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भारत बंद : किसानों को मिला पूरे देश से समर्थन 

मोदी सरकार अंधेरे में तीर चला रही है क्योंकि उसकी आर्थिक नीतियों को प्रतिबद्ध लोगों का आंदोलन चुनौती दे रहा है।
भारत बंद

इतिहास के बारे में एक प्रसिद्ध कहावत को कि ऐसा वक़्त भी होता हैं जब बिना कुछ हुए वर्षों बीत जाते हैं, फिर वर्षों के बीत जाने के बाद ऐसे सप्ताह आते हैं। पिछले कुछ हफ्तों में भारत में यही हुआ है। लगभग एक पखवाड़े के बाद ये लगने लगा कि मोदी की अजेय सरकार बुरी तरह से लड़खड़ा रही है और अंधरे में तीर चला रही है, क्योंकि वह बड़े पैमाने के आंदोलन से निपटने में असमर्थ है, जिसने देश में हलचल मचा दी है, और अंतरराष्ट्रीय स्तर की टिप्पणी करने पर मजबूर कर दिया है।

राजधानी दिल्ली में प्रवेश करने वाले सभी प्रमुख राजमार्गों पर दसियों हज़ारों किसान डेरा डाले बैठे हुए हैं, देश भर में हजारों अन्य लोगों ने इस आंदोलन के प्रति एकजुटता में कार्रवाई की है, श्रमिक और कर्मचारी समर्थन में सामने आए हैं, और यहां तक कि मध्यम वर्ग भी हिल गया है और हड़कंप मच गया है। वार्ता में गतिरोध आने से वार्ता समाप्त हो गई है क्योंकि सरकार अभी इस बात को पहचान नहीं पा रही है कि वह क्या झेलने जा रही है।

अब, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और उनके सलाहकारों ने जो कल्पना की थी बात उससे कहीं आगे निकल गई है। किसानों ने 8 दिसंबर को भारत बंद ’या आम हड़ताल का आह्वान किया है। सेंकड़ों संगठनों की तरफ से समर्थन मिल रहा है जिसमें 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों सहित किसानों और समाज के अन्य वर्गों के संगठनों शामिल हैं जो इस होने वाले विशाल बंद का समर्थन कर रहे है।

पिछले कुछ दिनों में, 18 से अधिक राजनीतिक दलों ने अपने मजबूत क्षेत्रीय आधारों के साथ, किसानों के आहवान का खुलकर समर्थन किया है। यह पूरी तरह से निश्चित है कि बंद सफल होगा। एकजुट विपक्ष को देखते हुए मोदी और उनकी सरकार इस बात पर लड़खड़ा रही है कि उनके खिलाफ निर्देशित क्रोध से कैसे निपटा जाए।

कई गड़बड़ियाँ 

इस सबकी शुरुआत 26-27 नवंबर को एक दिवसीय औद्योगिक हड़ताल के समर्थन में होने वाले दिल्ली चलो मार्च से हुई थी, रिपोर्ट के मुताबिक इस हड़ताल में करोड़ों मजदूरों ने भाग लिया था। सरकार ने फैसला किया कि वह पुलिस और अर्धसैनिक बलों का इस्तेमाल करके इस काफिले  को रोक देगी और मजदूरों और किसानों के आंदोलन को नाकाम कर देगी-जो एक गलत धारणा साबित हुई और पूरे देश मे जैसे प्रदर्शनकारियों की बाढ़ आ गई और गुस्से की लहर दौड़ गई। 

