़ीसदी हो जाएगी।

- आर्थिक सर्वे में स्पष्ट किया गया है कि उच्च मध्यम आय वाले देश का दर्जा पाने के लिए भारत को अपनी प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत चार गुनी बढ़ानी होगी।

आखिर मांग की इस तस्वीर में नवीकरणीय ऊर्जा और कोयला कहां फिट बैठते हैं।

हरित विकास

भारत ने सबसे बड़े हरित ऊर्जा उत्पादकों में से एक बनने का वायदा किया था। इसके तहत  2022 तक 175 GW की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं की स्थापना की जानी थी। इसमें से 100 GW सौर, 60 GW पवन, 10 GW बायोमास और 5 GW  छोटे हाइड्रोपावर से हासिल की जानी थी। लेकिन अब इसकी कोई उम्मीद नहीं है, जबकि हमारी मांग और आपूर्ति दोनों निश्चित बढ़ रही होंगी।

2040 तक ऊर्जा क्षेत्र को चार गुना करने का मतलब है कि इसमें 2 ट्रिलियन डॉलर का निवेश किया जाएगा। Worldcoal.org का मानना है कि विद्युतीकरण की रणनीति में बड़े स्तर पर ऊर्जा उत्पादन केंद्र में होगा। कोयले से बनने वाली  ऊर्जा का 2040 तक दोगुना होने का अंदाजा है।

इसमें कहा गया कि कोयले से उभरते शहरों, उद्योगों और व्यापार को ऊर्जा मिलेगी, जो भारत के विकास के मुख्य चालक हैं। "हालांकि सौर ऊर्जा से ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को ऊर्जा की आपूर्ति होगी"। इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंसियल एनालिसिस के मुताबिक़, गौर करने वाली बात है कि दुनिया के निर्माणाधीन सबसे बड़े 10 सौर पार्कों में से आधे भारत में हैं।

हरित ऊर्जा को आशा से देखने वाले पश्चिमी विश्लेषकों का मानना है कि नवीकरणीय क्षमताएं बनाना कोयला संयंत्र से सभी बड़े बाजारों में सस्ता पड़ता है। इसके लिए यह तर्क दिए जाते हैं:

- मौजूदा कोयला संयंत्रों में से आधों को चलाना नयी नवीकरणीय क्षमताओं को बनाने से ज्यादा महंगा है।

- 2030 तक सभी जगह कोयला संयंत्रों को चलाना नवीकरणीय क्षमताओं को स्थापित करने से ज्यादा महंगा हो जाएगा। इसका मतलब होगा की निवेशकों के कोयला संयंत्रों में लगे करीब 600 बिलियन डॉलर डूब जाएंगे।

तर्क के विपक्ष में तर्क

उपरोक्त तर्क अमेरिका और यूरोप के अनुभवों पर आधारित है, जहां संयंत्र पुराने हो रहे हैं और ऊर्जा की मांग में कमी आ रही है। अगर उनके तर्क सही होते तो G 7 का सदस्य जापान नवीकरणीय ऊर्जा पर अपना भरोसा क्यों नहीं दिखाता? जबकि इस क्षेत्र से वहां 17 फ़ीसदी बिजली की आपूर्ति होती है। नवीकरणीय क्षेत्र में काफ़ी देखी और अनदेखी दिक्कतें हैं।

नीतिगत वजहों से लेकर आर्थिक पहलू तक, तमाम व्यावहारिक वजहों से कोयला एक अच्छे साथी की तरह सामने आता है, जिसका साथ नवीकरणीय ऊर्जा निभा रही है। वैश्विक स्तर पर कोरोना के बाद, सरकारें 500 गीगावॉट की क्षमता वाले नए कोयला संयंत्रों के लिए सब्सिडी दे रही हैं। कार्बन पर नजर डालने वाले एक विश्लेषण के मुताबिक इनकी कीमत 630 बिलियन डॉलर से ज्यादा होगी।

 जापान के मामले में सबसे बड़ी दिक्कत का ज़मीन की है। इसके चलते बड़े स्तर के सौर और पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने में मुश्किल होती है। वहां ऊर्जा बाज़ार के नियमों में भी कुछ जटिलताएं हैं, जिनसे पवन और सौर ऊर्जा उपकरणों और क्षमताओं की कीमत बहुत ज्यादा बनी हुई है। एक ऐसा देश को फुकुशिमा जैसी आपदा का सामना कर चुका है, जिसकी उसने बड़ी क़ीमत चुकाई है, उसके लिए भी हरित ऊर्जा अगर प्रासंगिक नहीं होना रही है, तो कुछ तो वजनदार मुद्दे होंगे ही।

