"वैज्ञानिक मनोवृत्ति" विकसित करने का कर्तव्य
तर्कवादी सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर की 8वीं पुण्यतिथि के बाद प्रशांत पद्मनाभन ने उनकी विरासत को याद करते हुए लिखा है कि "वैज्ञानिक मनोवृत्ति" क्या होती है और कैसे इसका विकास किया जा सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 51A(h) "वैज्ञानिक मनोवृत्ति, मानवतावाद और उत्सुकता की भावना और सुधार" की बात करता है, इसे हर नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। शायद हमारा संविधान अकेला है, जो वैज्ञानिक मनोवृत्ति का जिक्र करता है।
दाभोलकर का संबंध
आज से ज़्यादा बेहतर वक़्त नहीं हो सकता, जब हम इस कर्तव्य को याद करें और इसके प्रति प्रतिबद्धता दिखाएं। आज से ठीक 8 साल पहले पुणे में 20 अगस्त को सामाजिक कार्यकर्ता और तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर की अज्ञात हमलावरों ने वैज्ञानिक मनोवृत्ति को बढ़ावा देने और अंधविश्वासों का विरोध करने के लिए हत्या कर दी थी। वामपंथी राजनीतिज्ञ गोविंद पनसारे और कन्नड़ लेखक एम एम कलबुर्गी की 2015 में हत्या हुई थी, वहीं सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश को 2017 में इन्हीं कारणों से और इसी तरह मारा गया था।
20 अगस्त को ऑल इंडिया पीपल्स साइंस नेटवर्क द्वारा "राष्ट्रीय वैज्ञानिक मनोवृत्ति दिवस" मनाया जाता है। यह लेख पाठकों को प्राकृतिक विज्ञान में औपचारिक शैक्षणिक चीजें बताने के लिए नहीं है कि वैज्ञानिक मनोवृत्ति से क्या मतलब है या विज्ञान के युग में कैसे एक सजग जीवन जिया जा सकता है। इसके लिए वैज्ञानिकों और विज्ञान संचारकर्ताओं का लेखन पर्याप्त है।
प्रकृति के नियम और उस वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझना जिससे इंसान आज के आधुनिक अविष्कारों तक पहुंचा है, वह किसी के भी जीवन को एक अलग और ज़्यादा संगत नज़रिया उपलब्ध करवाता है।
क्यों हमें एक तार्किक और उत्सुक दिमाग विकसित करने की ज़रूरत है?
पूरी तरह कुतार्किक, अंधविश्वास भरे मत, जो पहली ही नज़र में सामाजिक नियमों के लिए घृणित दिखाई देते हैं, उन्हें नकारना अलग चीज है। कई लोग ऐसा करेंगे। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है।
इसके बजाए हमें किसी दावे की जांच के लिए ज़्यादा ऊंचा पैमाना बनाना चाहिए, भले ही वह दावा नुकसानदेह ना दिखाई दे रहा हो। वैज्ञानिक विकास के युग में रहना हमारे लिए यह अनिवार्य करता है कि हम किसी भी दावे को तेज-तर्रार, तार्किक वैज्ञानिक ढंग से जांचे। फेक न्यूज़ और पोस्ट-ट्रुथ के दौर में ख़तरनाक एजेंडों का शिकार बनने से बचने के लिए यह जरूरी है।
दिमाग में यह बात रखना जरूरी है कि विज्ञान सिर्फ़ कुछ कुलीनों की संपत्ति नहीं है, जिन्होंने विज्ञान को उच्च स्तर तक पढ़ा है। अगर हम प्रकृति की अपनी समझ बनाने के लिए विज्ञान को एक "उत्सुकता का वैज्ञानिक तरीका" मानते हैं, तो हममें से हर किसी के लिए यह आदत विकसित करना संभव है।
चीजों को जानने का एकमात्र जरिया है विज्ञान
मेरीलैंड यूनिवर्सिटी में भौतिकशास्त्र के मानद प्रोफ़ेसर रॉबर्ट एल पार्क ने बिल्कुल सही तरीके से कहा है, "ब्रह्मांड को चलाने वाले नियमों के बारे में विज्ञान जो जान रहा है, उससे हमें इस दुनिया को लगभग स्वर्ग बनाने की ताकत मिलती है। यह ज्ञान पवित्र किताबों या पैगंबरों के ज्ञान से नहीं आता। विज्ञान ही किसी भी चीज को जानने का एकमात्र तरीका है, बाकी सारा कुछ अंधविश्वास है।"
यह हमें दो सवालों पर लाकर छोड़ता है 1) विज्ञान क्या है? 2) ज्ञान क्या है?
