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कोविड टीके की कीमतों का घोटाला

भारत सरकार के लिए चार विकल्प सोचे जा सकते हैं। पहला, कोविड-टीके के उत्पादन का राष्ट्रीयकरण। दूसरा, इस संकट के दौर के लिए ही भारत बायोटेक तथा एसआइआइ का सरकार अधिग्रहण। तीसरा विकल्प है एक आयोग का गठन, जो उत्पादन लागतों का अध्ययन करे और सरकार से लिया जाने वाला दाम तय करे। और आखरी, प्रतिस्पर्द्धी बोलियों के जरिए नये टीका उत्पादकों के लिए मैदान खोला जाए।
कोविड टीके की कीमतों का घोटाला

अब जबकि देश पूरी एक सदी के अपने सबसे भयानक स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है, कोविड-टीका उत्पादकों ने इस मौके का फायदा उठाकर मुनाफाखोरी की मुहिम छेड़ दी है। उन्होंने मोदी सरकार की अक्षमता या मिलीभगत का फायदा उठाकर ऐसा किया है।

शुरुआत में ही दो मुद्दों में अंतर किए जाने की जरूरत है। पहला, मुद्दा यह कि कोविड के टीके की, उपभोक्ताओं से क्या कीमत वसूल की जानी चाहिए? इस संबंध में किसी संदेह की गुंजाइश ही नहीं है कि यह कीमत शून्य ही होनी चाहिए, जैसा कि मोदी निजाम के पूर्व-आर्थिक सलाहकार, डा अरविंद सुब्रमण्यम तक ने रेखांकित किया है। दूसरा सवाल यह है कि टीका उत्पादकों को कितना दाम दिया जाना चाहिए? इसी पहलू से सरकार ने उन्हें, अपनी मर्जी से कुछ भी दाम वसूल करने की छूट दे दी है। सरकार ने इसके लिए सिर्फ एक ही शर्त लगायी है कि उन्हें केंद्र सरकार को 150 रु प्रति खुराक के हिसाब से टीके देने होंगे। टीका निर्माताओं के मजे हो गए हैं और वे राज्य सरकारों को तथा निजी बाजार में टीका बेचने के  लिए, अनाप-शनाप दाम तय कर रहे हैं।

ऐसा करने के लिए उन्होंने जो सफाई दी है कि उसमें इतनी सारी अप्रासंगिक चीजें, तिकड़में और झूठ हैं कि यह समझ पाना मुश्किल है कि कहां से शुरू करें। आइए, पहले हम कोवीशील्ड का ही मामला ले लेते हैं। यह टीका सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआइआइ) द्वारा बनाया जा रहा है, ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर के बनाया जा रहा है। उसने ऐलान किया है कि वह राज्य सरकारों को 400 रु में और निजी खरीदारों को 600 रु में टीके की एक खुराक देगा। केंद्र सरकार को वह किस दर पर टीका देगा यह अब भी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि केंद्र सरकार कह रही है कि उसे 150 रु में टीका दिया जाएगा, जबकि एसआइआइ का कहना है कि वह आइंदा अब उसे 400 रु में दिया जाएगा। टीके की 600 रु की एक खुराक का मतलब होता है, करीब 8 डालर प्रति खुराक और 400 रु प्रति खुराक का मतलब होता है, करीब 5.33 डालर प्रति खुराक। यह गणना, कोविड की दूसरी लहर के चलते रुपए की घटी हुई विनिमय दर पर आधारित है। बहरहाल, खुद एस्ट्राजेनेका द्वारा योरपीय देशों को यही टीका  2.18 डालर प्रति खुराक के हिसाब से दिया जा रहा है और अमरीका को 4 डालर प्रति खुराक के हिसाब से बेचने की उसकी योजना है। एसआइआइ खुद इस टीके का दक्षिण अफ्रीका के लिए 5.25 डालर प्रति खुराक के हिसाब से निर्यात कर रहा है, जो कि भारत में खरीददारों से वह जितना दाम वसूल करना चाहता है, उससे तो कम ही है। वास्तव में भारत में एसआइआइ द्वारा जो दाम वसूल किया जाना है, वह इस खास टीके के लिए दूसरे सभी देशों से वसूल किए जा रहे दाम से ज्यादा है।