भारत की तरह जापान ने भी महसूस किया है कि अगर वह एक ही साथ अपने आर्थिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को पाना चाहता है, तो अपने सारे विकल्प नवीकरणीय ऊर्जा माध्यमों के हवाले नहीं छोड़े जा सकते। दोनों देश कार्बन से गति पाने वाले अपने भविष्य के लिए वैश्विक और घरेलू दबाव सहने के लिए तैयार हैं।

 अब हम वास्तविक अनुभव की बात करते हैं। विक्रम सोलर भारत की अग्रणी सौर उपकरण निर्माता कंपनी थी। उसने भी 2020 में अपने हाथ खड़े कर दिए और कहा कि उसकी नीतियां काम नहीं कर पा रही हैं। 

कंपनी जब बंगाल यूनिट से 320 कर्मचारियों को निकाल रही थी, उसने प्रेस रिलीज़ में कहा, "घरेलू सौर ऊर्जा उद्योग लंबे समय से सामान स्तर के प्रतिस्पर्धी ज़मीन बनाए जाने की वकालत कर रही है। लेकिन धीमी होती अर्थव्यवस्था, लगातार बदलने वाली नीतियों को लागू किया जाना, प्रतिकूल व्यापार नीतियां और तरलता संकट ने इस क्षेत्र को पिछले कुछ महीनों में बुरी तरह हिला दिया है।  ऊपर से हाल में वैश्विक घटनाओं ने आपूर्ति श्रृंखला पर नकारात्मक असर डाला।"

2018 और 2019 दोनों की सौर और पवन नीलामी काफ़ी ठंडी रही। क्योंकि:

- निर्माताओं ने नीलामी की दर ऊंची रखीं।

-  निविदाओं के लिए ऊपरी टैरिफ सीलिंग काफ़ी कम रही (मई, 2019 में 1 गीगावॉट के गुजरात फोटोवोल्टिक टेंडर, जो कई बार आगे बढ़े थे, उनमें 700 मेगावॉट के टेंडर खाली रह गए।)

- सितंबर में CRISIL ने बताया कि  नवीकरणीय ऊर्जा में निर्माताओं का रुझान कम हो रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा नीलाम किए गए 64 गीगावॉट के प्रोजेक्ट में से 26 फ़ीसदी को नीलामी लगाने वाले ही नहीं मिले। दूसरे 31 फीसदी को नीलामी के बाद आवंटन में देरी का सामना करना पड़ा।

दिसंबर, 2019 तक  सौर नीलामी की गतिविधियों में कोई सुधार नहीं किया गया। सिर्फ़ एक बड़ी नीलामी हुई। बल्कि सरकार चलताऊ टैरिफ के व्यापार को समझ ही नहीं पाई। चीन और मलेशिया से आने वाले उत्पादों पर 25 फीसदी की शुल्क लगाई है, जो अगले दो सालों में 15 फीसदी कर दी गई। इसका मक़सद  घरेलू निर्माताओं को सुरक्षा देना था।

यह सरकार के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के साथ कदमताल करता नजर आता है। कास्ट लेरेघ एसोसिएट्स की भारत में नवीकरणीय ऊर्जा विषय पर लिखी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, "ऐतिहासिक तौर पर भारत में आयात होने वाले सौर उपकरणों में से 90 फ़ीसदी मलेशिया और चीन से आते थे। बढ़ती मांग के लिए घरेलू आपूर्तिकर्ता इसकी उपलब्धता सुनिश्चित नहीं कर पाए। इसके चलते सौर प्रोजेक्ट की कीमतों में उछाल आ गया, क्योंकि इन्हें बाहर से आने वाले उपकरण खरीदने पर रहे थे, जो महंगे थे। या फिर निवेशकों ने इस बाहर से आने उपकरणों पर लगने वाली शुल्क के हटने के लिए इंतज़ार किया।"

नवीकरणीय ऊर्जा से जुड़ी दूसरी साझा चिंताएं हैं। जैसे ग्रिड का ऊर्जा उत्पादन से जुड़ाव की समस्या। भारत में तकनीकी दिक्कत के अलावा, दो राज्यों के बीच बिजली व्यापार की रोका जाता है। ग्रिड में कटौती से भी पवन ऊर्जा क्षेत्र में खराब हालत बने हैं। राज्यों के बीच बिजली का आपसी व्यापार और सरकार द्वारा वितरण और हस्तांतरण पर ध्यान केंद्रित कर इन मुद्दों को सुलझाया जा सकता है।

सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या इस क्षेत्र में जो टैरिफ दिए गए थे, उन्हें बरकरार रखा जा सकता है? क्योंकि यही विकास के चालक रहे हैं।

