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चुनाव 2019; झारखंड : जनता के असली मुद्दों पर बोलने से क्यों कतरा रहे हैं ‘चौकीदार’

झारखंड गठन के 18 वर्षों में यहाँ बनने वाली अधिकांश गठबंधन सरकारों में भाजपा की ही प्रमुख भूमिका रही है। जिनमें कुछ महीनों की दो बार बनी यूपीए सरकारों को छोड़, हर बार भाजपा की सरकार और मुख्यमंत्री रहा है।
रांची में मोदी का रोड शो
फोटो साभार : प्रभात खबर

29 अप्रैल को लोहरदगा, पलामू व चतरा संसदीय सीटों पर हुए मतदान के साथ झारखंड में पहले चरण का चुनाव संपन्न हो गया। कुछेक स्थानों से बूथों पर तैनात सुरक्षाबालों द्वारा ग्रामीण मतदाताओं से ‘फूल छाप’ पर बटन दबाने के लिए कहने की कुछ शिकायतों को छोड़कर मतदान कुल मिलाकर शांतिपूर्ण ही रहा। इधर पूरे प्रदेश में झुलसा देने वाली गर्मी और रुला देनेवाली बिजली की ‘आदर्श स्थितियों’ में अगले चरणों के लिए सभी राजनीतिक दल अपनी चुनावी ज़ोर आजमाइश में भिड़ गए हैं। जिसमें ‘2018 तक 24 घंटे बिजली नहीं मिलने पर वोट नहीं मांगेगें’ की घोषणा करने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री जी भी पूरे दल–बल के साथ घर-घर घूमकर वोट मांग रहें हैं।

मौसम की तपिश के साथ साथ चुनावी माहौल को और भी सरगर्म बना गया 23 अप्रैल को राजधानी रांची में प्रधानमंत्री का रोड शो तथा 23 अप्रैल को लोहरदगा व 29 अप्रैल को गिरीडीह के जमुआ में जनसभा करना। जिसे मीडिया द्वारा ‘अप्रत्याशित जीत’ की फ़िज़ा बना देने की चारण–वंदना’ खबर बनाकर खूब प्रचारित भी किया गया। लेकिन भक्त–जनाधार के लोगों को छोडकर उन्हें सुनने आयी बाकी जनता को मनलगावन बातें सुनने के अलावा कोई लाभ नहीं हुआ। शायद ऐसा होना संभव भी नहीं था इसीलिए अपने संबोधनों में खुद को देश व जनता का “चौकीदार” घोषित करने वाले सत्ताधारी दल के प्रधान मुखिया ने प्रदेश की जनता के असली मुद्दों को गौण ही रखा। हालांकि अपने जोशभरे अंदाज़ में ये तो कह दिया कि- जब तक आपका ये चौकीदार है आपके जल जंगल ज़मीन पर कोई पंजा नहीं मार सकता...उनके प्रतिद्वंदी सत्ताधारी दल ने ही... राज्य का सारा कोयला–बाक्साइट लूट लिया है! लेकिन बोलने की रौ में वो यह भूल गए कि अभी उन्हीं की पार्टी की ‘डबल इंजन वाली सरकार चल रही है। जिसपर राज्य के व्यापक आदिवासियों–किसानों का खुला आरोप है कि वह ‘लाठी-गोली और दमन से उनके जंगल-ज़मीनें छीनने पर आमादा है। जिसके खिलाफ प्रदेश के आदिवासी समाज और किसानों का तीखा प्रतिवाद आज भी जारी है। विश्वस्त अनुमान है कि इस राज्य के चुनाव परिणामों में भी इसका असर दीखेगा। दूसरे, राज्य गठन के 18 वर्षों में यहाँ बनने वाली अधिकांश गठबंधन सरकारों में भाजपा की ही प्रमुख भूमिका रही है। जिनमें कुछ महीनों के दो बार बनी यूपीए सरकारों को छोड़, हर बार उन्हीं की सरकार और मुख्यमंत्री रहा है।   

