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डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर मानवीय संकटों की अलोकप्रियता को चुनौती

हर एक बातचीत से वैश्विक चिंता में बढ़ोत्तरी होती है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल, कोविड-19 जैसे मुद्दों पर राष्ट्राध्यक्षों को मुद्दों पर जवाबदेह बनाने के लिए किया जाना चाहिए।
covax
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

महामारी के दौरान हमसे लगातार कहा गया कि "कोई भी तब तक सुरक्षित नहीं है, जब तक हर कोई सुरक्षित नहीं है।"  यह शब्द बड़े पैमाने पर कोविड वायरस के खिलाफ हो रहे टीकाकरण के लिए इस्तेमाल किए जा रहे थे। लेकिन ट्विटर पर बातचीत को परखते हुए समझ आता है कि लोगों में, दुनिया के टीकाकरण की सबसे बड़ी दौड़ के प्रति बहुत दिलचस्पी नहीं है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर वैक्सीन पर जरूरी स्तर पर चर्चा नहीं हुई। 

हम यह इसलिए जानते हैं क्योंकि 'कोवैक्स या कोविड 19 वैक्सीन वैश्विक पहुंच परियोजना' के जिक्र वाले ट्वीट, मार्च, 2021 के बाद से कम होते जा रहे हैं। इस परियोजना के तहत 92 देशों को वैक्सीन आपूर्ति की जानी थी। लेख के लेखकों को पता चला है कि सितंबर के आखिर तक कोवैक्स पर बातचीत दिसंबर, 2020 के स्तर तक गिर गई। (चार्ट 1 देखें)। यह देखना बेहद हैरानी भरा है, क्योंकि गावी, विश्व स्वास्थ्य संगठन और वैक्सीन एलायंस जैसे मंच कोवैक्स योजना में प्रतिनिधि भूमिका में थे। 

चार्ट 1: कोवैक्स के बारे में ट्वीट

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को जमीन पर मौजूद स्थितियों को बढ़ाने के लिए जाना जाता है। लेकिन हमें ट्विटर के आंकड़ों से पता चला है कि सोशल मीडिया ने वैक्सीन संकट को नजरअंदाज किया है। हम कह सकते हैं कि डिजिटल भागीदारी में कमी आना, मैदान पर कोवैक्स के प्रदर्शन में कमजोरी को दर्शाता है। कोवैक्स अपने लक्ष्यों को पूरा करने से अब भी दो साल पीछे है। लेकिन मामला इससे आगे का है। ट्विटर के आंकड़े यह भी बताते हैं कि अन्य वैश्विक आपात संकटों और मानवीय चुनौतियों में भी डिजिटल प्लेटफॉर्म का हाला कोरोना वैक्सीन जैसा रहा है। ट्विटर ज़मीनी वास्तविकताओं दर्शाता है। तो कोवैक्स पर इसके आंकड़े दुनिया से जुड़े मुद्दों में लोगों की कम दिलचस्पी को दिखाते हैं। बल्कि हम पहले से ही जानते हैं कि दूसरे बड़े संकट भी ट्विटर पर लोगों का रुझान अपनी तरफ खींचने में नाकामयाब रहे हैं।

पहले हम कोवैक्स के आंकड़ों की तरफ देखते हैं: मार्च में ट्विटर के 33.6 मिलियन 'यूनीक यूजर्स' में से हर एक ने कोवैक्स पर कम से कम दो बार ट्वीट किया। सितंबर के बाद यह आंकड़ा 1.6 ट्वीट प्रति उपयोगकर्ता तक गिर गया। यहां सिर्फ ट्वीट की संख्या ही नहीं कमी, बल्कि ट्वीट करने की प्रवृत्ति में भी कमी आ गई। हालांकि नए ट्वीट की संख्या में कमी आई, लेकिन रिट्वीट की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई, मतलब दूसरे जो कह रहे हैं, उसकी प्रबलता बढ़ाई गई। मतलब कोवैक्स के आसपास प्रत्यक्ष बातचीत में कमी आई। लेकिन अप्रत्यक्ष या निष्क्रिय भागीदारी में उछाल आया और यह बढ़ रही है। लेकिन कोवैक्स पर प्रत्यक्ष विमर्श में कमी चिंताजनक है। क्योंकि यहां लाखों जिंदगियां दांव पर हैं।

