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ब्लिंकन का दिल्ली में एक ही एजेंडा था- सिर्फ़ चीन

बाइडेन प्रशासन को डर है कि भारत के बिना क्वाड बिखर जाएगा और चीन के रोकथाम की नीति को एशिया में बल नहीं मिलेगा।
ब्लिंकन का दिल्ली में एक ही एजेंडा था- सिर्फ़ चीन
भारतीय विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एंटोनी ब्लिंकन का स्वागत करते हुए, जुलाई 28, 2021, नई दिल्ली

अमेरिकी गृह सचिव एंटोनी ब्लिंकन की भारत यात्रा कई मायनों में आंखें खोल देनी वाली होनी चाहिए। यह दर्शाता है कि पिछले एक साल के दौरान अथाह दुख और दर्द से भारत कितना बदल गया है। कैसे इस उथल-पुथल भरे दौर ने सरकार की विदेश नीति की गणना को दोबारा परिभाषित किया है।

अब विदेश नीति में पुनर्विचार मजबूरी हो गई है। बुधवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में ब्लिंकन और भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर के जो हावभाव लग रहे थे, उनसे तो कम से कम ऐसा ही लग रहा था। 

अमेरिका-भारत के संबंध बुनियादी तौर पर अब तक मजबूत ही रहे हैं। दोनों ही देशों में इन संबंधों को खेमों के परे जाकर समर्थन मिलता रहा है और माना गया है कि यह बेहद अहम संबंध है। लेकिन इसके नीचे कुछ दरार भी मौजूद हैं।

पहली और सबसे अहम बात कि बाइडेन प्रशासन की नवउदारवादी विचारधारा उसे मजबूर करती है कि वे लोकतंत्र, मानवाधिकार, कानून के शासन के मुद्दों पर दूसरे देशों में दखलंदाजी करें। इससे मोदी सरकार को चोट पहुंचती है।

फिर भारत के साथ मजबूत संबंधों का बहुत बड़ा अमेरिकी वर्ग आज मोदी सरकार का कटु आलोचक है। इनका अलगाव इतना ज़्यादा है कि वे मोदी सरकार की आलोचना करने में भारतीय वामपंथ का साथ देने को तक तैयार हो जाते हैं।

ब्लिंकन ने हाल में भारतीयों के एक समूह के साथ "नागरिक समाज गोलमेज सम्मेलन" करने का फैसला किया। इससे मोदी सरकार को साफ़ संदेश था कि भारत में भले ही चीजें बेलारूस या म्यांमार की तरह ना हों, लेकिन बाइडेन प्रशासन भारत को रेसेप एर्दोगान के तुर्की की तरह देखता है। तुर्की अमेरिका का ऐसा मित्रदेश है, जो उत्तर-आधुनिक तानाशाही की तरफ बढ़ रहा है। दिल्ली से एक AFP की खबर बताती है कि "ब्लिंकन ने भारतीय लोकतंत्र के पीछे जाने को लेकर एक अप्रत्यक्ष चेतावनी दी है।"

ब्लिंकन द्वारा शब्दों का कितना ही जाल बुना जाए, पर ब्लिंकन यह बात नहीं छुपा सकते कि वे मोदी सरकार को पसंद नहीं करते। ना ही जयशंकर इस बात व्यथित दिखाई दिए।

जयशंकर को यह अनुमान लग चुका था कि बाइडेन प्रशासन शायद ही अपने तय किए गए लक्ष्यों को पाने के पहले भटके, लेकिन जयशंकर भी माफ़ी के मूड में नहीं लग रहे थे।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक मौके पर तो उन्होंने सीधे हस्तक्षेप करते हुए कहा, "ज़्यादा बेहतर संघ बनाने का लक्ष्य भारतीय लोकतंत्र पर भी उतना ही लागू होता है, जितना अमेरिकी लोकतंत्र पर। यह सभी सरकारों का नैतिक दायित्व है कि वे गलत चीजों को सही करें, इनमें ऐतिहासिक गलतियां भी शामिल हैं। और हाल के सालों में लिए गए कई ऐसे फ़ैसले और नीतियां भी इसी वर्ग में आती हैं।" 

