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भागवत प्रस्ताव रखते हैं, आदित्यनाथ उस पर पानी फेर देते हैं: आरएसएस में बदलाव की कहानी?

आरएसएस प्रमुख हिंदुत्व को नरम करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसके नेताओं की बयानबाज़ियां बदलाव की इन तमाम बातों को गुड़-गोबर कर देती हैं।
भागवत

सितंबर 2018 में 60 से ज़्यादा देशों के राजनयिकों सहित अलग-अलग तबकों से आये दर्शकों के सामने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने ‘आरएसएस के नज़रिये से भारत का भविष्य’ विषय पर तीन दिवसीय व्याख्यान श्रृंखला में अपनी बात रखी। उस भाषण में भागवत ने कहा, "हिंदू राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि यहां मुसलमान नहीं होना चाहिए। जिस दिन यह कहा जाएगा कि मुसलमान यहां नहीं होंगे, तो हिंदुत्व भी नहीं होगा। दार्शनिक लहज़े वाले उनके इस बयान ने बहुत सुर्खियां बटोरी थी।

अब 12 सितंबर, 2021 को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के उस बयान पर ज़रा ग़ौर करते हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में एक सार्वजनिक भाषण में उन्होंने कहा था, “आज राशन मिल रहा है। क्या आपको यह राशन 2017 से पहले मिल रहा था? उस समय तो 'अब्बा जान' कहने वाले इस राशन को हजम कर जाते थे।” मीडिया और उनके दर्शक को पता है कि "अब्बा जान" मुसलमानों के लिए इस्तमाल किया जाने वाला एक सांकेतिक शब्द है। आदित्यनाथ ने अब्बा जान कहे जाने वालों के ख़िलाफ़ नौकरी गर्क कर जाने, रोमियो बनकर सड़कों के किनारे महिलाओं को परेशान करने, और दंगा करने को लेकर ज़हर उगलना शुरू कर दिया।

आदित्यनाथ की टिप्पणी से ऐसा लगता है कि हिंदुत्व को अपने दर्शन को समृद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए मुसलमानों की ज़रूरत है। आरएसएस से जुड़ी भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों को शैतान बनाकर हिंदुओं को एकजुट करने के लिए जाति-वर्ग के विभाजन को ख़त्म करने की उम्मीद करती है। यह सब तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से चल रहा है और उत्तर प्रदेश में होने वाले अगले साल के विधानसभा चुनाव के क़रीब आने के साथ इस तरह की बयानबाज़ी में तेज़ी आने की उम्मीद है।

तो, फिर सवाल उठता है कि क्या आदित्यनाथ झूठ पकड़ने वाले सरीखे कोई इंसानी संस्ककरण तो नहीं, जिसे यह दिखाने के लिए डिज़ाइन किया गया हो कि हिंदुत्व पर भागवत की व्याख्यायें महज़ बौद्धिक ढोंग हैं, जिन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए ?

दरअस्ल, भागवत का 2018 का वह व्याख्यान इकौलती मिसाल नहीं है, जब उन्होंने हिंदुत्व को उदार करने की मांग की थी। इस महीने की शुरुआत में पुणे स्थित ग्लोबल स्ट्रैटेजिक पॉलिसी फ़ाउंडेशन की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में भागवत ने ऐलान किया था, “हिंदुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं। हमारी मातृभूमि और हमारा गौरवशाली अतीत हमारी एकता का आधार है।” उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा राष्ट्रीय एकता की नींव है। इस परंपरा का नाम हिंदू है, जिसे लेकर उन्होंने कहा, "यह कोई भाषाई या सामुदायिक पहचान नहीं है।" उन्होंने इस परंपरा को "मनुष्य के विकास" का श्रेय दिया।

दो महीने पहले 4 जुलाई को ग़ाज़ियाबाद में एक किताब के विमोचन पर भागवत ने कहा था कि सभी भारतीयों का डीएनए एक ही है, चाहे वह किसी भी धर्म के हों। उन्होंने कहा था कि जो लोग लिंचिंग में शामिल हैं,वे हिंदुत्व के ख़िलाफ़ हैं। इसके उलट प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह भले ही संवैधानिक रूप से भारतीय नागरिकों की रक्षा के लिए बाध्य हों, मगर उन्होंने कभी भी मुसलमानों की हत्या करने वालों की निंदा नहीं की है। भागवत यह तर्क देते हुए "हिंदुओं के वर्चस्व" की आलोचना करते हैं कि हिंदू-मुस्लिम कलह का एकमात्र समाधान संवाद है।

हालांकि, मुंबई और ग़ाज़ियाबाद में भागवत के भाषणों में ऐसे सूत्र भी हैं, जिसमें आरएसएस को लेकर कई नागरिकों, ख़ास तौर पर मुसलमानों के संदेह को और गहरा करने की गुंज़ाइश है।

मसलन, मुंबई में भागवत ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों से "मुस्लिम समुदाय के कुछ तबकों की ओर से किये जा रहे पागलपन का विरोध करने" की अपील की थी। पागलपन से उनका मतलब शायद धार्मिक अतिवाद और हिंसा से था। विश्लेषकों का कहना है कि हिंदुत्व ब्रिगेड ने हाल के सालों में मुसलमानों के कुछ हिस्सों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा इस "पागलपन" का इज़हार किया है। सवाल है कि भागवत हिंदू बुद्धिजीवियों से वही अपील क्यों नहीं कर पाते हैं ? ऐसे में सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या भागवत मुस्लिम कट्टरपंथ की प्रतिक्रिया के रूप में हिंदू अतिवाद को उचित तो नहीं ठहरा रहे हैं ?