न केवल किसानों ने सौ किलोमीटर से अधिक रास्ते में कुछ नौ बैरिकेड्स को तोड़ दिया जिसमें उन्हे आँसू गॅस के गोलों, कंक्रीट ब्लॉक और शिपिंग कंटेनरों से बने ठोस पुलिस बैरिकेड्स का सामना करना पड़ा था। किसानों के संघर्षपूर्ण संकल्प और ऊर्जा से प्रेरित होकर किसानों के अन्य तबके भी आंदोलन में शामिल हो गए। सरकार थोड़ा झुकी और किसान नेताओं को बातचीत का न्यौता देते हुए सीमाओं पर डटें रहने की अनुमति दे दी। लेकिन इस तरह की 'वार्ता' के लिए हुई कई बैठकों के बाद पता चला कि इनका कोई फायदा नहीं था: किसान क़ानूनों को रद्द करवाना चाहते हैं, जबकि सरकार उनसे कुछ कॉस्मेटिक संशोधन के वादे पेश कर रही थी।

प्रधानमंत्री के रूप में छह साल के कार्यकाल में केवल एक बार ही मोदी को लोकप्रिय आंदोलन के सामने झुकने पर मजबूर होना पड़ा था- ऐसा 2015 में हुआ था जब किसानों ने बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में आंदोलन किया था और उसे तुरंत ही वापस ले लिया गया था। उसके बाद, मोदी फिर से एक और चुनाव जीत गए, और उन्हौने कई दूरगामी बदलाव किए जिसने बड़े और लंबे चलने वाले आंदोलनों को प्रेरित किया, लेकिन सरकार पीछे नहीं हटी। यह चतुराई या ताकत का संकेत नहीं है- बल्कि यह घमंड है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि मानो अब इसे सही टक्कर मिली है। 

मोदी सरकार द्वारा लाए गए सभी प्रकार के आर्थिक विधेयक और नीति, जो विदेशी पूंजी सहित बड़े व्यापार और व्यापारियों को नग्न रूप से लाभान्वित करती है, और उद्योग जगत के लोगों के प्रति झुकाव रखती है- दोनों भारतीय और अमेरिका- इस सबके के खिलाफ भयंकर गुस्सा पनप रहा था जो अब बड़े आंदोलन में तब्दील हो गया है।

कृषि नीति के मामले में बड़ी भूल

जब से मोदी 2014 में सत्ता में आए हैं, तब से उन्होंने और उनकी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार किसानों के साथ लुका-छिपी का खेल खेल रही है। किसानों की गिरती आय और  बढ़ते कर्ज, आत्महत्याएं, खेत-मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि न होना, पारिस्थितिक तनाव और नौकरियों के लिए कोई औद्योगिक विकल्प नहीं होने की वजह से गहरा कृषि संकट और असंतोष पैदा हो गया। लेकिन शायद चुनावी सफलता या फिर स्थिति को समझने की खतरनाक अक्षमता से बौखलाइ मोदी सरकार ने इधर-उधर हाथ मारना शुरू किया, कुछ योजनाएं शुरू की और जरूरत पड़ने पर संख्याओं को ठीक करना जारी रखा। लेकिन यह लीपा-पोती भी लंबे समय तक नहीं चली।

तीन कृषि संबंधी क़ानून, जो जून महीने में अध्यादेश के रूप में पैदा हुए थे (जब महामारी की शुरुआत हो रही थी और विरोध की संभावना कम थी) जिन्हे सितंबर में संसद में क्रूर ताक़त के दम पर पूर्ण क़ानूनों में बदल दिया गया था। किसानों ने इसका तुरंत विरोध किया, और अधिक ताक़त के साथ, विशेष रूप से पंजाब में यह विरोध तेज़ था। लेकिन सरकार का घमंड कुछ ऐसा था कि उन्होंने सोचा कि वे इसे भी अन्य चुनौतियों की तरह सँभाल लेंगे। उन्होंने कई श्रम संहिताएं भी पारित कीं, जिन्होंने मौजूदा सुरक्षा क़ानूनों को ध्वस्त कर दिया, श्रमिकों और कर्मचारियों को मालिकों की दया पर छोड़ दिया।

