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दिल्ली दंगा: एक साल से जेल में बंद है बेटा, ज़िंदा रहने के लिए मां भीख मांगने पर मजबूर

जिन दो चश्मदीदों के बयानों पर पुलिस ने शहाबुद्दीन को गिरफ़्तार किया है, उन दोनों का कहना है कि जांचकर्ताओं ने छेड़खानी कर उनके बयान गढ़े हैं।
दिल्ली दंगा: एक साल से जेल में बंद है बेटा, ज़िंदा रहने के लिए मां भीख मांगने पर मजबूर

 नई दिल्ली: 50 साल की विधवा तबस्सुम का बेटा शहाबुद्दीन पिछले साल फरवरी में हुए दंगों से जुड़े एक मामले में एक साल से जेल में है। 22 साल का शहाबुद्दीन अपने परिवार का एकलौता कमाऊ सदस्य था। अब तबस्सुम पर अपने तीन बच्चों का जिम्मा आ गया है। इसके चलते तबस्सुम को भीख मांगने पर मजबूर होना पड़ा है। इससे पहले तबस्सुम आसपास के इलाके में घरेलू काम किया करती थीं, लेकिन कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन ने उनसे यह विकल्प भी छिन लिया।

शहाबुद्दीन का मामला मायूसी की कहानी है। तबस्सुम का कहना है कि उसके बेटे को गलत आरोपों के आधार पर गिरफ़्तार किया गया है। मामले में जिन दो गवाहों के गवाही  को आधार बनाया है, उन गवाहों का कहना है कि जांच अधिकारियों ने अपने आप उनका बयान लिखा है।  जबकि उन्होंने यह वक्तव्य दिए ही नहीं हैं।

पांच  बच्चों की मां तबस्सुम उत्तरपूर्वी दिल्ली के खजूरी खास में एक किराये के मकान में रहती हैं। वह बताती हैं कि 20 साल पहले रोज़गार की तलाश में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के चांदवाड़ा से उनका परिवार दिल्ली आया था। तीन साल पहले उनके पति का निधन हो चुका है। उसके पहले तबस्सुम के पति रिक्शा चलाया करते थे। जब तबस्सुम के परिवार पर उनके पति के निधन का पहाड़ टूटा ही था, तभी एक साल बाद एक दुर्घटना में उनके बड़े बेटे की मौत हो गई।

ऐसी स्थिति में शहाबुद्दीन ने अपने परिवार की कमान संभाली और उनकी वित्तीय जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी उठाई। शहाबुद्दीन एक कैटरिंग कंपनी में काम करता था, जहां शादी समारोह में वो बर्तन साफ़ किया करता था। कथित तौर पर शहाबुद्दीन को 20 मार्च को दिल्ली पुलिस ने उस वक़्त खजूरी ट्रैफिक सिग्नल से गिरफ़्तार किया, जब वो नौकरी कर घर लौट रहा था। 

 तबस्सुम ने न्यूज़क्लिक को बताया, "कोविड के प्रतिबंध लगना शुरू हो चुके थे, तो उसके नियोक्ता (कैटरिंग चलाने वाले) ने अपने कामग़ारों को उनका वेतन देकर घर वापस भेज दिया। 6000 रुपये लेकर शहाबुद्दीन बदरपुर (दिल्ली के दक्षिणपूर्व का एक क्षेत्र) से पैदल लौट रहा था। वह काफ़ी थक चुका था। इसके बाद वो खजूरी रेड लाइट के पास रुका, वहीं से पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया।"

वह आगे बताती हैं, "जब मुझे उसकी हिरासत के बारे में पता चला तो मैं खजूरी खास पुलिस स्टेशन पहुंची। वहां मुझे पहले शहाबुद्दीन को कहां रखा गया है, इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया। बाद में उन्होंने बताया कि शहाबुद्दीन को सांप्रदायिक हिंसा के दौरान हुई एक हत्या के सिलसिले में गिरफ़्तार किया गया है।"

