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UAPA में मौजूद ख़तरों की नींव पिछले निवारक-निरोध क़ानूनों में ही रख दी गई थी

निवारक-निरोध क़ानून और आंतक रोधी क़ानून, जो सामान्य आपराधिक सिद्धांतों के अपवाद होते हैं, उनका ग़लत इस्तेमाल का लंबा इतिहास रहा है।
UAPA

निवारक निरोधक क़ानून और आतंकरोधी क़ानून, जो अपराधशास्त्र के सामान्य मूल्यों से अलग जाते हैं, उनका बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल का क़ानून रहा है। KG कन्नाबिरन लेक्चर 2020 में अपने भाषण में मिहिर देसाई ने कहा कि अब वक़्त आ गया है कि UAPA जैसे भयावह क़ानूनों के इनके तेजी से बढ़ते बेहद ख़तरनाक इस्तेमाल के चलते खत्म करने का वक़्त आ गया है। लोगों को सिर्फ़ सरकार से असहमत होने के चलते गिरफ़्तार किया जा रहा है और उन्हें बेल देने से इंकार किया जा रहा है। प्रमुख अंश:

ज़्यादातर निरोधक क़ानून एनडीए सरकार या बीजेपी सरकार के दौर में नहीं आए हैं। निवारक क़ानून या आतंकरोधी क़ानून संविधान द्वारा लाए गए और इसके बाद कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में अलग-अलग विधायी प्रावधानो के ज़रिए लाए गए। यह क़ानून अपनी अराजकता को अपवाद बनाते हैं।

इन क़ानूनों के ज़रिए राज्य को अधिकार मिलता है कि वे कह सकते हैं कि हम क़ानून के हिसाब से काम कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ऐसे विधायी क़ानूनों को पारित करना क़ानून के शासन का ही उल्लंघन करता है। इसलिए यह अहम हो जाता है कि अब नागरिकों के ऊपर राज्यों को बहुत ज़्यादा अधिकार देने वाले इन क़ानूनों पर दोबारा विचार किया जाए।

संविधान सभा में सवाल उठा था कि निवारक क़ानूनों के साथ क्या किया जाए। आजादी के आंदोलन ने हमेशा निवारक हिरासत का विरोध किया था। आजादी का आंदोलन आजादी के बारे में था और लोगों को तब तक जेल में नहीं डाला जा सकता था, जब तक दोषी के खिलाफ़ धाराएं नहीं लगा दी जातीं।

अंतत: सभा ने इस बात पर सहमति जताई और मुझे लगता है निवारक निरोध (हिरासत) को संविधान का हिस्सा बनाने पर सहमति गलत थी।

शुरुआत में निवारक क़ानून सिर्फ़ दो साल के लिए थे। 1967 में कांग्रेस पार्टी 6 राज्यों में विधानसभा चुनाव हार गई और उसे महसूस हुआ कि इन राज्यों में हार की वज़ह निवारक हिरासत क़ानूनों का दुरुपयोग था।

नतीजतन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार निवारक निरोधक क़ानून के तौर पर "मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (MISA)" लेकर आई। यह क़ानून आपातकाल के दौर में सरकार की अराजकता का प्रतीक बन गया और इसे आपातकाल के बाद हटा दिया गया।

आजादी के आंदोलन ने हमेशा निरोधक क़ानूनों का विरोध किया। आजादी का आंदोलन आजादी के बारे में था और लोगों को जेल की सलाखों के पीछे नहीं डाला जा सकता, बशर्ते दोषी के खिलाफ़ चार्ज ना लगा दिया गया हो।

1980 में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून को लागू कर दिया गया, जिसके तहत एक साल तक निरोधक हिरासत में रखा जा सकता है। लेकिन 1950 और 60 के दशक के निरोधक निवारक क़ानूनों के अस्थायी दर्जे के उलट, राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून, क़ानून के राज का एक स्थायी हिस्सा बन गया।

कैसे TADA ने सामान्य आपराधिक क़ानूनों को बदल दिया

1985 के पहले कोई भी आतंकरोधी क़ानून मौजूद नहीं था। आंतकवादी गतिविधियों पर हत्या या दंगा या हत्या की कोशिश के तहत मामला चलाया जाता था। लेकिन सिखों के खिलाफ़ 1984 में हुई हिंसा के बाद टेरेरिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट (TADA) लाया गया।

