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नागा शांति प्रक्रिया में देरी नुक़सानदेह साबित हो सकती है

एनएससीएन (IM) 1997 से ही एक अलग झंडे और संविधान की अपनी मांग पर ज़ोर देता रहा है और उस किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार करता रहा है, जो इन दोनों की गारंटी नहीं देता हो।
नागा शांति प्रक्रिया में देरी नुक़सानदेह साबित हो सकती है

नागालैंड में केंद्र सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालिम (इसाक-मुइवा) यानी एनएससीएन (IM) के बीच तनावपूर्ण नागा मुद्दे का जल्द समाधान ढूंढने की रूकी हुई राजनीतिक बातचीत को लेकर अनिश्चितता पैदा हो रही है।

एक ओर जहां राज्य विधानसभा ने 3 अगस्त को अपने हालिया सत्र में सभी नागा राजनीतिक समूहों को केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के साथ एक समझ तक पहुंचने के लिए "एकता और सुलह की दिशा में गंभीर प्रयास करने" का आह्वान करते हुए एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर दिया है, वहीं उसी दिन केंद्र की उस कथित “प्रतिबद्धता को पूरा करने में हो रही देरी" के विरोध में नागालैंड में एनएससीएन (IM) की तरफ़ से बुलायी गयी 12 घंटे की उस राज्यव्यापी आम हड़ताल को बड़े पैमाने पर कामयाब होते देखा गया, जो ढांचागत समझौते के ज़रिये हुई शांति प्रक्रिया को लेकर जतायी गयी थी और जिस पर अगस्त 2015 में दिल्ली में प्रधान मंत्री की मौजूदगी में स्ताक्षर किये गये थे।

एक ही साथ घटे इन दो घटनाक्रमों को दोनों पक्षों की ओर से किये गये शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा जा सकता है। राज्य विधानसभा में सभी दलों का समर्थन हासिल था,तो एनएससीएन (IM) को "जन समर्थन" मिलता हुआ दिखा।

एनएससीएन (IM) ने 3 अगस्त, 2015 को ढांचागत समझौते पर हस्ताक्षर किये जाने के बाद से छह साल तक इस मुद्दे पर केंद्र की कथित चुप्पी के विरोध में 12 घंटे का वह बंद रखा था। यह प्रमुख विद्रोही समूह 1997 से ही केंद्र के साथ बातचीत करता रहा था, जिसका नतीजा इस ढांचागत समझौते पर हस्ताक्षर के तौर पर सामने आया था। दूसरी ओर, सात नागा राष्ट्रीय राजनीतिक समूहों (NNPG) की एक कार्य समिति 2017 से अलग-अलग विचार-विमर्श कर रही थी और उसी वर्ष उस समिति ने नवंबर में 'सम्मत स्थिति' नामक एक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किये थे। एनएनपीजी कहता रहा है कि वह समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार है, जबकि एनएससीएन (IM) एक अलग झंडे और संविधान की मांग पर ज़ोर देता रहा है, जिस पर केंद्र ने सहमति नहीं दी है। इस तरह, यह प्रक्रिया गतिरोध का शिकार हो गयी है।

यह मुद्दा नागालैंड विधानसभा के दो दिवसीय मानसून सत्र के शुरुआती दिन पर हावी रहा, जिसके चलते विभिन्न नागा राजनीतिक समूहों को एक साथ आने और शांति प्रक्रिया में तेज़ी लाने की मांग को देखते हुए पांच सूत्री प्रस्ताव को अपनाया गया। इसमें भारत-नागा राजनीतिक मुद्दे के "बातचीत करने वाले दलों" से अप्रत्यक्ष रूप से एनएससीएन (IM) की ओर इशारा करते हुए "एक सकारात्मक दृष्टिकोण और पूर्व-शर्तों को अलग करके आपसी सम्मान" के साथ शांति वार्ता फिर से शुरू करने का आग्रह किया गया है।

इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि " ख़ास तौर पर सार्वजनिक स्थान और मीडिया में एक दूसरे के ख़िलाफ़ निरंतर विरोध से जनता के बीच एक ग़लत संदेश जा रहा है, जबकि हम सभी शांति और राजनीतिक समाधान की एक ही आकांक्षा का अनुसरण कर रहे हैं।" इस प्रस्ताव में नागा समूहों से पार्टीगत जुड़ाव से ऊपर उठने, एकजुट होने और "एक दूसरे के साथ मिलकर मज़बूत कोशिश करने और सबके हित के लिए लोगों की आवाज़ सुनने" का आग्रह किया गया है। मुख्यमंत्री नेफ़्यू रियो की ओर से पेश किये गये इस प्रस्ताव को बाद में ध्वनिमत के साथ सर्वसम्मति से मंज़ूर कर लिया गया।

उसी दिन एनएससीएन(IM) ने 12 घंटे के बंद का आह्वान करके अपनी ताक़त का प्रदर्शन कर दिया और नागालैंड और अन्य नागा आबादी वाले इलाक़ों की दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के मालिकों को उस "ढांचागत समझौते के प्रति एकजुटता का साहस दिखाने" के लिए धन्यवाद देते हुए एक बयान जारी कर दिया। इस विद्रोही समूह ने आम हड़ताल के दौरान हुई असुविधाओं को सहन करने के लिए नागा और अन्य लोगों को भी धन्यवाद दिया।