तबस्सुम के मुताबिक़, जब दंगे चल रहे थे तो शहाबुद्दीन उस इलाके में मौजूद भी नहीं था। वह कहती हैं, "वह दंगों के बहुत पहले ही काम पर जा चुका था, जब हिंसा  ख़त्म हुआ उसके बाद  वाले महीने (मार्च )में वह वापस घर लौट रहा था। वह उस हिंसक भीड़ का हिस्सा कैसे हो सकता है, जबकि हिंसा के दौरान वह इस इलाके में मौजूद ही नहीं था।"

क्या है मामला

यह मामला (IPC की धारा 147,148,149,302 और 34 के तहत दर्ज FIR No. 119/2020) खजूरी खास की श्रीराम कॉलोनी में रहने वाले बाबू सलमानी ऊर्फ बब्बू की नृशंस हत्या से जुड़ा है। 34 साल के ऑटो चालक बब्बू को एक उन्मादी भीड़ ने 25 फरवरी, 2020 को खजूरी खास एक्सटेंशन पर पकड़ लिया था। सलमानी एक यात्री को घर छोड़कर वापस लौट रहे थे। 

पुलिस के मुताबिक़, वह सुबह घर से जल्दी निकल गए थे। उन्हें इलाके में हो रही हिंसा की जानकारी नहीं थी। दंगाईयों ने उन्हें तभी छोड़ा जब बेहोश हो गए , सलमानी को उन्होंने मृत समझ लिया। जब पुलिस ने भीड़ को दौड़ाया, तब सलमानी के बड़े भाई और कॉलोनी के दूसरे लोगों ने उन्हें बचाया और GTB हॉस्पिटल पहुंचाया, जहां तीन दिन बाद उनकी मौत हो गई।

तीन छोटे बच्चों के पिता सलमानी अपने परिवार के एकलौते कमाऊ सदस्य थे। इन तीन बच्चों की उम्र इतनी कम है कि इनमें सबसे बड़े वाले की उम्र महज़ साढ़े चार साल ही है। सलमानी के पिता को लकवा मार चुका है और उनकी पत्नी की मानसिक हालत ठीक नहीं है। सलमानी का परिवार एक किराये के घर में रहता है।

पीड़ित परिवार का आरोप है कि एक साल गुजर जाने के बाद भी उन्हें मौत का असली कारण और घावों की प्रवृत्तियों के बारे में पता नहीं चला है, क्योंकि पुलिस ने अब तक उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं दी है। पीड़ित के बड़े भाई पप्पू खान कहते हैं कि जब भी वे पुलिस के पास पोस्टमार्टम रिपोर्ट मांगने पहुंचते हैं, तो पुलिस कहती है कि संबंधित दस्तावेज़ क्राइम ब्रॉन्च के पास हैं।

क्या कहती है पुलिस 

16 जून, 2020 को दायर की गई चार्जशीट में जांच अधिकारियों ने आरोप लगाया है कि शहाबुद्दीन और दूसरे आरोपियों ने मिलकर "दंगों की साजिश रची" और "हिंदू समुदाय के खिलाफ़ नारे लगाए"। शहाबुद्दीन उस भीड़ का हिस्सा था, जिसने "दूसरे समुदाय के घरों पर पत्थरबाजी की।" शहाबुद्दीन पर उस दंगे में शामिल होने का आरोप है, जो ऑटो ड्राईवर की मौत के लिए जिम्मेदार बना।

पुलिस का केस, 2 दिन की पुलिस रिमांड में आरोपी द्वारा "खुलासा करने वाले वक्तव्य (डिस्क्लोज़र स्टेटमेंट)" और "प्रत्यक्षदर्शियों" के बयानों पर आधारित है, जिन्हें CrPC की धारा 161 के तहत दर्ज किया गया था।

कथित अपराध स्वीकृति में शहाबुद्दीन के हवाले से बताया गया है, "..... मैं रिक्शा चलाकर अपना गुजारा चलाता हूं। मैंने पहले जो अपराध स्वीकृति की थी, मैं अब भी उस पर कायम हूं। मैं आगे बताना चाहता हूं कि मैं खजूरी खास में 25 मार्च, 2020 को हुए दंगों में शामिल था। मैंने दंगों के दौरान पत्थर चलाए थे। उस दिन खजूरी चौक पर दंगाईयों की भीड़ इकट्ठा थी। मैं उनमें से कुछ को पहचानता था। लेकिन मैं यह नहीं जानता कि वे लोग कहां रहते हैं। हम खजूरी चौक पर मिला करते थे और मैं उन्हें उस इलाके के आसपास से गिरफ़्तार करवा सकता हूं।"