यह समझना अहम है कि TADA ने जो किया, वह सामान्य क़ानूनों से अलग है।

आपराधिक प्रक्रियाओं के सामान्य क़ानूनों में शख्स के पास दो अधिकार होते हैं। पहला अधिकार एंटीसिपेटरी बेल का होता है। अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि उसे गिरफ़्तार किया जा सकता है, तो वह इस बेल के लिए आवेदन कर सकता है। अगर किसी व्यक्ति पर हत्या का आरोप भी लगा है, तो भी कोर्ट उसे एंटीसिपेटरी बेल दे सकता है, बशर्ते आरोपों का आधार मजबूत ना हो।

लेकिन TADA में एंटीसिपेटरी बेल का प्रावधान खत्म कर दिया गया।

सामान्य तौर पर जब व्यक्ति गिरफ़्तार होता है, तो कोर्ट देखता है कि क्या व्यक्ति फरार तो नहीं होगा या फिर वो सबूतों के साथ छेड़छाड़ तो नहीं करेगा और कोर्ट कुछ शर्तों के साथ बेल दे देता है।

लेकिन 1950 और 60 के दशक के निरोधक निवारक क़ानूनों के अस्थायी दर्जे के उलट, राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून, क़ानून के राज का एक स्थायी हिस्सा बन गया।

लेकिन TADA में व्यक्ति को बेल तब तक नहीं मिलती, जब तक कोर्ट इस नतीजे पर नहीं पहुंच जाता कि संबंधित शख्स आरोपों का दोषी नहीं है। तो सबूत पेश किए जाने से पहले या ट्रायल शुरू करने से भी पहले, बेल के स्तर पर ही कोर्ट को तय करना पड़ता है कि संबंधित शख़्स दोषी है या नहीं। शायद ही कभी कोई बेल हासिल करने में कामयाब हुआ हो, इस तरह "बेल एक अधिकार" के सिद्धांत का उल्लंघन किया जाता है।

सामान्य तौर पर गिरफ़्तार होने के 15 दिन तक कोई आरोपी पुलिस की हिरासत में रहता है, जिसे एक महीने तक बढ़ाया जा सकता है। इस गिरफ्तारी को आधार देने वाली चार्जशीट को 60 दिनों के भीतर फाइल करना होता है। लेकिन TADA क़ानून में राज्य को एक साल में चार्जशीट दाखिल करने का अधिकार दिया गया है। तो एक साल तक आप विस्तार में उन आधारों को नहीं जान पाएंगे कि आपको क्यों गिरफ़्तार किया गया है। कोई भी कोर्ट बिना यह जाने कि वह किन आरोपों के लिए बेल दे रहा है, वह आपको बेल नहीं देगा। तो प्रभावी तौर पर यह क़ानून बिना निरोधक निवारक क़ानूनों का सहारा लिए एक साल की निवारक हिरासत का प्रावधान कर सकता है।

ऊपर से आतंकवादी होने की पूर्वधारणा होती है। घटनास्थल परर आपके फिंगरप्रिंट मिल सकते हैं और आप वहां से गुजरने वाले कोई सामान्य व्यक्ति हो सकते हैं, लेकिन यह पूर्वधारणा बनाई जाएगी कि आप एक आंतकवादी हैं और आपको इस पूर्वधारणा को गलत साबित करना होगा।

तो सबूत पेश किए जाने से पहले या ट्रायल शुरू करने से भी पहले, बेल के स्तर पर ही कोर्ट को तय करना पड़ता है कि संबंधित शख़्स दोषी है या नहीं। शायद ही कभी कोई बेल हासिल करने में कामयाब हुआ हो, इस तरह "बेल एक अधिकार" के सिद्धांत का उल्लंघन किया जाता है।

लेकिन TADA के प्रावधानों में निश्चित समय के बाद एक निरसन की धारा (सनसेट क्लॉज़) थी। मतलब संसद से पास होने के दो साल के बाद इसका परीक्षण किया जाना था।

TADA के खिलाफ़ कई विरोध प्रदर्शन भी हुए।

1994 में पूरे भारत में TADA के 70,000 मामले थे। उनमें से कई लोगों की ट्रायल शुरू भी नहीं हुई थी। आपराधिक क़ानून के लचीलेपन और उसमें मौजूद राहत के प्रावधानों बावजूद, उसमें अपराधसिद्धि दर 44 फ़ीसदी थी। वहीं TADA में अपराधसिद्धि दर महज़ एक फ़ीसदी ही रही।