भागवत ने ग़ाज़ियाबाद में दिये गये अपने भाषण में हिंदू-मुस्लिम विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत की पेशकश की। लेकिन,उन्होंने इस कलह की प्रकृति का विश्लेषण नहीं किया। अगर उन्होंने ऐसा किया होता, तो उन्हें यह एहसास होता कि हिंदू-मुस्लिम संघर्ष की जड़ में संघ की ओर से सदियों पहले मंदिर मानी जाने वाली मस्जिदों को सौंपने जैसी मुसलमानों से की जाने वाली स्थायी मांगें हैं । (भागवत के गाजियाबाद भाषण का विश्लेषण यहां पढ़ा जा सकता है।)

इसके बावजूद, भागवत एक तरह से आरएसएस में एक वैचारिक बदलाव को गढ़ते तो दिख ही रहे हैं। हिंदुत्व की पारंपरिक रुख़ यही रहा है कि वे ही "सच्चे भारतीय" हैं, जिनके लिए भारत उनकी जन्मभूमि और पवित्र भूमि है या फिर जो इस देश के मूल निवासी हैं। दूसरे शब्दों में, जिनके धर्मों का जन्म भारत में नहीं हुआ है, उनमें दूसरे देशों के प्रति निष्ठा का होना लाज़िमी है। यह रुख़ मुसलमानों और ईसाइयों को बाहरी क़रार देता है। आरएसएस के दूसरे प्रमुख एम एस गोलवलकर ने कम्युनिस्टों के अलावा इन दोनों समुदायों को भारत के "अंदरूनी दुश्मन" के रूप में वर्णित किया था।

भागवत ने मुसलमानों और ईसाइयों पर हिंदुत्व के इस पारंपरिक रुख़ को ख़ारिज कर दिया है। हिंदू और मुसलमानों के न सिर्फ़ पूर्वज और डीएनए एक हैं, बल्कि भारत दोनों के लिए मातृभूमि है, क्योंकि वे यहीं पैदा हुए हैं।

इसके अलावा, ग़ाज़ियाबाद के अपने भाषण में भागवत ने मुसलमानों से कहा कि "इस डर के चक्र में फ़ंसने की ज़रूरत नहीं कि इस्लाम भारत में ख़तरे में है।" उनका रुख़ आरएसएस के उन लोगों से उलट है, जो मानते हैं कि मुसलमानों का हिंदूकरण होना चाहिए, जैसा कि वाल्टर के एंडरसन और श्रीधर डी दामले ने अपनी किताब ‘द आरएसएस: ए व्यू टू द इनसाइड’ में भी बताया है। भागवत का यह रुख़ आरएसएस के दूसरे तबके के इस विश्वास के अनुरूप ही है कि मुसलमानों का भारतीयकरण करने की ज़रूरत है।

इस भारतीयकरण शब्द में शाब्दिक नयापन हैं। मिसाल के तौर पर, भागवत ने हिंदू के रूप में भारतीय या भारतीय परंपरा का नाम देकर उसे और ज़ोरदार बना दिया है। भारतीय मुसलमानों का विरोध नाम के इस बदले जाने से ही है क्योंकि इसका इस्तेमाल अक्सर उनके वैध अधिकारों को कुचलने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, अयोध्या विवाद संघ के इस तर्क पर आधारित था कि मुसलमानों को भगवान राम के प्रति सम्मान दिखाने के लिए बाबरी मस्जिद पर अपने दावे को छोड़ देना चाहिए। इसके पीछे का तर्क यही था कि यह उनकी भी विरासत है।

भागवत के हाल के इन भाषणों की व्याख्या करने के और भी तरीक़े हैं। satyahindi.com के यूट्यूब चैनल पर एक पैनल चर्चा में ज़ाहिर किया गया एक विचार यह मानता है कि उनकी ये व्याख्या हिंदुत्व के उस तीव्र मुस्लिम विरोधी धार को कुंद करने और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को मुसलमानों को लेकर उनकी उन अजीब-ओ-ग़रीब धारणाओं को दूर करने के लिए तैयार किया किया गया है, जिन्हें उनके भीतर एक सदी से भरे जाते रहे हैं। पैनलिस्टों का कहना था कि आरएसएस को वैचारिक रूप से दुरुस्त करने के भागवत की इस कोशिश में समय लगेगा।

इसे लेकर एक दूसरा नज़रिया भी है और वह यह है कि हिंदुत्व पर भागवत की यह व्याख्या उन उदार हिंदुओं को सम्बोधित करने के लिए तैयार की गयी है, जो लगातार नफ़रत और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देने वाली भाजपा से मोहभंग महसूस करते हैं। उनकी इस उदार भाषा से मुसलमानों का डर भी दूर हो जायेगा और उन्हें उस पार्टी के पीछे लामबंद होने से रोका भी जा सकेगा, जिसे भाजपा को हराने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में माना जाता है। हालांकि, इस सिद्धांत में एक खामी है और वह यह है कि भागवत के ये बयान चुनावी मैदान के लिए ज़्यादा मायने नहीं रखते।

फिर भी, आदित्यनाथ का कुशीनगर वाला भाषण आरएसएस प्रमुख की खुली नाफ़रमानी है। भागवत ने अभी तक आदित्यनाथ को सार्वजनिक रूप से फटकार नहीं लगायी है। अगर मोदी और शाह भी उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण करने के लिए इस आज़मायी हुई राजनीति का ही सहारा लेते हैं, तो यह धारणा टूट जायेगी कि कई शाखाओं में फैले संघ पर आरएसएस प्रमुख का नियंत्रण है।

फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि भागवत जो कुछ करते हैं, आदित्यनाथ उस पर पानी फेर देते हैं। यही वजह है कि आरएसएस के वैचारिक बदलाव की सारी बातें झूठी लगती हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bhagwat Proposes, Adityanath Disposes: What’s RSS Makeover About?

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