अज्ञान और जिज्ञासा
अगर किसी के पास अपने सारी शंकाओं के जवाब उपलब्ध हो जाएं, तो पूछताछ की कोई जरूरत ही ना पड़े। यह विज्ञान का विरोधात्मक रवैया है।
धार्मिक ज़रियों से प्रशिक्षित लोग अपने दिमाग को जिज्ञासा या असल दुनिया के साथ प्रायोगात्मकता के प्रति बंद करने के आदी होते हैं। ज़्यादातर धर्म अज्ञात चीजों को "भगवान" के तौर पर परिभाषित करते हैं। धार्मिक हठधर्मिता अज्ञान के दर्शन पर आधारित होती है, जबकि विज्ञान अज्ञात की खोज, उत्सुकता की प्रक्रिया अपनाकर करने की कोशिश करता है।
वैज्ञानिक मनोवृत्ति का निर्माण तभी हो सकता है, जब हम अपने अज्ञान को स्वीकार करें और जवाबों की खोज करें।
खोज-जांच का वैज्ञानिक तरीक़ा
जांच की वैज्ञानिक तकनीक को व्यापक स्तर पर कुछ ऐसे समझाया जा सकता है कि पहले परिकल्पना (हायपोथेसिस), फिर परिकल्पना को प्रयोगों के साथ परखा जाता है, तब प्रयोग में सफलता-असफलता के आधार पर परिकल्पना को माना या नकारा जाता है और फिर परिकल्पना को दोहराया जाता है।
जांच की वैज्ञानिक तकनीक के मुताबिक़, असली दुनिया में किसी भी चीज पर तभी यकीन किया जा सकता है, जब उसके बारे में सबूत मौजूद हों। धर्म की तरह, विज्ञान में भी सहज बोध बहुत मायने रखता है, लेकिन यह पहला कदम ही होता है।
जांच की वैज्ञानिक तकनीक इस तरह के सहजबोध पर आधारित परिकल्पना के निर्माण पर आधारित होती है। इसके बाद परिकल्पना को परीक्षण और प्रयोगों को दौर परखा जाता है।
यहां सांख्यिकीय आंकड़े बहुत अहम होते हैं। आंकड़ों के निष्पक्ष विश्लेषण के बाद अगर परिकल्पना को नकारा जाता है, तो इसमें फेरबदल या इसे रद्द किया जाना जरूरी होता है।
वैज्ञानिक अपनी परिकल्पनाओं से चिपके नहीं रहते, जबकि बहुत सारे धार्मिक शिक्षक उनकी धार्मिक शिक्षाओं पर अड़े रहते हैं। जो चीज परीक्षण, प्रयोगों और सबूतों के द्वारा साबित नहीं हो पाती, उसे गल्प या अंधविश्वास के तौर पर खारिज करना जरूरी होता है।
जैसे इस संबंध में बारट्रांड रसेल ने लोकप्रिय समरूपता को बढ़ावा दिया है, उसके मुताबिक़, अगर पूर्वस्थिति यह है कि कोई चीनी चाय का प्याला सूर्य के चक्कर लगा रहा है, तो इसका समर्थन करने वाले लोगों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इसके लिए सबूत पेश करें, कोई भी वैज्ञानिक मनोवृत्ति वाले इंसान को इसको नकारने के ऊपर वक़्त बर्बाद नहीं करना चाहिए।
पुष्टि से जुड़े पूर्वाग्रह
पुष्टि में पूर्वाग्रह वह प्रवृत्ति होती है, जिसके तहत नए सबूतों की व्याख्या का इस्तेमाल किसी के पहले बनाए गए विश्वासों या पूर्वाग्रहों की पुष्टि करने के लिए होता है। आज की दुनिया ने संचार क्रांति से आकार लिया है, जहां आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित एल्गोरिदम, वेब सर्च इंजन बहुत कुछ नियंत्रित करते हैं, जिन्होंने इंटरनेट पर हर यूजर द्वारा खोजी गई चीजों से, उसकी आदतों की जानकारी इकट्ठी कर रखी होती है, ताकि ऐसे जवाब पेश किए जा सकें, जो संबंधित यूजर के पूर्वाग्रह की पुष्टि करते हों। केवल एक निष्पक्ष और आलोचनात्मक मस्तिष्क ही इस तरह की निहित पूर्वाग्रह से पार पा सकता है।
