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ईडब्ल्यूएस आरक्षण की 8 लाख रुपये की आय सीमा का 'जनरल' और 'ओबीसी' श्रेणियों के बीच फ़र्क़ मिटाने वाला दावा भ्रामक

'आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों' के लिए आरक्षण को लेकर पात्रता हासिल करने के लिहाज़ से ऊपरी आय सीमा के पीछे की दलील को स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर केंद्र सरकार ने जो हलफ़नामा दिया है, वह एसआर सिंहो आयोग की सिफ़ारिशों की ग़लत व्याख्या पर आधारित है और चिंता की बात यह है कि यह हलफ़नामा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के मामले में ईडब्ल्यूएस को अन्य पिछड़ा वर्ग के समान मानता दिखता है।
EVS

विनीत भल्ला लिखते हैं कि 'आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों' के लिए आरक्षण को लेकर पात्रता हासिल करने के लिहाज़ से ऊपरी आय सीमा के पीछे की दलील को स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर केंद्र सरकार ने जो हलफ़नामा दिया है, वह एसआर सिंहो आयोग की सिफ़ारिशों की ग़लत व्याख्या पर आधारित है और चिंता की बात यह है कि यह हलफ़नामा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के मामले में ईडब्ल्यूएस को अन्य पिछड़ा वर्ग के समान मानता दिखता है।

केंद्र सरकार ने 28 ऑक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट के सामने मेडिकल पाठ्यक्रमों के लिए NEET प्रवेश परीक्षा में आरक्षण को लेकर आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) की श्रेणी का निर्धारण करने के लिए 8 लाख रुपये की वार्षिक आय की सीमा तय करने के पीछे की अपनी दलील रखी।

सार्वजनिक सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में ईडब्ल्यूएस आरक्षण को 2019 में एक सौ तीसरे संविधान संशोधन के ज़रिये पेश किया गया था; इसके तुरंत बाद, एक सरकारी ज्ञापन ने ईडब्ल्यूएस उम्मीदवारों के लिए 10% आरक्षण का हिस्सा और साथ ही ऊपर बतायी गयी आय सीमा भी तय कर दी गयी थी।

मैंने पिछले हफ़्ते ही यह बात पहले ही साफ़ कर दी थी कि सार्वजनिक रूप से उपलब्ध तमाम आंकड़े बताते हैं कि आरक्षण की मात्रा और साथ ही आय सीमा अनुचित और निराधार इसलिए है, क्योंकि एक तो आरक्षण की हिस्सेदारी पूरी तरह से मनमानी लगती है, वहीं आय की सीमा अति-समावेशी है और इसीलिए निराधार भी है।

शीर्ष अदालत के सामने अपने जावाब में केंद्र सरकार ने अपने मानदंड के मुताबिक़ आबादी में ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आने वाले लोगों की वास्तविक संख्या के बारे में कोई डेटा या सामग्री, या सरकारी सेवा और उच्च शिक्षा में उनके कम प्रतिनिधित्व से सम्बन्धित किसी भी तरह का कोई आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया है। सरकार की ओर से दी गयी दलीलें 103वें संविधान संशोधन विधेयक के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में दी गयी हैं।

सरकार का दावा है कि ओबीसी और सामान्य श्रेणी में कोई फ़र्क़ ही नहीं?

सरकार के हलफ़नामे के मुताबिक़:

“ओबीसी आरक्षण के मक़सद को लेकर क्रीमी लेयर का निर्धारण करने के लिहाज़ से की गयी क़वायद ईडब्ल्यूएस श्रेणी के निर्धारण के लिए भी उसी तरह इसलिए लागू होगी, क्योंकि मूल आधार यही है कि अगर किसी व्यक्ति / उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ठोस है, तो हो सकता है कि उसे दूसरों की क़ीमत पर आरक्षण के फ़ायदों की ज़रूरत ही न हो।"

दूसरी तरफ़, सरकार यह क़ुबूल करती है कि उसने अन्य पिछड़े वर्ग (OBCs) को लेकर आरक्षण से बाहर किये जाने वाले क्रीमी लेयर को निर्धारित करने में इस्तेमाल किये गये मानदंडों को लागू कर दिया है।

ऐसा करके सरकार अनिवार्य रूप से आरक्षण के उद्देश्य और विस्तार से सामाजिक पिछड़ेपन को मापने के लिए ओबीसी और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या ओबीसी के बाहर वालों (जनसंख्या का वह अनुपात, जिसे आम तौर पर 'सामान्य श्रेणी' के रूप में जाना जाता है) के बीच के फ़र्क़ को ख़त्म कर रही है।

आख़िरकार, अगर दोनों समूहों के 'क्रीमी लेयर' समान ही हैं, और इस क्रीमी लेयर के बाहर के लोगों को उनके पिछड़ेपन की भरपाई के लिए आरक्षण दिया जाता है, ऐसे में इसका मतलब तो यही है कि दोनों समूहों को सरकार की नज़र में समान रूप से रखा गया है; यह तो महज़ उनका अनुपात ही है, जो अलग-अलग है, जैसा कि दोनों समूहों को दिये गये आरक्षण की अलग-अलग मात्रा में भी परिलक्षित होता है।

इसके संभावित रूप से गंभीर राजनीतिक और संवैधानिक प्रभाव होंगे, और केंद्र सरकार को इस सिलसिले में अपनी स्थिति को स्पष्ट करना चाहिए।

अगर 'सामान्य श्रेणी' के साथ-साथ ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के पिछड़ेपन का स्तर समान है, तो सवाल है कि उनके लिए अलग-अलग कोटे की व्यवस्था के पीछे का आख़िर आधार क्या है ? फिर क्यों न उन्हें एक ही कोटा समूह में रख दिया जाया है ?