उन्होंने आगे ज़्यादा दृढ़ता के साथ कहा, "स्वतंत्रता अहम है, हम इसका सम्मान करते हैं, लेकिन कभी स्वतंत्रता को खराब प्रशासन, प्रशासन की कमी या प्रशासन की गैरमौजूदगी के साथ नहीं समझा जाना चाहिए। यह दोनों अलग-अलग चीजें हैं।" यह याद करना मुश्किल है कि आधुनिक दौर में कभी किसी भारतीय मंत्री ने अमेरिका को ऐसे सार्वजनिक जवाब दिया हो।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में अफ़गानिस्तान से अमेरिका की बेतरतीब वापसी, जिससे पूरा देश बिखर गया है, जिसके चलते क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता के साथ-साथ अफ़गानिस्तान में भारतीय निवेश ख़तरे में आ गया है, उसपर भी नाराज़गी दिखी। भारत ने अफ़गानिस्तान में वित्तीय मदद और इनजीनियरिंग प्रोजेक्ट में तकनीकी मदद के रूप में अरबों डॉलर का निवेश किया है। 

जयशंकर ने कड़वे ढंग से कहा कि अफ़गानिस्तान में नतीज़े जंग के मैदान में तय हो रहे हैं, जो पाकिस्तानी हस्तक्षेप को आकर्षित कर रहे हैं। उन्होंने ब्लिंकन का आसान रास्ता अपनाकर तालिबान पर जिम्मेदारी नहीं डाली, बल्कि अफ़गानिस्तान के ज़्यादातर पड़ोसी देशों के मतानुसार "व्यापक और गहरी सहमति" की वकालत की।

साफ़ है कि 20 साल की जंग में बुरी तरह हारने के बाद, इस क्षेत्र में बने रहने के लिए अमेरिका द्वारा उज्बेकिस्तान, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के साथ मिलकर एक और क्वाड (क्वाड्रिलेटरल डिप्लोमेटिक प्लेटफॉर्म) की तरह के संगठन निर्माण की कोशिश भारत के लिए एक झटके तरह होती, इसलिए भारत ने हिंदुकुश में अमेरिका के साथ किसी भी तरह की साझेदारी की संभावना पर दरवाजे लगा दिए। जयशंकर के लहजे की बेरुखी अमेरिका के प्रति अवमानना को दिखा रही थी।

जहां तक कोविड-19 वैक्सीन की बात है, तो ब्लिकेंन ने ट्रिप्स छूट प्रस्ताव के बारे में कोई बात नहीं की, जो एक भारतीय पहल थी। साफ़ है कि शुरुआत में इसका समर्थन करने वाले बाइडेन ताकतवर फार्मा कंपनियों और उनकी राजनीतिक लॉबी के दबाव में पीछे हट चुके हैं। बाइडेन अब फार्मा कंपनियों का यह तर्क मान रहे हैं कि वैश्विक कोविड-19 वैक्सीन असंतुलन का असली समाधान हस्तक्षेपों में छुपा हुआ है, जिनमें निर्यात प्रतिबंधओं को सीमित करना, विश्व के दक्षिणी हिस्से में वैक्सीन निर्माण क्षमताओं में इज़ाफा और स्वैच्छिक लाइसेंस जारी करना शामिल है, जो कुछ विशेष निर्माताओं को बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट देता है, लेकिन इसमें सार्वभौमिक छूट शामिल नहीं है।

कुलमिलाकर ब्लिंकन ने "कथित बड़ी घोषणा" करते हुए कहा कि अमेरिका भारत को 2.5 करोड़ वैक्सीन डोज देगा। लेकिन पुराने अनुभवों के चलते भारत फिलहाल यह तय तौर पर नहीं कह सकता कि यह जो थोड़ी सी वैक्सीन का वायदा अमेरिका ने किया है, वह पूरा ही होगा या नहीं? जयशंकर ने इसके ऊपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