यहां कोवैक्स की लोकप्रियता का सही अंदाजा, इसके ऊपर जारी विमर्श की मात्रा का दूसरे मुद्दों पर होने वाली बातचीत से तुलना कर लगाया जा सकता है। 18 महीने में कोवैक्स पर कुल ट्वीट और रिट्वीट की संख्या 74 लाख है। इसकी तुलना में कोरिया के पॉप गाने #Sticker9thwin पर अक्टूबर में एक दिन में सिर्फ़ 6 घंटों में 12 लाख ट्वीट आए। इसी तरह थाई टीवी शो #Candyหวานจังหวานใจมิวกลัฟ को 3 अक्टूबर के दिन लगभग इतने ही वक़्त में 13 लाख ट्वीट और रिट्वीट मिले।

लेकिन पहले भी बेहद गंभीर आपातकालों को ऑनलाइन उतनी अहमियत नहीं मिली। हमने पहले आई मानवीय विपत्तियों पर किए गए ट्वीट की तुलना की। हमने पाया कि 2017 में यमन में मानवीय संकट के दौरान 217 विस्थापित लोगों के लिए सिर्फ़ एक ही ट्विटर यूजर आवाज उठा रहा था। 2019 तक इस आंकड़े में तीन गुना कमी आ गई, मतलब 797 विस्थापित लोगों के लिए एक ही ट्विटर यूजर आवाज उठा रहा था। यमन में आए संकट पर 2014 से 2021 के बीच की सात साल की लंबी अवधि में सिर्फ़ 6 लाख 70 हजार ट्वीट और रिट्वीट हुए हैं। फुटबाल या रोजाना राज्य की राजनीति से जुड़े मुद्दों पर इससे कहीं ज्यादा मात्रा में सिर्फ़ दो महीने या कुछ हफ़्तों में ही ट्वीट हो जाते हैं।

"कोलिशन फॉर एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनोवेशन्स" के सीईओ डॉ रिचर्ड हैचेट का कहना है कि अमीर देशों को वैक्सीन की जमाखोरी से रोकने के लिए, दूसरे लोगों और देशों को "आक्रामक कार्रवाई" की जरूरत होगी, कोवैक्स को सफल ना होने देने में एक अहम कारक यह जमाखोरी भी है। दुर्भाग्य से दुनिया में वैक्सीन वितरण में काफी असंतुलन हो चुका है। लेकिन यहां यह सवाल पूछा जाना भी जरूरी है कि यह आक्रामक कार्रवाई करेगा कौन? क्या यह दूसरे देशों के प्रमुख होंगे या जनता होगी? यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस संयुक्त राष्ट्र संघ का हिस्सा है, वह एक वैश्विक सामूहिक संगठन है। वह कोई इस दुनिया के बाहर का संगठन नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर वैश्विक वैक्सीन आपात से जूझने में इच्छा शक्ति की कमी है, तो यह उन देशों की इच्छाशक्ति की कमी है, जिन्हें यह कार्रवाई करनी थी।  

हमने जो आंकड़े इकट्ठे किए हैं, उनमें वैक्सीन वितरण में समानता को सुनिश्चित करने के लिए लोकप्रिय "आक्रामक कार्रवाई" दिखाई नहीं पड़ती। जबकि कोवैक्स गठबंधन का यह एक उद्देश्य है। सार्वजनिक कार्रवाई का ना होना, राष्ट्रों के अध्यक्षों का टीकाकरण और दूसरे वैश्विक आपातों पर जवाबदेही मांगने में इच्छाशक्ति की कमी दिखाता है। सबसे ज़्यादा आपात वक़्त में सूचनाओं की आपूर्ति बाधित हो जाती है, जिससे बेहद अहम मुद्दों पर लोगों में आपसी व्यवहार नहीं हो पाता। जैसे वैक्सीन संकट या यमन में तबाही के दौरान हुआ। 

