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क्या ग़रीब देश अपनी आबादी के टीकाकरण में सफल हो सकते हैं?

दक्षिण अफ्रीका में जनता के आक्रोश ने जॉनसन एंड जॉनसन को देश में उत्पादित होने वाले अपने टीके (वैक्सीन) को यूरोप भेजने की बजाए घरेलू उपयोग के लिए ही रखने को मजबूर कर दिया। भारतीय नागरिक समाज ने भी वैसे ही प्रयास शुरू किए हैं, जैसा ग्लोबल साउथ विकल्पों की तलाश में करता है।
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प्रतीकात्मक चित्र। सौजन्य: दि इंडियन एक्सप्रेस

भारतीय नागरिक समाज के प्रतिनिधियों ने जॉनसन एंड जॉनसन (जेएंडजे) फार्मा कंपनी और संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन को एक पत्र लिखा है। इसमें उन्होंने उनसे दो मांगें की हैं। पहली मांग है कि कोविड-19 के लिए भारत में बनाई गई वैक्सीन की प्राथमिकता के आधार पर भारत सरकार, अफ्रीकन यूनियन और कोवैक्स फैसिलिटी को आपूर्ति की जाए। दूसरी, यह कि अमेरिका वैक्सीन उत्पाद से संबंधित बौद्धिक सम्पदा प्रतिबंध हटा ले और जेएंडजे को अपनी वैक्सीन के विश्व के अन्य हिस्सों में उत्पादन के लिए लाइसेंस (तकनीकी एवं सहयोग समेत) जारी करने के लिए प्रेरित करे।

यह पत्र दक्षिण अफ्रीका के नागरिक समाज की जेएंडजे पर दबाव डालने में मिली सफलता के बाद उससे प्रेरित हो कर लिखा गया है, जिसमें दक्षिण अफ्रीका के अंदर उत्पादित वैक्सीन की खुराकों को देश की आबादी को उपलब्ध कराने में प्राथमिकता देने की बात कही गई थी। अगस्त के मध्य में, अफ्रीकी कंपनी एस्पेन की फैसिलिटीज में जेएंडजे के बोतलबंद शॉट्स और उसके पैकेजिंग को कथित रूप से यूरोप भेजा जा रहा था, जो अपनी 60 फीसदी से अधिक आबादी का टीकाकरण (वैक्सीनेशन) पहले ही करा चुका था। इसके बाद जनता के हंगामे के बाद जेएंडजे को आखिरकार इन खुराकों को केवल अफ्रीकी आबादी के इस्तेमाल किए जाने के लिए रोक लेना पड़ा।

वैक्सीन के मामले असमानता साफ दिखती रही है और वास्तव में, यह असमानता रोज-रोज बढ़ती ही जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की तरफ से विकासशील देश एवं फार्मा कंपनियां, दोनों से ही अफ्रीकी एवं एशियाई देशों को वैक्सीन की आपूर्ति किए जाने के आह्वान के बावजूद उसकी आपूर्ति सीमित रखी गई है। अभी तक अफ्रीका की मात्र 3.8% फीसदी आबादी को ही वैक्सीन की पूरी खुराक दी जा सकी है जबकि विकसित देशों जैसे कनाडा ने अपनी आबादी के 70 फीसदी आबादी का पूरी तरह टीकाकरण कर लिया है।

बड़ी फार्मा कंपनियों के एकाधिकार एवं जवाबी प्रयास

कोविड-19 के वैक्सीन बाजार में फाइजर, मॉडर्ना, जेएंडजे और एस्ट्राजेनेका जैसी कुछ बड़ी कंपनियां अब भी अपना दखल रखती हैं। ये बड़ी कंपनियां एवं विकसित देशों ने सफलतापूर्वक यह सुनिश्चित किया है कि उनका मुनाफा सुरक्षित रहे। उन सबने मिल कर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे पेटेंट्स एवं कोविड-19 से जुड़ीं वैक्सीन, दवाओं एवं उपचार के उपकरणों पर अंकित ट्रेड मार्कस मामले में रियायत देने के भारत एवं दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को रोक दिया था।