उपलब्ध जानकारी में से कुछ को नकारना या इसका उपयोग निष्पक्ष विश्लेषण में ना कर पाना पुष्टि से संबंधित पूर्वाग्रह का संकेत है। यह जांच के वैज्ञानिक तरीकों के खिलाफ जाता है।
विज्ञान और विश्वास के बीच अंतर
एक वैज्ञानिक परिकल्पना को वैध ठहराने का सही तरीका किसी प्रयोग की बारंबरता है। मतलब इस प्रयोग को दोहराया जाए। अगर कोई वैज्ञानिक प्रयोग न्यूयॉर्क में किया गया है, तो वह नई दिल्ली में भी दोहराया जा सकता है, अगर दोनों को एक ही तरीके से दोहराया गया है, तो दोनों के नतीज़े भी एक जैसे आना चाहिए।
ऐसे ही प्रयोगों के द्वारा वैज्ञानिक सिद्धांतों को वैधता दी जाती है। इसलिए विज्ञान काम करता है। एंटीबॉयोटिक्स और वैक्सीन काम करते हैं। डॉक्टर और एस्ट्रोनॉट ऐसे बहुआयामी पेशे हैं, जहां वैज्ञानिक सिद्धांतो और खोजों का व्यवहारिक उपयोग किया जाता है।
वैज्ञानिक नियम ना केवल हमारे ग्रह, बल्कि पूरे ब्रह्मांड में लागू होते हैं। न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का नियम केवल पृथ्वी आधारित सिद्धांत नहीं है। यह चंद्रमा और हमारे सौरतंत्र के दूसरे ग्रहों के साथ-साथ इस ब्रह्मांड के अरबों तारों पर भी लागू होता है।
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के बल को लागू कर इंसान चंद्रमा तक जा सकता है, मंगल पर अंतरिक्ष मिशन भेज सकता है और पृथ्वी के आसपास उपग्रह स्थापित कर सकता है।
तो यहां हमारे पहले सवाल का जवाब मिल चुका है कि विज्ञान निष्पक्ष और सार्वभौमिक रहता है, जिसका मतलब हुआ कि यह सच है और हर जगह काम करता है, चाहे कोई इस चीज को पसंद करे या ना करे।
यह व्यक्तिगत सच्चाई से बहुत अलग होता है, जहां कहा जाता है कि "XYZ मेरा मसीहा है", "पैगंबर ABC की शिक्षाएं मोक्ष की प्राप्ति करवाएंगी" या "भगवान PQR ने एक आदर्श जीवन जिया।" यह विश्वास हैं, जिन्हें कोई भी निष्पक्षता के साथ दूसरे व्यक्ति के लिए साबित नहीं कर सकता। यही विज्ञान और धर्म के बीच का बुनियादी अंतर है।
विकास के तौर पर ज्ञान
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है, "अगर मेरे पास किसी समस्या को हल करने के लिए एक घंटा होगा, तो मैं 55 मिनट तक समस्या पर विचार करूंगा और पांच मिनट समाधान पर सोचूंगा।"
इसका मतलब हुआ कि समाधान पर पहुंचने की प्रक्रिया, अंतिम नतीज़े से कहीं ज़्यादा अहम है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को यह पता चल सकता है कि संबंधित समस्या के एक से ज़्यादा पहलू हैं; कोई समस्या को दोबारा गढ़ सकता है और उसके कई संभावित समाधान खोज सकता है।
ज्ञान को समाधान तक पहुंचने की प्रक्रिया समझा जाना चाहिए, ना कि अंतिम नतीज़ा। दूसरे शब्दों में कहें तो आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता, प्रयोग और मस्तिष्क का अभूतपूर्व उपयोग कर किसी समाधान पर पहुंचना, पहले से उपलब्ध जानकारी से ज़्यादा अहम है। "कैसे सोचना है", "क्या सोचना है" से ज़्यादा अहमियत रखता है। दूसरे सवाल का जवाब है कि यह प्रक्रिया ही ज्ञान है।
विज्ञान और जांच की वैज्ञानिक तकनीकों पर भरोसे से सबको फायदा होता है
