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ध्रुवीकरण के डर से आवारा मवेशियों के मसले पर हिचकिचाहट

किसानों के लिए यह समस्या जितनी बड़ी है उसे देखते हुए विपक्षी राजनीतिक दलों को इस चुनाव में शुरू से ही इसे ज़ोर-शोर से उठाना चाहिए था। लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के डर से राज्य की कोई बड़ी पार्टी ऐसा करने से हिचकिचाती रही।
आवारा मवेशियों के मसले पर हिचकिचाहट

17वीं लोकसभा के लिए चुनाव जब अंतिम चरण की ओर हैं तब जाकर उत्तर प्रदेश में आवारा मवेशियों की समस्या मुद्दा बनती दिख रही है। लेकिन उसमें भी समाधान को लेकर गंभीरता या किसानों के प्रति चिंता कम, एक-दूसरे पर राजनीतिक तीर चलाने की मंशा ही अधिक दिखती है। किसानों के लिए यह समस्या जितनी बड़ी है उसे देखते हुए विपक्षी राजनीतिक दलों को इस चुनाव में शुरू से ही इसे ज़ोर-शोर से उठाना चाहिए था। लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के डर से राज्य की कोई बड़ी पार्टी ऐसा करने से हिचकिचाती रही। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस बारे में तब बोलना शुरू किया जब उनकी चुनावी जनसभा में सांड़ ने घुसकर उत्पात मचाया। तब तक सात में से लोकसभा चुनाव के तीन चरण निकल चुके थे।  

25 अप्रैल की इस घटना के बाद ट्विटर पर अखिलेश ने लिखा, "21 महीनों में हमने एक्सप्रेस-वे बनाया था, लेकिन पिछले दो सालों में जनता पाँच करोड़ आवारा पशुओं से परेशान हो गयी है। अगर सरकार राजनीतिक कार्यक्रमों में सांड़ को घुसने से नहीं रोक पा रही, तो ग़रीब किसानों का क्या हाल हो रहा होगा यह बस वही जानते होंगे।" पाँच करोड़ का आंकड़ा उन्हें कहाँ से मिला, मालूम नहीं, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हर गाँव-जवार में झुंड के झुंड आवारा मवेशी फसलों को तबाह कर रहे हैं। बढ़ती लागत और उपज का सही दाम नहीं मिलने से किसानों की कमर पहले ही टूटी हुई थी, ऊपर से आवारा गाय-सांड़ों की समस्या। जंगली सूअरों, नीलगायों के उत्पात के मुक़ाबले यह समस्या कहीं बड़ी है।

मोदी-योगी के शासन के बाद उत्तर प्रदेश में आवारा मवेशियों की जनसंख्या का विस्फ़ोट हुआ है। कथित गौरक्षकों की गुंडागर्दी से गोवंशीय पशुओं की ख़रीद-बिक्री लगभग ठप है। मवेशी कारोबार से जुड़े लोगों में ज़्यादातर मुसलमान हैं। माहौल को देखते हुए उन्होंने इससे किनारा कर लिया है। किसानों पर इसकी दोहरी मार पड़ रही है। एक तो उन्हें अपने लिए अनुपयोगी गोवंशीय पशुओं का कोई दाम नहीं मिल रहा और दूसरा उन्हें खुला छोड़ देने पर वही मवेशी उनके खेत चर रहे हैं। दूध दुहने के लिए जब तक बछड़े की ज़रूरत होती है तब तक लोग उसे रखते हैं और उसके बाद उसे दूर ले जाकर छोड़ देते हैं। अपनी मुसीबत दूसरे के गले डालने के चक्कर में सब मुसीबत के दलदल में धँसते जा रहे हैं। 