रूस एवं क्यूबा जैसे देशों ने उनके समानांतर कोविड-19 की वैक्सीनों को विकसित करने के प्रयास किए थे। हालांकि, रूस के तीन एवं क्यूबा के पांच वैक्सीनों को मंजूरी डब्ल्यूएचओ मिली है। कुछ देशों को इन वैक्सीनों के उत्पादन के लिए आपातकालीन मंजूरी दी गई है। बड़ी-बड़ी कंपनियां मुनाफे कमाने में लगी हैं, जबकि इस माहौल में रूस एवं क्यूबा ने एक सराहनीय भूमिका अदा की हैं। उन्होंने अपनी वैक्सीन न केवल गरीब देशों को दी है, बल्कि इसको पूरे विश्व में सुलभ कराने के लिए उत्पादकों को इसके उत्पादन की तकनीकी जानकारी एवं वैज्ञानिक समर्थन भी प्रदान किया है। चीन, जो एशिया में कुछ विकासशील देशों के लिए सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश बन कर उभरा है, उसने भी लगभग पांच तरह की वैक्सीनों के साथ वैक्सीन को विकसित करने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। हालांकि, चीन की महज दो वैक्सीनों की ही मंजूरी दी गई है।

भारत जबकि विश्व की फार्मेंसी माना जाता है, उसने वैक्सीन मैत्रेयी कार्यक्रम के तहत दुनिया के अन्य विकासशील देशों को वैक्सीन की आपूर्ति शुरू कर दिया था पर इन देशों में वैक्सीन कार्यक्रम के जोखिम में पड़ने पर उसे अचानक मई 2021 में इसका निर्यात रोक देना पड़ा था। हालांकि इसके संकेत हैं कि निर्यात फिर शुरू किए जा सकते हैं, लेकिन असरकारक वैक्सीन का उत्पादन अब भी कम है और भारत अपनी महज 15 फीसदी आबादी को ही वैक्सीन की पूरी खुराक दे पाया है।

इसे देखते हुए तो यही लगता है कि भारत सरकार दिसम्बर 2021 तक देश के सभी युवा आबादी को वैक्सीन दिला पाने के अपने घोषित लक्ष्य को शायद ही पूरा कर पाएगी। 20 सितम्बर को भारत ने वैक्सीन की लगभग 81 करोड़ खुराकों का एक रिकार्ड बनाया है, फिर भी यह उसके लक्ष्य का केवल 36 फीसदी है। हमारे अनुमान के अनुसार, सभी युवा आबादी (लगभग 94 करोड़) का पूरी तरह से टीकाकरण और बरबाद हुए टीके के अंश समेत, भारत को टीके की लगभग 226 करोड़ खुराकों की जरूरत होगी। टीकाकरण की मौजूदा रफ्तार से तो लक्ष्य पूरा हो पाना असंभव लगता है क्योंकि अब इस साल को समाप्त होने में तीन-साढ़े तीन महीने ही रह गए हैं।

हालांकि भारत सरकार ने मॉडर्ना एवं फाइजर फार्मा कंपनियों के साथ बातचीत की है, लेकिन इसकी तार्किक परिणति को लेकर कुछ अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। यह इसलिए कि ये फार्मा कंपनियां क्षतिपूर्ति उपबंध पर जोर देती हैं, जो उनकी वैक्सीन के नष्ट होने अथवा वित्तीय समस्याएं जैसे प्रतिकूल प्रभाव होने पर उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।

हाल ही में, भारतीय विदेश सचिव ने एक वक्तव्य जारी किया कि भारत “अपने यहां विकसित कोविड-19 की वैक्सीन की प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण एवं उत्पादन के लिए इच्छुक देशों के साथ भागीदार होने के लिए तैयार है।” हालांकि, इस दिशा में अभी कोई ठोस पहल नहीं हुई। इसके विपरीत, रूस ने विश्व स्तर पर कम से कम 34 अन्य विनिर्माताओं से अपनी तकनीक साझा की है, जिनमें ब्राजील एवं भारत भी शामिल हैं। ऐसा ही क्यूबा ने किया है। अभी हाल में, क्यूबा और वियतनाम इस समझौते पर पहुंचे हैं कि क्यूबा अब्दाला-क्यूबा की कोविड-19 की वैक्सीन-और उसकी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण टीम को वियतनाम भेजेगा।

विकल्पों की तलाश एवं उसका सृजन

अब एक कोने में सिमटा दिए गए विकासशील देश अपनी आबादी को वैक्सीन की आपूर्ति करने के लिए विकल्पों की तलाश कर उनको विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका में उत्पादित की जा रही जेएंडजे की वैक्सीन को घरेलू आपूर्ति के लिए सुलभ कराया जाना इसकी कुछ खुराकों को पाने का एक रास्ता तो हो सकता है, लेकिन यह टिकाऊ नहीं है। विकासशील देश कई तरीके से प्रयास कर रहे हैं, जिससे कि वे वैक्सीन असमानताओं की समस्या से निजात पा सकते हैं।