टीके का इतना ज्यादा दाम तय किए जाने के लिए एसआइआइ द्वारा दी जाने वाली सफाईयाँ लगातार बदलती रही हैं। कभी उसकी ओर से यह दलील दी जाती है कि सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम में प्रयोग किए जाने वाले टीके तो कम दाम पर दिए जा रहे हैं और इसलिए सरकार को दिए जा रहे टीके के लिए कम दाम लगाया जा रहा है, जबकि निजी खरीदारों को यह टीका इससे कहीं महंगा दिया जा रहा है। लेकिन, ऐसा क्यों किया जा रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। और अगर वाकई ऐसा ही हो रहा है, तो यह निहितार्थ: यही कबूल करना हुआ कि अगर निजी अस्पतालों द्वारा उत्पादक से टीका खरीदे जाने के बजाए, सरकार ने ही उत्पादक से टीके का सारा भंडार खरीद लिया होता और उनसे निजी अस्पतालों के लिए भी टीके का वितरण किया होता, तो इस टीके पर कम दाम वसूला जा रहा होता। इसका मतलब यह हुआ कि मोदी सरकार का टीकों की निजी खरीदारों के लिए बिक्री की इजाजत देना ही (जबकि और किसी भी देश में निजी अस्पतालों को कोविड-19 के टीके सीधे खरीदने की इजाजत नहीं है), निजी अस्पतालों द्वारा टीके का ज्यादा दाम वसूल किए जाने के लिए जिम्मेदार है। इसका अर्थ यह है कि टीके के लिए वसूल किए जा रहे दाम मनमाने हैं और उनका टीके के उत्पादन की लागत से कुछ लेना-देना ही नहीं है।

कभी-कभी एसआइआइ की ओर से यह दावा भी किया जाता है कि इस तरह की बिक्री के जरिए उसके लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाना जरूरी है, ताकि संकट से निपटने के लिए वह अपनी उत्पादक क्षमताओं का विस्तार कर सके। लेकिन, यह दलील तो बिल्कुल ही नहीं जंचती है। केंद्र सरकार ने हाल ही में एसआइआइ को अपनी उत्पादन क्षमता का विस्तार करने के लिए 3000 करोड़ रु दिए हैं और यह बात उसने खुद कबूल भी की है। इसलिए, अतिरिक्त रूप से ऊंचा दाम रखकर, संसाधन जुटाने की कोई जरूरत नहीं है। इसके अलावा, इनमें से किसी भी दलील से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता है कि भारत में वसूल की जा रही कीमत, निर्यातों के लिए लगायी जा रही कीमत से ज्यादा क्यों है? संक्षेप में इस तरह की सारी दलीलें सिर्फ झूठे बहाने हैं और ये बहाने गढ़े गए हैं, महामारी के बीच में इस कंपनी की मुनाफाखोरी पर पर्दा डालने के लिए।

बहरहाल, एसआइआइ का यह लुटेरापन भी, भारत बायोटेकके लुटेरेपन का तो पासंग भी नहीं है। यह कंपनी भारत में ही विकसित, कोवैक्सीन बना रही है। भारत बायोटेकने केंद्र सरकार के लिए टीकेे की अपनी आपूर्तियों के लिए (जो उसके कुल उत्पादन का 50 फीसद होंगी) 150 रु प्रति खुराक कीमत तय की है और राज्य सरकारों को दिए जाने वाले टीकों के लिए 600 रु और निजी अस्पतालों को दिए जाने वाले टीकों के लिए 1,200 रु0 खुराक दाम रखा है। राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को उसके कुल उत्पादन में से आधे टीके दिए जाएंगे। अब इस सब पर तो रहस्य का ही पर्दा पड़ा हुआ है कि यह कंपनी राज्य सरकारों से, उसी टीके के लिए केंद्र से लिए जाने वाले दाम से चार गुना दाम क्यों वसूल करना चाहती हैं और क्यों राज्य सरकारों को अपनी जरूरत के टीके हासिल करने के लिए, निजी अस्पतालों के साथ होड़ करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह तो दलील ही बिल्कुल बेतुकी होगी कि राज्यों से ज्यादा दाम इसलिए वसूला जा रहा है, ताकि केंद्र सरकार को सस्ते दामों पर टीका दिया जा सके। आखिरकार, क्या सरकार के इन दोनों संस्तरों से, एक ही जनता की सेवा करने की अपेक्षा नहीं की जाती है? लेकिन, मैं यहां एक ही नुक्ता लेना चाहूंगा--आखिरकार, क्या वजह है कि भारत बायोटेकद्वारा कोवैक्सीन के लिए वसूल किए जाने वाले दाम, एसआइआइ द्वारा कोवीशील्ड के लिए घोषित किए गए बढ़े-चढ़े दाम से भी बहुत ज्यादा हैं?