कृषि-क़ानूनों के साथ, खेती से लेकर उपज की बिक्री-खरीद तक, यहां तक कि भंडारण और मूल्य निर्धारण तक सब कुछ पर यानि मौजूदा कृषि प्रणाली पर एक साथ हथौड़ा चला दिया गया। ऐसा नहीं है कि मौजूदा प्रणाली सही थी, लेकिन कम से कम सरकार द्वारा असहाय किसानों से  सरकार द्वारा खरीदे जाने वाले कृषि उत्पादों के मामले में कुछ न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में सरकारी सब्सिडी सुनिश्चित थी, जिसे सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इस्तेमाल करती है। सभी उत्पाद यदि निजी व्यापारियों के पास जाएंगे जो बड़े कृषि-व्यवसाय (घरेलू और विदेशी दोनों) के दुमछल्लों के रूप में काम करेंगे, उन्हे सस्ते में उत्पाद की खरीद की अनुमति होगी, जिससे सरकारी खरीद में कमी होगी, जो यह निर्धारित करेगा कि क्या खेती की जानी है (अनुबंध खेती के माध्यम से), बिना और स्टॉक विनियमन क़ानून खाद्य वस्तुओं की जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा और यहां तक कि उनके द्वारा भंडारण किए गए उत्पाद की बिक्री के लिए कीमतें तय करने का लाइसेंस भी धन्नासेठों के पास होगा।

कृषि-क़ानूनों को वापस लेना ही है समाधान

ऐसे देश में जहां 80 प्रतिशत से अधिक किसान छोटे और सीमांत हैं, सरकार का खेती से पीछे हटना और कॉरपोरेट शार्क को प्रवेश देना मौत की घंटी का काम करेगा। किसानों ने सहज रूप से इस खतरे को सूंघ लिया हैं। और, वे जानते हैं कि इससे उन्हे अपनी ज़मीन को इन शार्क के हाथों को खोनी पड़ेगी।

यह वह पड़ाव है जहां मोदी और उनके सलाहकार गंभीर रूप से गलत हो गए हैं। यह वह पड़ाव  है जहाँ उनकी समझ खेती और भारतीय किसान के बारे में गलत हो गई है। उन्होंने सोचा था कि वे किसी भी तरह के क़ानून को पारित कर सकते हैं, विरोध प्रदर्शन को बेअसर कर सकते हैं और अंत में बड़ी पूंजी के नायक बन कर उभर सकते हैं। रिटेल चेन और एग्रो-प्रोसेसिंग में बड़े पैमाने पर निवेश करने वालों ने मोदी सरकार पर को ये कदम उठाने के लिए दबाव बनाया था, और हम सभी जानते हैं कि वर्तमान सरकार के प्रति उनका आकर्षण कितना अपरिवर्तनीय हैं।

और इसलिए, मोदी सरकार ने खुद को एक कोने में लाकर खड़ा कर लिया है, जहां अब कोई रास्ता नहीं बचा है।

मोदी की कल्पना से परे, किसानों का आंदोलन अधिक लचीला, व्यापक और बेहतरीन आंदोलन निकला। कृषि-क़ानूनों को सार्वभौमिक रूप से कॉरपोरेट्स द्वारा भूमि हड़पने और किसानों को मजदूरों में बदलने के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है। उपभोक्ताओं को डर है कि आवश्यक खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू जाएंगी, जो सब्सिडी वाले खाद्यान्न पर निर्भर हैं, उन्हें डर है कि सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा।

बंद के एक दिन बाद यानि 9 दिसंबर को किसानों और सरकार के बीच बातचीत का एक और दौर तय है। सरकार के लिए यह एक मौका है कि वह कुछ समझदारी दिखाए और बैकफुट पर जाकर इसका समाधान निकाले। अन्यथा, विपक्षी दलों की नई एकता, विशाल किसान आंदोलन और अन्य कामकाजी लोगों के साथ इसका जुड़ाव और चल रहा आर्थिक संकट संघ परिवार के सभी सपनों को चकनाचूर कर देगा।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

Bharat Bandh: Farmers Get Support from Across the Country

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