संकट के समय यमन से बहुत कम जानकारियां बाहर आ रही थीं, ऐसे में स्वाभाविक है कि उस मुद्दे पर होने वाली बातचीत कम होगी। राष्ट्रों के अलावा, विवादास्पद क्षेत्र में ज़मीन पर मौजूद एजेंसियों की जिम्मेदारी होती है कि वास्तविक सूचनाएं सीमाओं के परे दूसरे लोगों तक पहुंच पाएं। 

अलमिगदाद मोजाल्ली का उदाहरण लीजिए, जो यमन से द न्यू ह्यूमेनिटेरियन (तब आईआरआईएन) में लिखते थे, उनकी यमन में हुई एक एयरस्ट्राइक में मौत हो गई थी। मोजाल्ली ने यमन में मानवीय संकट पर सक्रिय तरीके से रिपोर्टिंग की थी, अपनी मौत से ठीक पहले वे जॉर्डन में थे। वहां पहुंचकर उन्हें हैरानी हुई कि यमन में युद्ध की वहां बहुत कम खबरें बन रही हैं। द न्यू ह्यूमेनिटेरियन में मोजाल्ली को दी श्रद्धांजलि में विदेश संबधों पर यूरोपीय परिषद के एडम बेरॉन ने लिखा कि यमन में संकट क्षेत्र के सबसे ज्यादा तबाही वाले विवादों में से एक है, लेकिन यह एक ऐसा विवाद है, जिसकी खबर लोगों तक बमुश्किल ही पहुंच पाती है...." पहले बताए गए आंकड़ों से भी साफ़ होता है कि यमन में जारी संघर्ष को सीमा पार के देश ज्यादातर नजरअंदाज ही कर रहे थे। 2016 की शुरुआत में GDLET प्रोजेक्ट ने यमन की ऑनलाइन मीडिया कवरेज को काफ़ी कम पाया: अरब की प्रेस में यह 5 फ़ीसदी से भी नीचे थी, और दूसरी भाषाओं की खबरों में एक फ़ीसदी से भी नीचे। अगर यमन संघर्ष की सूचनाएं जॉर्डन में बमुश्किल ही खबरें बन पा रही हैं, तो हम कितना विश्वास रख सकते हैं कि यह अरब क्षेत्र के बाहर खबरें बन पाएंगी?

डिजिटल दुनिया की प्रवृत्ति के चलते डिजिटल स्तर पर "वृहद एकत्रीकरण (मास मोबलाइजेशन)" आसान नहीं है। कई बार ट्विटर पर कुछ सूचनाएं सनसनी बन जाती हैं, लेकिन उनकी उम्र कम होती हैं, मतलब वहां बहुत प्रतिस्पर्धा है। हमने देखा है कि सोशल मीडिया के सितारे अपनी ऑनलाइन प्रसिद्धि का इस्तेमाल पारंपरिक या निरंतर राजस्व बनाने में करते हैं। डिजिटल बाज़ार के सलाहकारों और प्रायोजित अभियानों ने बिना पैसा लगाए किए जाने वाले मूल डिजिटल अभियानों को बहुत मुश्किल बना दिया है। कुलमिलाकर अहम मुद्दों पर बातचीत जारी रखने के लिए लोगों के सतत प्रयासों की जरूरत होती है। बातचीत करने से अंतर आता है, भले ही यह डिजिटल स्तर पर हो रही हो। कम से कम बातचीत से प्रभावित लोगों को मान्यता और उन्हें एक उम्मीद तो मिलती है। इससे संदेश जाता है कि उन्हें हमने भुलाया नहीं है। तकनीकी उन्नतियों से बातचीत करना आसान हो गया है। अगर इसको ठीक से इस्तेमाल किया जाए, तो इससे लोगों को इकट्ठा कर राष्ट्रों को उनकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह बनाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए लगातार बातचीत करना जारी रखना होगा और इसका सबसे अच्छा वक्त अभी है।    

विहांग जुमले बर्लिन में रहते हैं और वे पब्लिक पॉलिसी के छात्र हैं। विग्नेश कार्तिक के आर किंग्स कॉलेज, लंदन में किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में शोधार्थी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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