इसके लिए दी जाने वाली सफाईयाँ भी हास्यास्पद तरीके  से बेतुकी हैं और ये सफाइयां बदलती रहती हैं। पहली सफाई तो यही दी जा रही थी कि भारत बायोटेकने कोवैक्सीन के चिकित्सकीय ट्राइल पर अपनी जेब से 350 करोड़ रु लगाए थे, जबकि एसआइआइ को यह खर्च नहीं करना पड़ा था और भारत बायोटेकको यह पैसा भी तो निकालना है। लेकिन, यह तो सच्चाई से बहुत दूर है। टीआइएसएस से जुड़े रामकुमार ने (स्क्रॉल, 26 अप्रैल में) दिखाया है कि किस तरह, कोवैक्सीन टीके के विकास में उल्लेखनीय रूप से ज्यादा सार्वजनिक फंडिंग लगी है और कौवैक्सीन के संंबंध में, समकक्षों द्वारा समीक्षित पत्रिकाओं में जो भी आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनमें इस सच्चाई को स्वीकार किया गया है। यह सच इस तथ्य से भी स्वत:स्पष्ट है कि इन सभी आलेखों पर सह-लेखक के रूप में आइसीएमआर के अध्यक्ष का नाम गया है।

लेकिन, मान लीजिए कि बहस की खातिर हम भारत बायोटेक की उक्त दलील को स्वीकार भी कर लेते हैं। तब भी भारत बायोटेक का मंसूबा अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाकर 70 करोड़ टीका सालाना करने का है, जबकि फिलहाल उसकी योजना अगले महीने 3 करोड़ खुराकों का ही उत्पादन करने की है। अब हम यह मान लेते हैं कि यह कंपनी अगले महीने से अपने टीका उत्पादन को केंद्र को 50 फीसद और राज्यों तथा निजी अस्पतालों को 25-25 फीसद के हिसाब से बेचती है (यह अनुपात जान-बूझकर इसलिए लिया गया है क्योंकि यह अनुपात हमारे तर्क के प्रतिकूल पड़ता है), तो निजी अस्पतालों को ही 75 लाख खुराकें प्रति माह बेची जा रही होंगी। लेकिन, चूंकि कोवीशील्ड की तुलना में कोवैक्सीन के लिए निजी अस्पतालों को बिक्री पर 600 रु0 अतिरिक्त वसूल किए जा रहे होंगे, 23 दिन में उन 350 करोड़ रु0 को वसूल किया जा चुका होगा, जो कथित रूप से कोवैक्सीन के चिकित्सकीय ट्राइल पर इस कंपनी ने खर्च किए थे, जबकि कोवीशील्ड को इस पर खर्चा नहीं करना पड़ा था! तब निजी अस्पतालों के लिए कोवैक्सीन की दर स्थायी रूप से एसआइआइ द्वारा रखी गयी दर से दोगुनी तय किए जाने का क्या औचित्य है?

इसी प्रकार, भारत बायोटेक ने इसकी ओर इशारा किया है कि एसआइआइ को तो बिल और मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन से 30 करोड़ डालर की फंडिंग हासिल हुई थी, लेकिन उसे तो इस तरह की कोई सरपरस्ती हासिल नहीं थी और इसके चलते इसकी पूंजी लागतें कहीं ज्यादा बैठी हैं और उनकी भरपाई करने के लिए कहीं ज्यादा कीमतें वसूल करना जरूरी है। एक बार फिर हम अगर टीकों की बिक्री का ऊपर सुझाया गया अनुपात ही मानकर चलते हैं तो, कोवैक्सीन का भारित औसत दाम, 525 रु0 बैठता है। दूसरी ओर कोवीशील्ड का भारित औसत दाम (हम यह मानकर चल रहे हैं कि एसआइआइ द्वारा केंद्र सरकार को आगे भी टीका 150 रु0 में ही दिया जा रहा होगा) 325 रु0 बैठता है। दोनों में 200 रु0 का अंतर हुआ। 3 करोड़ टीका खुराक प्रति माह का अपरिवर्तनीय उत्पादन स्तर मान कर चलें तो (हालांकि भारत बायोटेक का कहना है कि वह अपना उत्पादन बढ़ाने जा रहा है) भारत बायोटेक को अपने पास से लगाए अतिरिक्त 30 करोड़ डालर वसूल करने में, चार महीने से भी कम ही लगेंगे। इस अतिरिक्त पूंजी लागत को निकालने के लिए, जो वास्तव में चार महीने में ही वसूल हो जाने वाली है, स्थायी रूप से बढ़ी हुई कीमत वसूली जा रही होगी। इसी को तो घोर लुटेरापन कहते हैं।