सिंहो आयोग की सिफ़ारिशों को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया

सरकार का यह हलफ़नामा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के तीन सदस्यीय राष्ट्रीय आयोग की उस रिपोर्ट पर आधारित है, जिसे 2006 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की ओर से मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एसआर सिंहो की अध्यक्षता में गठित किया गया था, और इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2010 में पेश की थी। मगर, यह रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में अब भी उपलब्ध नहीं है।

इस हलफ़नामे में यह दावा किया गया है कि मेजर जनरल सिंहो आयोग ने भी सुझाव दिया था कि:

"ओबीसी के बीच 'क्रीमी लेयर' को चिह्नित करने को लेकर मौजूदा मानदंडों का विस्तार करते हुए ऊपरी सीमा तय करने या सामान्य श्रेणी के बीच ईबीसी परिवारों को चिह्नित करने के लिए भी वही मानदंड काम कर सकता है... वैकल्पिक रूप से आयोग ने सिफ़ारिश की थी कि सामान्य श्रेणी के बीपीएल परिवार, जिनकी सभी स्रोतों से वार्षिक पारिवारिक आय कर योग्य सीमा से कम है (जैसा कि समय-समय पर संशोधित किया जा सकता है), उन्हें ईबीसी के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।

ग़ौरतलब है कि सिंहो आयोग की रिपोर्ट में कभी भी साफ़ तौर पर ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण का सुझाव नहीं दिया गया था। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, आयोग की संवैधानिक और कानूनी समझ के मुताबिक़, आर्थिक मानदंडों के आधार पर शैक्षणिक संस्थानों में रोज़गार और दाखिले में आरक्षण दिये जाने के लिए पिछड़े वर्गों को चिह्नित नहीं किया जा सकता है। इस तरह, सरकार की ओर से आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (यानी, ईडब्ल्यूएस) की पहचान कल्याणकारी उपायों के विस्तार के लिए ही की जा सकती है।

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़, आयोग की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ईडब्ल्यूएस को किसी भी तरह का आरक्षण दिये जाने को लेकर जिन कारकों पर विचार किया जाना चाहिए, उनमें से एक यह है कि आरक्षण के उद्देश्य से आर्थिक पिछड़ेपन को सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के साथ जोड़ा जाना चाहिए। इस रिपोर्ट की आख़िरी सिफारिशों में कहा गया है कि "भारत के सिलसिले में आरक्षण नागरिकों के बीच सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई का एक रूप है...।"

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के साथ अपने परामर्श में सिंहो आयोग को यह विचार आया था कि आरक्षण ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी को दुरुस्त करने के लिए एक उपाय है, और इसलिए, सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के उत्थान के लिए जो कुछ ज़रूरी है, वह है- ग़रीबी उन्मूलन की योजनाओं का उचित कार्यान्वयन।

मेजर जनरल सिन्हो ने ख़ुद 2019 में इकोनॉमिक टाइम्स को दिये एक साक्षात्कार में ज़ोर देकर कहा था कि "आरक्षण सामाजिक आर्थिक मानदंडों पर होना चाहिए।"

इसलिए, सिंहो आयोग की सिफ़ारिशों पर सरकार की निर्भरता उस मामले की स्थिति को और ख़राब ही करती है, क्योंकि यह आयोग ईडब्ल्यूएस आरक्षण के साफ़ तौर पर ख़िलाफ़ था।

 सरकार को इस मामले में पारदर्शिता और स्पष्टता के लिए तत्काल सिंह आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करना चाहिए। 

आयकर सीमा को ग़लत तरीके से पेश किया जाना

केंद्र सरकार ने इस दावे के सिलसिले में अपनी बात को आगे रखते हुए कहा कि सिंहो आयोग ने उन लोगों को चिह्नित किये जाने की सिफ़ारिश की थी, जिनकी पारिवारिक आय कर योग्य सीमा से कम है, उन्हें ईडब्ल्यूएस के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। जबकि आय कर की सीमा समय-समय पर जीवन यापन की लागत के आधार पर बढ़ाई जाती रहती है और इस समय यह 8 लाख रुपये प्रति वर्ष है।

हालांकि, इस समय सिर्फ़ 2.5 लाख रूपये से ज़्यादा वार्षिक आय कर योग्य है। 2.5 से 5 लाख रुपये के स्लैब में वार्षिक आय पर 5 प्रतिशत का आयकर लगता है और 5 लाख रुपये से लेकर 8 लाख रुपये के स्लैब में 20% का आयकर लगता है।

इसलिए, जैसा कि केंद्र सरकार का दावा है कि "आयकर सीमा" प्रति वर्ष 8 लाख रूपये है, तो ऐसा नहीं है।

संक्षेप में ईडब्ल्यूएस आय सीमा को लेकर सरकार का औचित्य झूठे और भ्रामक दावों के साथ-साथ ओबीसी और सामान्य वर्ग के बीच के फ़र्क़ को मिटाना ख़तरनाक आभासी बुनियाद पर आधारित दिखता है।

(विनीत भल्ला दिल्ली स्तित वकील और द लीफ़लेट में सहायक संपादक हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Centre’s Justification for Rs 8 Lakh Income Limit for EWS Reservation Erases Distinction Between ‘General’ and ‘OBC’ Categories, Based on Misleading Claims

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