CRISIL की सितंबर 2019 के अनुमान मौजूदा स्थितियों में अहम हो जाते हैं। 2019 में भारत की "इंस्टॉल्ड कैपेसिटी" 40 गीगावॉट है, जो 2022 में बढ़कर 104 गीगावॉट हो जाएगी। जबकि सरकारी लक्ष्य 175 गीगावॉट का था। यह लक्ष्य से 42 फ़ीसदी कम रहेगा। 2018 से 2024 के बीच नवीकरणीय क्षमता को चार गुना करने की बात लगातार जोर शोर से की जा रही थी। रिपोर्ट के मुताबिक़, "ऐसा मौजूदा नीतियों के लगातार बदलने और टैरिफ की दिक्कतों की वजह से है।" इस रिपोर्ट में 2022 तक अपने लक्ष्य को पूरा ना कर पाने के लिए नीतियों और टैरिफ सीमाओं को दोषी ठहराया गया है।

कोयले का फायदा

इसके बाद भारत के कोयले का भविष्य क्या होगा? यह इं चीजों से तय होगा:

- मौजूदा खनन अर्थशास्त्र और नए कोयला संयंत्रों से। भारत में स्पष्ट तौर पर खनन में उछाल आने वाला है। जबकि कार्बन ट्रैकर का  कहना है कि दुनिया के 95 फ़ीसदी कोयला संयंत्रों का पूंजी प्रवाह दब गया है। चीन में 59 फ़ीसदी संयत्र नुकसान पर काम कर रहे हैं। चीन की कुल क्षमता 982 गीगावॉट की है, जबकि 206 गीगावॉट अभी निर्माणाधीन है।

-  भारत में सरकार का ध्यान ऊर्जा के लिए कोयले को आधार बनाए रखने और साथ में नवीकरणीय ऊर्जा को  चलने देने पर है। यह तब है, जब भरोसेमंद विश्लेषणों में बताया गया है कि भारत में 51 फीसदी कोयला संयंत्र ऐसे हैं, जिन्हें चलने पर ही नई नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं को बनाने से ज्यादा खर्च आता है। अमेरिका के लिए 47 फ़ीसदी संयंत्रों में ऐसा है, जबकि यूरोपियन यूनियन में 62 फ़ीसदी संयत्र नुकसान पर काम करते हैं और सरकार की सब्सिडी से चलते हैं।

- कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन एंड स्टोरेज (CCUS) जैसी उभरती हुई तकनीकों से  कोयले को कुछ हद तक साफ़ किया जा सकता है। (CCUS एक ऐसा समाधान है, जिसमें CO2 को पर्यावरण में उत्सर्जित होने से रोका जाता है।सरकारों, उद्योगों और निवेशकों के बीच CCUS पर बेहतर समन्वय से पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाया जा सकता है और व्यावसायीकरण को चलाया जा सकता है।

- नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं के विस्तार की बाधाएं, जिनपर ध्यान नहीं दिया गया, यह विस्तार नीतिगत समर्थन के बावजूद लाभ नहीं दे पाया।

इसे कहने का कोई फायदा नहीं है कि भारत दुनिया के सबसे बड़े नवीकरणीय बाजारों में से एक है। फिर भी मानना होगा कि यहां तस्वीर में जरूरत से ज्यादा भाषणबाजी है, जो बहुत अधिक सकारात्मक रवैया रखने की कोशिश करती है। इसमें कम टैरिफ की घोषणाएं, संयंत्रों को लगाने की बड़ी दर और सरकारी निविदा योजनाओं की बात होती हैं।

 इसमें नवीकरणीय ऊर्जा प्रदर्शन की बात भी होती है, जो वायदे से बहुत ज्यादा भटक चुकी है। कार्बन ट्रैकर जैसे विश्लेषकों द्वारा कुछ बहुत जरूरी बातें दोहराई जाती हैं। जैसे - सरकारों को जरूरत है कि अब सिर्फ वो नवीकरणीय ऊर्जा के अपने मौजूदा बेड़े को ही ना देखें, अब उन्हें अपने आने वाले कोयला प्रोजेक्ट को रद्द करना चाहिए। नहीं तो 600 बिलियन के निवेश का कोई मतलब नहीं निकलेगा। न ही पेरिस समझौते में बनाए  गए लक्ष्यों की पूर्ति होगी।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो 1980 से कोयले पर लिख रही हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखे मूल आलेख के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Questioning the Death of Coal-IV: Hype and Hope on Renewable Energy

भाग 1 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

भाग 2 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

भाग 3 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : एशियाई भूख और काला हीरा

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