पलायन झारखंड प्रदेश के असाध्य भयावह संकटों में प्रमुख सवाल रहा है। प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों के अलावे विशेषकर कोडरमा व गिरीडीह क्षेत्र में एक विशाल युवा आबादी जो हर दिन रोजगार की तलाश में बंबई–गुजरात व अन्य बड़े महानगरों से लेकर मलेशिया व कई अन्य दूसरे मुल्कों में रोजी रोटी की तलाश में मारे मारे फिरते हैं। वाजिब मजदूरी व सुरक्षित कार्यस्थिति नहीं मिलने और वहाँ होनेवाले अत्याचारों के कारण हाल के दिनों में कई प्रवासी मजदूरों की अकाल मौत भी हो चुकी है। जाने क्यों यहाँ आकार भी इस गंभीर मसले पर प्रधान मुखिया जी ने कुछ भी कहना गवारा नहीं किया। इनके हर भाषण में विपक्ष को गरियाने और सीमा पर शहीद हो रहे वीर सैनिकों और कश्मीर व पुलमावा के नाम पर वोट मांगने की ही सुनियोजित कवायद दिखी। रोज़मर्रे की जंदगी में नाना प्रकार के भयावह संकट झेल रहे इन पिछड़े इलाकों के लोगों के विकास के कारगर उपायों पर कुछ भी कहने से बचते रहे। इसी प्रकार यहाँ के आदिवासियों व किसानों को विस्थापित कर उनकी ज़मीनें हड़पने के लिए उनकी पार्टी की झारखंड सरकार द्वारा लाये गए विवादित भूमि अधिग्रहण कानून को वापस लेने के मुद्दे को भी चर्चा से बाहर ही रखा ।

2014 के चुनाव में कोडरमा की आमसभा में प्रधान मुखिया जी ने जोशभरे अंदाज़ में क्षेत्र के लोगों से वादा किया था कि इस क्षेत्र के मृत हो चुके माइका (अभ्रक) उद्योग को वे ऐसा खड़ा करेंगे कि यहाँ के लोगों के चेहरे सोने की तरह चमक उठेंगे। लेकिन इस बार जब वे फिर कोडरमा से अपने प्रत्याशी को विजयी बनाने की अपील करने आए तो अपने पिछले वादे को सायास भूले रहे और लोग कुछ पूछें , फौरन  ‘सीमा पर शहीद’ को याद दिलाकर और उनकी वीरता का वास्ता देकर वोट देने की अपील करके चलते बने। इसी क्रम में एक मजेदार मामला ज़रूर सामने आया कि प्रधान मुखिया जी के दौरे से अति उत्तसाहित प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने पार्टी के अंदर अपने विक्षुब्ध धड़े समेत अपनी पार्टी के सभी विधायकों को पूरा दमखम नहीं लगाने पर आगामी विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारी गँवाने की चेतावनी तक दे डाली है।

हालांकि झारखंड में दो चरण और देश में तीन चरण के चुनाव होने बाकी हैं और पूर्ण बहुमत का अंतिम परणाम भी अभी आना बाकी हैं लेकिन उपरोक्त संदर्भों में यदि ...फिर एकबार... की सरकार बनती है तो क्या यह मुमकिन है कि प्रधान मुखिया जी ने जो यहाँ झारखंड के आदिवासियों व किसानों के जल, जंगल और ज़मीनों की लूट बंद कराने के लिए अडानी–अंबानियों सरीखे कॉर्पोरेट ताकतों पर कोई लगाम लगा सकेंगे? साथ ही हर दिन पलायन के लिए अभिशप्त बना दिये गए इस क्षेत्र के बेरोजगार युवाओं को प्रवासी मजदूर की यतनामय ज़िंदगी और मौत से कोई छुटकारा दिला पाएंगे?

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