उपलब्ध क्षमता के जरिए जेएंडजे वैक्सीन का उत्पादन :

भारत में, कोविशील्ड एवं कोवैक्सीन के बाद, महामारी से लड़ने के हथियारों के जखीरे में शामिल की गई तीसरी वैक्सीन स्पुतनिक-वी है, जो रूसी प्रत्यक्ष विदेशी कोष (आरडीआइएफ) एवं वैश्विक फार्मा कंपनी वोकहार्ट लिमिटेड द्वारा विकसित की गई है। आरडीआइएफ ने पूरे विश्व में 34 वैक्सीन उत्पादकों को अपनी तकनीक साझा की है, जिसमें एक देश भारत भी है। हालांकि स्पुतनिक-वी की आपूर्ति तकनीकी मसलों के चलते मुश्किल रही है। स्पुतिनिक-वी की दो खुराकों के उत्पादन में निर्माताओं को एडोनोवायरस- Ad26 को पहली खुराक के लिए एवं Ad5 को दूसरी खुराक के लिए विकसित करना है। दूसरी खुराक बनाने की प्रक्रिया जटिल है और इसमें कई खामियां हैं, जो कुल मिला कर स्पुतनिक-वी की व्यापक आपूर्ति को प्रभावित कर रही है।

दिलचस्प है कि, जेएंडजे की एक खुराक वैक्सीन में वही एडेनोवायरस का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे स्पुतनिक-वी वैक्सीन की पहली खुराक (Ad26) में विकसित करने में किया गया है। Ad26 वेक्टर के लिए उत्पादन क्षमता विकसित करने वाले निर्माता कहते हैं कि अगर इजाजत दी गई तो ये कंपनियां जेएंडजे वैक्सीन की उत्पादन-प्रक्रिया को फिर से व्यवस्थित कर सकती है।

अफ्रीकी तकनीक हस्तांतरण क्षेत्र:

एक अन्य विकासक्रम में, मॉडर्ना वैक्सीन की कॉपी पर फोकस करते हुए कोविड-19 वैक्सीन उत्पादन के अफ्रीकी आधार को विकसित करने का प्रयास जारी है। यह दक्षिण अफ्रीका में आधारित डब्ल्यूएचओ-प्रायोजित प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण है। मॉडर्ना वैक्सीन को इसलिए चुना गया है क्योंकि उसने कहा है कि वह महामारी के दौरान अपनी वैक्सीन से संबंधित पेटेंट्स पर जोर नहीं देगी।

विशेषज्ञ ने खुलासा किया है कि ऐसे प्रयास फलदायक होने में काफी वक्त लेते हैं। पुणे के भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आइआइएसईआर) में प्रतिरक्षाविज्ञानी प्रो. सत्यजित रथ कहते हैं कि चूंकि आरएनए आधारित वैक्सीन विनिर्माण की तकनीक नई है, लिहाजा, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की मदद की दरकार होगी और स्थानीय उद्योग को इसे स्थापित करने के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी, जो मॉडर्ना से उसे नहीं मिल सकती है।

इसमें बड़े मुद्दे के जुड़े होने की तरफ इशारा करते हुए, वे कहते हैं,“आरएनए वैक्सीनों को रखने के लिए अति-न्यून तापमान की आवश्यकता है और न तो मॉडर्ना न ही बॉयोएनटेक-फाइजर अभी तक संकेत दिया है कि उनकी वैक्सीन की भंडारण-शर्तें बदल गई हैं। यह बिल्कुल असंभव है कि यह स्थिति ग्लोबल साउथ में कहीं भी बड़े पैमाने पर वैक्सीनेशन में पूरी की जा सकती है। इसलिए, यह आश्चर्य करना उचित है कि इन टीकों को अफ्रीकी क्षेत्र के लिए बनाने पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है।”

कुछ अनुसंधानकर्ताओं का यह भी विचार है कि वैक्सीन कैंडिडेट क्लिनिकल ट्रायल में, जैसे कि प्रोटीन-सबयूनिट वैक्सीन, ग्लोबल साउथ में उसके लाइसेंस के पाने और उसे बनाने में आसान होगी क्योंकि कई कंपनियां इस प्रक्रिया से परिचित हैं।