TADA का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ। गुजरात में दूध की कीमतों का विरोध करने वालों, मज़दूरों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों को TADA के तहत गिरफ़्तार किया गया।

अंतत: केंद्र सरकार ने 1995 TADA का निरसन कर दिया।

POTA के आवरण में TADA को दोबारा लाया जाना

2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और भारतीय संसद पर हमले के बाद "प्रिवेंशन ऑफ डिटेंशन" अध्यादेश पारित हुआ, जो बहुत हद तक TADA की तरह ही था। इसे बाद में "प्रिवेंशन ऑफ टेररिज़्म एक्ट (POTA)" में बदल दिया गया।

हर तीन साल में POTA का संसद द्वारा परीक्षण किया जाना था, अगर संसद ऐसा नहीं करती है, तो यह अपने-आप निरसित माना जाएगा।

POTA के ज़रिए पुलिस अधिकारी के सामने दिए गए दोष स्वीकृति/इकबालिया बयान को सबूत के तौर पर मान्यता दे दी गई। जबकि सामान्य क़ानून में जज या मजिस्ट्रेट के सामने दिए इकबालिया बयान को ही सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है। इसके तहत आरोपी गिरफ़्तार होने के पहले साल में तभी बेल हासिल कर सकता है, जब कोर्ट को उसके खिलाफ़ किसी तरह का सबूत ना मिले। गिरफ़्तारी के पहले साल के बाद बेल की सामान्य स्थितियों को लागू हो जाती हैं।

POTA का दुरुपयोग राजनेताओं, हड़तालों के जरिए विरोध प्रदर्शन करने वाले कामग़ारों और अपने घरों को तोड़े जाने का विरोध कर रहे लोगों को गिरफ़्तार करने के लिए किया गया। 

आपराधिक क़ानून के लचीलेपन और उसमें मौजूद राहत के प्रावधानों बावजूद, उसमें अपराधसिद्धि दर 44 फ़ीसदी थी। वहीं TADA में अपराधसिद्धि दर महज़ एक फ़ीसदी ही रही।

इस बिल का राज्यसभा में विरोध किया गया। इसे पारित करने के लिए राज्यसभा और लोकसभा का संयुक्त सत्र बुलाय गया था। 

कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने POTA का निरसन कर दिया। लेकिन 2004 में कांग्रेस सरकार "अनलॉफुल एक्टिविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट (UAPA)" में एक संशोधन लेकर आ गई।

POTA और UAPA के बीच अंतर

UAPA 1967 से मौजूद है, लेकिन इसके ज़रिए सिर्फ़ उन संगठनों को ही प्रतिबंधित किया गया था, जो भारत की एकता और अखंडता के खिलाफ़ बोलते थे। बाद में 2008, 2013 और 2019 के संशोधनों से POTA में शामिल आंतकरोधी प्रावधानों को UAPA में डाल दिया गया। 

नतीजतन POTA को हटाए जाने का कोई असर नहीं पड़ा। बल्कि UAPA में तीन ऐसे मुद्दे हैं, जो POTA से ज़्यादा बदतर हैं।

POTA के तहत परीक्षण समितियों का प्रावधान था, जो मामलों में छंटाई करतीं और किसी पर इसके तहत मामला चलाने की अनुमति देतीं। लेकिन UAPA के तहत इस तरह की किसी समिति का प्रावधान नहीं है।

POTA में एक साल के लिए कड़ी बेल शर्तें थीं, जिसके बाद सामान्य बेल स्थितियां लागू हो जाती थीं। लेकिन UAPA में ऐसा नहीं है। इस क़ानून में हमेशा कड़ी बेल स्थितियां ही लागू रहती हैं और बेल हासिल करने के मौके बेहद कम होते हैं।

POTA विधेयक का राज्यसभा में विरोध हुआ था। उसे पारित करने के लिए राज्यसभा और लोकसभा दोनों का संयुक्त सत्र बुलाया गया था। 

TADA और POTA दोनों में ही दो साल के बाद सनसेट क्लॉज़ (एक निश्चित समय के बाद अपने आप निरसन की धारा, बशर्ते दोबारा पारित किया जाए) का प्रावधान था। लेकिन UAPA अब एक ऐसा आंतकरोधी क़ानून बन चुका है, जिसमें कोई सनसेट क्लॉज़ नहीं है। अगर हम ऊपर के इन क़ानूनों की तुलना करें, तो UAPA, POTA और TADA की तुलना में ज़्यादा उत्पीड़नकारी क़ानून है।