बड़े पैमाने पर जो मुद्दे शांति प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं, उनमें पहला मुद्दा तो एनएससीएन (IM) की  तरफ़ से इस प्रक्रिया के प्रति अपनाया ज रहा कठोर रुख़ ही दिखता है। हालांकि, यह संगठन दशकों से केंद्र के साथ संघर्ष विराम में है, लेकिन इस बीच सुरक्षा बलों के साथ रुक-रुक कर झड़पें होती रही हैं।

2015 के उस ढांचागत समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले केंद्र के वार्ताकार इस समय नागालैंड के राज्यपाल हैं। इससे विश्वास की कमी पैदा हो गयी है और इससे ही मौजूदा गतिरोध पैदा हुआ है। एनएससीएन (IM) ने पहले उस वार्ताकार पर 2015 के मूल ढांचागत समझौते से एक महत्वपूर्ण शब्द को हटा देने और एनएनपीजी सहित अन्य नागा समूहों के साथ संशोधित संस्करण साझा करने का आरोप लगाया था।

राज्यपाल इसी बात को मानकर इस पर काम करते रहे हैं कि किसी समझौते के ज़रिये त्वरित शांति हासिल करनी है। लेकिन, यह "त्वरित शांति" हासिल करना मुश्किल इसलिए हो गया है, क्योंकि एनएससीएन (IM) झंडे और संविधान की अपनी प्राथमिक मांगों पर अड़ा हुआ है। केंद्र यह आरोप भी लगाता रहा है कि वह लगातार रंगदारी या जबरन कर वसूली करता रहा है। इस आरोप ने इस समूह से निपटने के लिए सरकार की ओर से एक शक्तिपूर्ण नीति के आधार को और मुनासिब ठहरा दिया है और इस क्षेत्र में सुरक्षा अभियान जारी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय भी हर छह महीने में इस क्षेत्र में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA) को लागू करता रहा है।

हालांकि, मौजूदा परिदृश्य में इस तरह का सुरक्षा अभियान बेकार ही साबित हो सकते हैं, क्योंकि एनएससीएन (IM) ने भी अपनी सैन्य क्षमता दिखा दी है। सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र में उग्रवाद की वापसी को बर्दाश्त नहीं कर सकती। पिछले अनुभवों ने यह साबित कर दिया है कि एनएससीएन (IM) कथित शक्तिपूर्ण नीतियों का सामना कर सकता है। इसके अलावा, इस समूह ने जबरन वसूली और ऐसी अन्य ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों पर रोक लगाकर और उन्हें कम करके सही संदेश भी दे दिये हैं। इसके अलावा, इस समूह के बीच लगता है कि इस बात लेकर एक आम सहमति है कि सरकार के साथ शांति वार्ता अपने बड़े राजनीतिक उद्देश्य और समावेश के लिए ज़रूरी और फ़ायदेमंद है।

राज्य के विभिन्न राजनीतिक दलों और समूहों के बीच हाल की एकता ने दिखा दिया है कि एनएससीएन (IM) को संपूर्ण नागा पहचान का प्रतिनिधित्व करने की उसकी क्षमता के लिहाज़ से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, भले ही यह समूह नागा राष्ट्रवादी मक़सद के समर्थन का सबसे बड़ा समूह अब भी बना हुआ हो।

जबकि सुरक्षा एजेंसियों का लक्ष्य इस विद्रोही समूह की कमर तोड़ने का रहा है। इस तरह की कार्रवाइयां हालात को अस्थिर कर सकती हैं क्योंकि ये दशकों की बातचीत और भविष्य में एक समझौते की संभावना को ख़त्म कर सकती हैं। शांति वार्ता के जारी रहने से निश्चित तौर पर समाधान की धुंधली उम्मीद बनी रहेगी। हालांकि, जैसा कि जम्मू और कश्मीर से सबक मिलता है कि एनएससीएन (IM) की संप्रभु प्रकृति की मांगों पर केंद्र सरकार ध्यान दे,इसकी संभावना तो नहीं है।

नागा राष्ट्रवाद की जड़ में उनकी पहचान को लेकर एक अलग प्रतिनिधित्व की मांग है, जिसे नागा-बहुल इलाक़ों में अधिक शक्तियों वाली एक स्वायत्त क्षेत्रीय परिषद जैसी व्यवस्था के ज़रिये हल किया जा सकता है। शांति प्रक्रिया में इस उम्मीद में देरी करना कि इससे एनएससीएन (IM) कमज़ोर हो जायेगा या इससे यह नागा लोगों से अलग-थलग पड़ जायेगा, दरअस्ल यह समाधान नहीं है और इसका उल्टा असर भी हो सकता है।

(अमिताभ रॉयचौधरी प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया में डिप्टी एक्ज़क्यूटिव एडिटर थे और उन्होंने आंतरिक सुरक्षा, रक्षा और नागरिक उड्डयन को व्यापक रूप से कवर किया है। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Delaying Naga Peace Process Could Prove Counter-Productive

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