ऐसे परिदृश्य में अहम सवाल यह है कि ग्लोबल साउथ में किस वैक्सीन की प्रौद्योगिकी को क्रियान्वित करने में आसानी होगी। जैसा कि प्रो. रथ कहते हैं,“यह प्रश्न विशुद्ध प्रौद्योगिकी कारक एवं एक आइपी-संबंधित कारक का है। डीएनए वैक्सीन तकनीक, जिसका इस्तेमाल जाइडस-कैडिला द्वारा किया गया है, उसको ग्लोबल साउथ में एक विकेंद्रीकृत रीति से निर्माताओं को हस्तांतरित करने में कम दिक्कत हो सकती है क्योंकि यह नए कारकों (आरएनए प्रौद्योगिकियों के विपरीत) की अनिश्चित आपूर्ति श्रृंखला पर निर्भर नहीं करती या कुछ हद तक मानव कोशिका रेखाओं (एडेनोवायरल प्रौद्योगिकियों) के ऊतक संवर्धन की मांग वाले कदम पर, या कुछ हद तक यह सुनिश्चित करने की कुछ बारीक प्रक्रियाओं पर कि वैक्सीन उत्पाद का 'आकार' (प्रोटीन-आधारित प्रौद्योगिकियों के विपरीत) बिल्कुल सही है।”

प्रो. रथ के मुताबिक, अन्य संभावित तकनीक जो इस संदर्भ में व्यावहारिक एवं वहनीय हो सकती है, वह है प्रोटीन-आधारित तकनीक, जो निर्माताओं के लिए पारंपरिक और परिचित है, “और वह एक डीएनए-आधारित तकनीक की भांति ही सरल है, केवल प्रोटीन शेप-बिल्डिंग के बारे में की जाने वाली थोड़ी-सी चिंता को छोड़कर।”

हाल में मीडिया ब्रीफिंग में, ग्लोबल फार्मा कंपनियों ने दावा किया कि पश्चिमी देशों द्वारा अपनी आबादी को बूस्टरशॉटस् देने के बावजूद सितम्बर के अंत तक अमेरिका, ब्रिटेन एवं यूरोपीय यूनियन, और कनाडा एवं अन्य देशों से 500 मिलियंस खुराकें पुनर्वितरण के लिए उपलब्ध होंगी। जबकि वैश्विक बड़ी कंपनियां इस सांकेतिक प्रयासों के साथ है, लेकिन जब बात प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की आती है, तो वे दलील देने लगते हैं कि इस नए एवं जटिल उत्पादन के लिए कार्यबल को प्रशिक्षित करने में समय लगेगा।

भारत-दक्षिण अफ्रीका की बौद्धिक संपदा कानून को हटा लेने की मांग को वर्चुअली रोक दिया गया है। अधिकतर बड़ी फार्मा कंपनियां, जिन्हें वैक्सीन बनाने के लिए ठोस शोध-अनुसंधान एवं विकास के लिए धन आवंटन किए गए हैं उन्होंने कोविड-19 की वैक्सीनों से पेटेंट्स की शर्तें हटाने से मना कर दिया है।

ऐसे परिदृश्य में, भारत में नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं का तर्क जायज है कि जेएंडजे ने वैक्सीन के शोध-अनुसंधान एवं विकास के लिए अमेरिकी सरकार से लगभग 1 बिलियन डॉलर का संघीय कोष लिया है और इसलिए वह इसके प्रति जवाबदेह है। उनके मुताबिक,“अगर अमेरिकी राष्ट्रपति पूरी दुनिया के टीकाकरण को लेकर सच में गंभीर हैं तो उनके प्रशासन के पास नैतिक, कानूनी और अगर आवश्यक हुआ तो वित्तीय अधिकार भी है, वह बौद्धिक संपदा से संबंधित बाधाओं को हटा दे; और जेएंडजे को अपनी वैक्सीन उत्पादन का लाइसेंस, तकनीकी एवं सहायता समेत,स्पुतनिक-वी वैक्सीन बनाने में लगे हर निर्माताओं को दिलाने की पहल का अधिकार है।”

बिग फार्मा की तगड़ी लॉबिंग एवं इनके और धनी एवं विकसित देशों की सरकारों के बीच मिलीभगत को देखते हुए, निर्धन विकासशील देशों में टीकाकरण दर में वृद्धि एक कठिन काम है। इसमें एकमात्र यही उम्मीद नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं द्वारा इस तरह के निरंतर प्रयासों से ही कोई प्रभाव डालने में मदद मिलेगी।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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