पुलिसवालों का दावा है कि "डिस्क्लोज़र स्टेटमेंट" के तथ्यों का मिलान शमीम, भारत भूषण और तैय्यब नाम के तीन सह-आरोपियों के बयानों से भी हुआ है।

दिलचस्प है कि इनर केस डायरी में मौजूद दो "प्रत्यक्षदर्शियों" (दीपक कुमार और दलीप शर्मा) के वक्तव्य बहुत हद तक एक जैसे हैं। इनर केस डायरी में किसी जांच के हर दिन के ब्योरे को शामिल किया जाता है। दोनों ही प्रत्यक्षदर्शियों ने जांचकर्ताओं को बताया, "हमने बड़ी संख्या में लोगों को खजूरी चौक पर इकट्ठा होते और हिंसा करते देखा। वे लोग लाठियां, डंडा और पत्थर ले जा रहे थे, लोगों की पिटाई कर रहे थे। ये लोग पत्थरबाजी भी कर रहे थे। खजूरी चौक के पास इन दंगाईयों में से कुछ लोग ज़मीन पर गिरे हुए एक इंसान की लाठी और डंडों से बुरे तरीके से पिटाई कर रहे थे।"

कथित गवाही में शर्मा ने कहा कि जब वो 25 फरवरी, 2020 को दोपहर 2 बजे काम से घर लौट रहे थे, तब उन्होंने दंगाई भीड़ को देखा। वहीं कुमार का कहना है कि 1:30 बजे से 2 बजे के बीच काम पर जा रहे थे, तब उन्होंने इस भीड़ को देखा।

दोनों ने पुलिस को बताया कि दंगाई भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया और हमला कर दिया। उनके पास मौजूद रकम को भी लूट लिया। शर्मा को 1200 रुपये और कुमार को 1500 रुपये गंवाने पड़े। लेकिन दोनों ही किसी तरीके से भीड़ के चंगुल से निकलने में कामयाब रहे।

चार्जशीट के मुताबिक़, काम से लौटते वक़्त शर्मा को 2 बजे मारा-पीटा और लूटा गया। यही चीज कुमार के साथ हुई, जो 8:30 PM पर घर लौट रहे थे। दोनों को ही उस वक़्त चोटें (एक को दाहिने कंधे और दूसरे को बाईं आंख में) आईं, जब उनके ऊपर पत्थरों से हमला किया गया।

यहां गौर फरमाना जरूरी है कि जिन दिन घटनाएं हुईं, उस दिन इन दोनों में से किसी ने मामला दर्ज नहीं कराया। शर्मा ने खजूरी खास थाने में 5 मार्च और कुमार ने 8 मार्च, 2020 को केस दर्ज कराया। इस दौरान 12 और 15 दिनों का गैप है। 

संयोग से दोनों ने ही अपने वक्तव्यों में कहा है कि उन्हें बाद में पता चला कि "खजूरी खास चौक पर जिस व्यक्ति को बुरे तरीके से पीटा जा रहा था, उसका नाम बब्बू था, जिसका बाद में निधन हो गया।"

ऊपर से दोनों ने ही पुलिस द्वारा दिखाई गई कुछ लड़कों में से चार आरोपियों की "पहचान" की।

16 जून, 2020 को चार्जशीट दर्ज की गई। शर्मा और कुमार के कथित वक्तव्य के आधार पर 15 और 23 अप्रैल को आरोपियों की गिरफ़्तारी हुई, जबकि घटना 25 फरवरी, 2020 को हुई थी। इन दोनों का यह वक्तव्य- वे घटना की जगह पर मौजूद थे, उन्होंने घटना को देखा और वे आरोपियों की पहचान कर सकते हैं, उस वक्तव्य की विश्वसनीयता पर संदेह है, क्योंकि इन दोनों में से किसी ने भी थाने में शिकायत दर्ज नहीं कराई और ना ही PCR को फोन किया। 