ब्लिंकन ने वैक्सीन के कच्चे माल तक भारत की पहुंच के संबंध में भी कोई वायदा नहीं किया। क्या ब्लिंकन ने महामारी के बाद भारत की हालत सुधारने के लिए किसी तरह की छूट देने का वायदा किया? क्या अगर तीसरी लहर आती है, तो अमेरिका हमें एक और नर्क में जाने से रोकेगा? क्या उन्होंने भारत में रोज़गार बढ़ाने के लिए निवेश का वायदा किया? क्या उन्होंने इस संबंध में कोई सलाह दी कि कैसे भारतीय सेना दोबारा डेप्सांग मैदान में गश्त लगा सकेगी? नहीं ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 

ब्लिंकन का असली मिशन निश्चित तौर पर अमेरिका के चीन विरोधी मिशन से भारत के भटकाव को रोकना था। बाइडेन प्रशासन को चिंता है कि भारत के बिना क्वाड बिखर जाएगा और चीन की रोकथाम की रणनीति एशिया में कारगर नहीं हो पाएगी।

इसलिए अमेरिका के जाने-पहचाने अंदाज में ब्लिंकन ने सबसे पहले तिब्बती प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात की, यह अपने तरह की भारत या किसी तीसरे देश में अमेरिकी अधिकारियों की पहली मुलाकात थी, यह एक गणना कर उठाया गया कदम था ताकि भारत-चीन तनाव को बढ़ाया जा सके। 

यह एक अच्छे दोस्त के साथ व्यवहार का सही तरीका नहीं है कि आप उसकी राजनीतिक स्थिति को उसी की मेजबानी में धता बता दें। यह सिर्फ़ इतना दर्शाता है कि जब चीन की बात आती है तो आजकल ब्लिंकन प्रशासन कितना आतुर रहता है।

लेकिन ब्लिंकन यहां अमेरिका-भारत के संबंधों की दरारों और दोनों के बीच वैक्सीन, अफ़गानिस्तान, मानवाधिकारों के मुद्दे पर बढ़ रही खाईयों को समझने में नाकामयाब रहे। यह अमेरिका और भारत की एक ऐसी दुर्गम उच्च स्तरीय बैठक थी, जिसमें चीन के खिलाफ़ कोई भाषणबाजी नहीं की गई। 

कुलमिलाकर भारत क्वाड पर चर्चा के लिए बाइडेन द्वारा बुलाई बैठक में हिस्सा ले सकता है। यह एक ऐतिहासिक मौका होगा, क्योंकि अमेरिका का मक़सद चीन की रोकथाम और उसके ऊपर दबाव बनाने के लिए एक क्षेत्रीय तंत्र बनाना है। साधारण शब्दों में कहें तो क्वाड को संस्थागत करना है, जहां चारों देशों के चीन के उभार को चुनौती देने और चीन पर दबाव बनाने के अपने हित हैं।

चाहे कोविड वैक्सीन, दुर्गम खनिजों पर सप्लाई चेन या चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव को रोकने की बात हो, हर जगह अब तक क्वाड का रिकॉर्ड खराब रहा है। फिर भी अमेरिका-चीन संबंधों में आगे का रास्ता कठिन दिखाई देता है और बाइडेन प्रशासन को उम्मीद है कि वे चीन को दबा लेंगे।

बल्कि क्वाड में रणनीतिक विरोधाभास अपने आप भी दिखाई दे रहे हैं। क्योंकि क्वाड के चारो सदस्यों, यहां तक कि अमेरिका को भी चीन के साथ द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग और क्षेत्रीय सहयोग की जरूरत पड़ती है। जब क्वाड में सबसे ताकतवर देश चीन के साथ सहयोग का रास्ता खुला रखता है, तो बाकी तीन के लिए कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचता।

चीन के मामले में बाइडेन प्रशासन की अनियमित नीतियों से होने वाले नुकसान और अपनी स्वायत्ता को बचाने के लिए, ताकि चीन के साथ द्विपक्षीय मोलभाव किया जा सके, इसके लिए भारत को संभलकर चलने की जरूरत है। बाइडेन बेहद अनुभवी राजनेता हैं। अगर उन्हें महसूस हुआ कि चीन को दबाने से अमेरिका को नुकसान हो रहा है, तो वहां सह-अस्तित्व का रास्ता बन सकता है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Blinken’s Single-Point Agenda in Delhi – China

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