क्यों UAPA का दुरुपयोग POTA या TADA से ज़्यादा ख़तरनाक है

मौजूदा सत्ता द्वारा जिस तरीके से UAPA का उपयोग किया जा रहा है, वह बताता है कि हमें इस क़ानून को सरल किए जाने के बजाए इसका निरसन करना चाहिए। महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव मामले में सभी को आतंकवादी के तौर पर आरोपित किया गया, इससे कोई मतलब नहीं रखा गया कि संबंधित शख़्स का आतंकवाद से किसी तरह का मतलब है या नहीं। उत्तर-पूर्व दिल्ली के मामलों में भी पीड़ितों को UAPA के तहत आरोपी बनाया गया है, जबकि पीड़ित अहिंसात्मक तरीके से शांतिपूर्ण ढंग से अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे। 

हाथरस मामले में एक लड़की का बुरे तरीके से रेप किया गया, उसी पीटा गया, फिर उसकी हत्या कर दी गई। रातों-रात ऊंची जाति के लोगों और पुलिस प्रशासन ने मिलकर उस लड़की का अंतिम संस्कार कर दिया। इस घटना की जांच करने जो पत्रकार गया था, उसे भी UAPA में आतंकवादी के तौर पर आरोपित किया है।

TADA और POTA दोनों में क्रमश: तीन और दो साल बाद सनसेट क्लॉज़ (एक निश्चित समय बाद निरसन) था। लेकिन UAPA ने ऐसे आंतकरोधी क़ानून का आकार लिया है, जिसमें कोई सनसेट क्लॉज ही नहीं है।

अब यह हो रहा है कि इन क़ानूनों का उपयोग असहमति को दबाने और चुप कराने के लिए हो रहा है।

राज्य कई तरीके से असहमति को दबाता है। एक तरीके के तहत लोकायुक्त, सुप्रीम कोर्ट, संसद और ऐसे ही संस्थान, जो कार्यपालिका की ताकत पर लगाम लगा सकते हैं, उन्हें अंदर से कमजोर कर दिया जाता है। अगले तरीके में नागरिक समाज संगठनों और मीडिया को नियंत्रित किया जाता है।

ऐसा नहीं है कि पहले यूएपीए, टाडा या पोटा का गलत इस्तेमाल नहीं हुआ था।

कई लोग कहेंगे कि सबसे ज़्यादा अत्याचार तो आपातकाल के दौरान हुए। 

लेकिन आपातकाल एक ऐसी अवधारणा है जिसमें एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को बचाने की कोशिश होती है। जब उन्हें बचा लिया जाता है, तो आपातकाल हटा दिया जाता है, यह दो साल का एक अस्थायी प्रबंध होता है। लेकिन मौजूदा दौर में एक ऐसी विचारधारा का प्रसार हो रहा है, जो हमारे समाज स्थायी होना चाहती है।

उस विचारधारा को स्थायी होने और समाज द्वारा मान्यता प्राप्त करने के लिए,  असहमतियों  और आपत्तियों को उखाड़ फेंकना होता है। ऐसा करने के क्रम में वह विचारधारा क़ानूनी और क़ानून से इतर तरीकों को अपनाएगी। यह स्तर व्यक्तिगत हत्याओं तक भी पहुंच सकता है, जैसा गौरी लंकेश और दूसरों के साथ हुआ, ताकि डर का माहौल बनाया जा सके। 

भीमा कोरेगांव और दिल्ली दंगों जैसे षड्यंत्रकारी मामले डर का एक माहौल बना रहे हैं, जो ना सिर्फ़ एक, बल्कि कई लोगों को इस ट्रायल के खत्म होने तक प्रभावित करता रहेगा और यह ट्रायल आने वाले कई सालों तक जारी रहेगी।

इसलिए वे किसी पर भी देशद्रोही, अर्बन नक्सल का लांछन लगाते हैं और उन्हें जेल की सलाखों के पीछे डाल देते हैं। न्यायपालिका की प्रतिक्रिया भी बहुत खराब रही है।

अब वक़्त आ गया है कि UAPA को हटाया जाए और भारतीय दंड संहिता, 1860 में मौजूद क़ानूनी प्रावधानों पर वापस लौटा जाए।

मिहिर देसाई सुप्रीम कोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

यह लेख मूल तौर पर द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

The Dangers of UAPA Were Sown in Earlier Preventive Detention Laws in India

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