बहुत सारी ख़ामियाँ मौजूद

यहां गौर फरमाना जरूरी है कि चार्जशीट में कहीं भी पुलिस ने वक्तव्यों को दर्ज करने में हुई देरी के बारे में नहीं बताया है, जिससे पुलिस की कहानी पर शक पैदा होता है।

इतना ही नहीं, दोनों गवाहों द्वारा बताए गए घटनाक्रम में भी बहुत ज़्यादा समानता है, सिर्फ़ कुछ ही अंतर है। इससे भी इन वक्तव्यों की सत्यता पर प्रश्न खड़े होते हैं। चार्जशीट में पुलिस का दावा है कि शहाबुद्दीन एक ऑटो ड्राईवर है। जबकि इस दावे को शहाबुद्दीन के परिवार और उसके पड़ोसियों ने खारिज़ किया है। तबस्सुम कहती हैं, "वह गाड़ी चलाना नहीं जानता। वह एक कैटरिंग कंपनी के साथ काम कर रहा था। उन्होंने चार्जशीट में जो भी कहा है, वह मनगढंत कहानी है।"

न्यूज़क्लिक ने स्वतंत्र तौर पर शहाबुद्दीन के पड़ोसियों और मकान मालिक से इस तथ्य की पुष्टि की है।  इन सभी लोगों ने आरोपों को गलत बताते हुए कहा कि शहाबुद्दीन एक कैटरिंग वाले के साथ काम करता था और वह गाड़ी चलाना नहीं जानता था। इन लोगों ने यह आरोप भी लगाया कि दंगों में शहाबुद्दीन को "गलत तरीके से फंसाया गया" है, जबकि दंगों के दौरान वह इस इलाके में मौजूद नहीं था। दंगा ख़त्म होने के कई दिन बाद शहाबुद्दीन वापस आया।  

आरोपियों के वक्तव्यों को पुलिस अभिरक्षा में दर्ज किया गया है। कानून के मुताबिक़ उन्हें सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता। ऊपर से पुलिस की चार्जशीट में सामने आए विरोधाभास और जांच की कमियों से एक मनगढंत  जांच की तरफ इशारा होता है, जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर एक सांप्रदायिक दंगे के दौरान अपने ही समुदाय के लोगों को मारने का आरोप लगाया जा रहा है।

चश्मदीदों का दावा- पुलिस ने की छेड़खानी

यहां और भी हैरान करने वाली यह चीज है कि जिन दो गवाहों के वक्तव्यों के आधार पर पुलिस ने शहाबुद्दीन को गिरफ़्तार किया है, उन गवाहों ने जांचकर्ताओं पर छेड़खानी कर वक्तव्य गढ़ने का आरोप लगाया है। न्यूज़क्लिक के पास एक रिकॉर्डिंग है, जिसमें दोनों गवाहों ने इन आरोपों की पुष्टि की है।

शर्मा ने न्यूज़क्लिक को बताया, "मैंने पुलिस को कोई भी वक्तव्य नहीं दिया, ना ही मैं किसी शहाबु्द्दीन नाम के इंसान को जानता हूं। मेरे नाम से चार्जशीट में जो भी डाला गया है, वह सब छेड़खानी है। मेरा दिल्ली दंगों से कोई लेना-देना नहीं है।" शर्मा ने यह भी बताया कि उन्हें इस बारे में बिल्कुल नहीं पता है कि कैसे उनका नाम, फोन नंबर और पता चार्जशीट में दाखिल हुआ।

कुमार ने भी पुलिस के सामने पेश होने की बात से इंकार किया। वह कहते हैं, "मैंने बतौर गवाह पुलिस को कोई भी वक्तव्य नहीं दिया, ना ही मैं किसी तरह की पहचान अभियान का हिस्सा रहा हूं। मैंने पुलिस में अपने कंधे में आई चोट के बारे में शिकायत दर्ज कराई थी, मैंने सोचा था कि मुझे सरकार द्वारा घोषित मुआवज़ा मिल जाएगा।"