एक ज़माना था जब बछिया से ज़्यादा बछड़े की क़ीमत मिला करती थी, लेकिन खेती में बैलों का इस्तेमाल बंद होने के साथ वो दिन चले गये। अब तो लोग पैसे देकर उनसे पल्ला छुड़ाने को तैयार हैं। इसके चलते अब बहुत से किसान गायों की जगह भैंस पालना ही बेहतर समझ रहे हैं। एक तरह से कहें तो गोवंश की रक्षा के नाम पर मोदी-योगी की सरकारें उनकी दुश्मन बनी हुई हैं।

खेती ही नहीं, आवारा मवेशी जान के दुश्मन भी बन रहे हैं। शहर हो या हाइवे हर जगह इनका डेरा दिखता है। पहले खेती में इस्तेमाल के लिए बछड़ों को बधिया कर दिया जाता था, जिससे उनकी आक्रामकता कम हो जाती थी। सांड़ गाँव-जवार में कहीं एक-दो होते थे, जिनका इस्तेमाल प्रजनन के लिए होता था। एक सांड़ को क़ाबू करने के लिए पाँच-दस लट्ठधारी जाते थे। अब ऐसे सांड़ों के झुंड के झुंड घूम रहे हैं। हाल यह है कि राज्य की राजधानी लखनऊ में आए दिन सांड़ों के हमले की घटनाएँ घट रही हैं, जिनमें राहगीर न केवल घायल हुए हैं, बल्कि जान तक से हाथ धोना पड़ा है। पॉश कॉलोनियों तक में आवारा मवेशियों के डर से बच्चों का भयमुक्त होकर खेलना दूभर हो गया है।    

इतनी गंभीर समस्या के प्रति राज्य सरकार का क्या रवैया है, इसे साफ़ करने के लिए बीती 13 मई का मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह बयान देखिए। अखिलेश यादव की ओर से उठाये गये सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, "नंदी भी एसपी की रैली में जा रहा है। वह पूछता है कि कसाइयों के मित्र लोग कहाँ हैं, उन्हें मैं ठीक कर देता हूँ। मैंने कहा कि नंदी बाबा चुनाव चल रहा है। आचार संहिता चल रही है। चुनाव के बाद अपना काम करना।" 

कुछ महीने पहले जब आवारा मवेशियों के झुंड गेहूँ की फसल को चरकर साफ़ करने लगे तो कई इलाक़ों में किसानों का आक्रोश फूट पड़ा। किसान इन मवेशियों को खदेड़कर सरकारी स्कूलों व अन्य भवनों में बंद करने लगे। तब योगी सरकार हरकत में आयी और हास्यास्पद क़दम उठाते हुए बहुत से सरकारी कर्मचारियों को आवारा मवेशी पकड़ने के काम में लगा दिया। इस अभियान में बमुश्किल कुछ हज़ार मवेशी पकड़े गये होंगे। जो कि समस्या के पैमाने को देखते हुए नगण्य है। जो हज़ारों मवेशी पकड़े भी गये, रखने व उनके खाने-पीने का सरकार की ओर से समूचित इंतज़ाम नहीं होने से उनमें से काफ़ी मर भी चुके हैं।    

फ़रवरी के महीने में राज्य सरकार ने अपना बजट पेश करते हुए बेसहारा गोवंशीय पशुओं के लिए 632 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की, जिसे ऊँट के मुँह में ज़ीरा ही कहा जाएगा। जो आवंटन भी हुआ, उससे ज़मीन पर कुछ काम होता नहीं दिख रहा। योगी सरकार इस मामले में अपने पड़ोस की राजस्थान सरकार से सीख सकती है, जो खेतों की तारबंदी के लिए 40,000 रुपये तक के अनुदान की योजना लेकर आयी है। 

कुल मिलाकर कहें तो अब समय आ गया है कि इस मसले पर धार्मिक भावुकता और राजनीतिक छल-छद्म से ऊपर उठकर व्यावहारिक समाधान की ओर बढ़ा जाये। सरकारें समीक्षा करें कि कहीं उनकी नीतियां गो-पालन को ही तो ख़तरे में नहीं डाल रही हैं।

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