वास्तव में एसआइआइ और भारत बायोटेक द्वारा पेश की गयी एक-एक दलील, चालबाजीभरी है। मिसाल के तौर पर बढ़ी हुई कीमतों को सही ठहराने के लिए दी जा रही यही दलील कि चूंकि वाइरस में म्यूटेशन होता है, लगातार टीके के भी नये वैरिएंट विकसित करने की जरूरत होगी। लेकिन, इस दलील की कोई तुक ही नहीं बनती है क्योंकि इसका कोई आंकड़ा तो बताया ही नहीं जा रहा है कि इस काम के लिए कितना पैसा अलग रखा जाना है। इसी प्रकार, बढ़ी हुई कीमतों के लिए दी जा रही इस दलील की भी कोई तुक नहीं बनती है कि उत्पादन की क्षमताओं का विस्तार करने के लिए, अतिरिक्त निवेश करने होंगे। इसकी सीधी सी वजह यह है कि उत्पादन क्षमता का विस्तार करने के लिए, उन्हें सरकार से अतिरिक्त संसाधन मिल ही रहे हैं। (केंद्र सरकार से भारत बायोटैक्रीक को 1,500 करोड़ रु0 मिल रहे हैं और एसआइआइ को 3,000 करोड़ रु0)। संक्षेप में यह कि ये दोनों टीका उत्पादक, संकट का फायदा उठाकर मुनाफाखोरी कर रहे हैं। अगर केंद्र सरकार को इसका पता ही नहीं है, तो यह उसकी घोर अक्षमता को दिखाता है। और अगर उसको इसका पता है, तो जाहिर है कि इस ठगी में उसकी मिलीभगत है और उसने यह मिलीभगत क्यों कर रखी है, इसकी जांच की जानी चाहिए।

इस सबके बजाए, भारत सरकार को क्या करना चाहिए, यह बिल्कुल साफ है। साहसिकता के घटते क्रम में उसके लिए चार विकल्प सोचे जा सकते हैं। पहला तो, जो कि स्वत:स्पष्ट समाधान है, यही है कोविड-टीके के उत्पादन का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। अगर सरकार पहला नहीं कर सकती है, तो दूसरा है इस संकट के दौर के लिए ही भारत बायोटेक तथा एसआइआइ का सरकार अधिग्रहण कर ले, ताकि बढ़ी-चढ़ी कीमत वसूले जाने को रोका जा सके। संकट खत्म होने के बाद ये टीका उत्पादन सुविधाएं संंबंधित कंपनियों का लौटा दी जाएं, जैसा कि योरप में स्पेन जैसे देशों ने निजी अस्पतालों के मामले में किया था। तीसरा विकल्प है, एक आयोग का गठन करना, जो उसी तरह से उत्पादन लागतों का अध्ययन करे, जैसे कि कृषि लागत तथा मूल्य आयोग करता है, और यह आयोग सरकार से लिया जाने वाला दाम तय करे और यह भी तय करे कि क्या एक थोक खरीददार से ज्यादा रखे जाने की भी कोई तुक है। अन्य देशों के मामले में अस्ट्राजेनेका के लिए एक ही थोक खरीददार की व्यवस्था लागू की जा रही है।

आखिरी विकल्प, सामने आया यह सुझाव है कि वर्तमान टीका-उत्पादकों की इजारेदाराना हैसियत को खत्म किया जाए। इसके लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का सहारा लेकर, प्रतिस्पद्र्घी बोलियों के जरिए नये टीका उत्पादकों के लिए मैदान खोला जा सकता है। जो सबसे कम दाम पर टीका देने की पेशकश करे, उसे ही टीके का उत्पादन करने के लिए छांट लिया जाए।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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