हालांकि कुमार ने बताया कि उन्हें अब तक मुआवज़ा नहीं मिला है।

जब हमने कुमार से पूछा कि क्या 25 फरवरी के दिन उनसे कुछ पैसे भी लूटे गए थे, तो उन्होंने बताया कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई। वह कहते हैं "पुलिस जो भी दावा कर रही है, वह सब झूठा है।"

कथित गवाहों ने प्राथमिक तौर पर गवाही से इंकार किया है, इससे शक पैदा होता है कि चार्जशीट में गवाह गढ़े गए हैं।

एकजुटता की कहानी

तबस्सुम ने बताया कि दंगों के दौरान या दंगों के बाद उनसे किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया गया। वह कहती हैं, "मुझे मेरे मकान मालिक और पड़ोसियों का समर्थन मिला, जिन्होंने लॉकडाउन और उसके बाद मेरी मदद की। वे कभी हमसे भेदभाव नहीं करते। वे इस मुश्किल वक़्त में अब भी मेरे साथ खड़े हैं। मैं एक हिंदू मकान मालिक के घर में रहती हूं, जिन्होंने उस दौरान मुझसे किराया (1000 रुपये महीना) नहीं मांगा।"

तबस्सुम के मकान मालिक मुन्ना ने कहा कि वह कभी हिंदू-मुस्लिम में भेदभाव नहीं करते। उन्होंने न्यूज़क्लिक से कहा, "जब पूरा इलाका जल रहा था, तो हमने यह निश्चित किया कि हमारे मुस्लिम पड़ोसी या किरायेदारों को कोई नुकसान ना हो। उनकी जितनी मदद हो सकती थी, हमने की।"

शहाबुद्दीन के बारे में मुन्ना ने कहा कि उसे बिना किसी बात के सजा दी जा रही है। मुन्ना कहते हैं, "उसका दंगों में कोई हाथ नहीं है। जब घटना हो रही थी, तो वो अपने काम में व्यस्त था। वह एक मासूम बच्चा है, जिसके बहुत ज़्यादा दोस्त नहीं हैं। मैंने उसे बड़े होते हुए देखा है, वह अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिेए हमेशा मेहनत करता रहा है। एक साल तक उसे जेल में डाला जाना अन्याय है।"

सामाजिक कार्यकर्ता चांद बी ने शहाबुद्दीन की रिहाई के लिए वकील उपलब्ध करवाया है। उन्होंने भी तबस्सुम के मकान मालिक की तारीफ़ की। चांद बी के मुताबिक़ मकान मालिक और तबस्सुम के पड़ोसियों ने उसकी बहुत मदद की। 

चांद बी कहती हैं, "कोविड-19 के चलते काम धंधा बंद होने के बाद कोई रास्ता नहीं बचा तो तबस्सुम ने भीख मांगना शुरू कर दिया। जब तबस्सुम ने श्रीराम कॉलोनी में रहने वाले एक परिचित से पैसे मांगे, तो उस परिचित ने मुझे फोन किया। मैं वहां पहुंची और उसे घर पहुंचाया। साथ ही राशन और कुछ पैसे भी दिए। चूंकि तबस्सुम के घर पर तीन बच्चे मौजूद हैं, जिन्हें खिलाने के लिए जरूरी आय का उसके पास कोई स्त्रोत नहीं है। ऐसे में मेरा प्राथमिक उद्देश्य उसके बड़े बेटे की रिहाई करवाना है, ताकि परिवार एक बार फिर रास्ते पर आ सके।"

वह बताती हैं कि उनकी याचना पर एक वकील ने शहाबुद्दीन का केस मुफ़्त में लड़ने का फ़ैसला किया है। जल्द ही उसकी ज़मानत याचिका लगाई जाएगी और वो बाहर आ जाएगा।

लेकिन यहां शहाबुद्दीन के केस की स्थिति पता करने से समझ आता है कि उसके मामले से कैसा व्यवहार किया जा रहा है। शहाबुद्दीन के वकील अब्बास खान अपने तर्क पेश नहीं कर पाए और अपनी याचिका वापस ले ली, इसके बाद एडीशनल सेशन जज विनोद यादव ने शहाबुद्दीन की याचिका खारिज कर दी। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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