जब वैज्ञानिक अविष्कारों को उपयोग के लिए रखा जाता है, तो इससे पूरी मानवता को फायदा पहुंचता है। जिन देशों ने विज्ञान और तकनीक में बहुत ज़्यादा निवेश किया है, उन्हें बहुत फायदा हुआ है। उदाहरण के लिए अमेरिका में 1863 से नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस है। इसकी शुरुआत अमेरिकी कांग्रेस और राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए सिर्फ़ 50 वैज्ञानिकों के साथ हुई थी, अब इसमें दो हजार से ज़्यादा सदस्य हैं और यह विज्ञान के मौजूदा मोर्चों पर जूझती है।
1859 में अंग्रेज जीव विज्ञानी, प्रकृतिवादी और भूविज्ञानी चार्ल्स डार्विन की वैज्ञानिक साहित्य की किताब "ऑन द ऑर्जिनि ऑफ़ स्पेशीज़" से हमारा जिंदगी के प्रति नज़रिया ही बदल गया। इस किताब द्वारा जैविक विकास के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया, जिसके ऊपर लगातार कई परीक्षण हुए, लाखों सबूतों ने इस सिद्धांत का समर्थन किया और आखिर में वैज्ञानिक समुदाय ने इसे वैध मान लिया।
यह शर्म की बात है कि जिन लोगों ने कभी वैज्ञानिक खोज का रास्ता नहीं पकड़ा या जिन्हें बिल्कुल जानकारी नहीं है कि उन खोजों का क्या मतलब है, वे अपनी पूर्वधारणाओं और अज्ञान के आधार पर इन सिद्धांतों को नकारते हैं।
अमेरिका के "नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन" के मुताबि़क़, "जिंदगी एक स्वपोषित रासायनिक तंत्र है, जो डार्विन के विकास की क्षमता रखती है।" अब तक हमने 118 रासायनिक तत्वों को खोजा है, जिनेमं से 98 प्राकृतिक तौर पर पाए जाते हैं, बाकी कृत्रिम तरीकों से बनाए जाते हैं।
भौतिक शास्त्र की एक शाखा के तौर पर 1920 के दशक में अस्तित्व में आया क्वांटम फिज़िक्स आज दुनिया की एक तिहाई संपदा का संचालन करता है। चिकित्सकीय खोजों और अंतरिक्ष की खोज ने हर किसी को फायदा पहुंचाया है। चाहे जीवन बचाने वाली दवाईयां हों या परिवहन में इस्तेमाल किए जाने वाले वाहन, सारा कुछ ही वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि आज इंसान का स्वास्थ्य और संपदा वैज्ञानिक अविष्कारों पर आधारित है।
2020 का केमिस्ट्री नोबेल पुरस्कार अमेरिका की जेनफिर ए डाउडना और फ्रांस के इमेनुएल चारपेंटियर को मिला था, जिन्होंने CRISPR (क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटस्पेस्ड शॉर्ट पेलिंड्रोमिक रिपीट्स)/ Cas9 की खोज की थी। यह जीन तकनीक का एक उपकरण है, जिसके जरिए जानवरों, पेड़-पौधों और जंतुओं के डीएनए में बेहद सटीक तरीके से बदलाव किए जा सकते हैं। वैज्ञानिक इस तकनीक का उपयोग AIDS, ब्लड डिसऑर्डर, कोविड-19 और कई बीमारियों के इलाज़ में करने की कोशिश कर रहे हैं।
सामान्य समझ हमेशा सही नहीं होती
आखिर में कुछ शब्द सामान्य समझ पर। हमसे कई बार कहा गया है कि कोई वैज्ञानिक सिद्धांत इसलिए किसी शख़्स को मान्य नहीं होती, क्योंकि यह उसकी 'सामान्य समझ' के खिलाफ होती है। इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि विज्ञान हमेशा सामान्य समझ के बारे में नहीं होता। उदाहरण के लिए क्वांटम मैकेनिक्स और सापेक्षता का क्षेत्र, जहां सामान्य समझ से पैदा हुआ सहजबोध क्वांटम मान्यता और "स्पेस-टाइम डिस्टॉर्शन" जैसे सिद्धांतों को समझने के लिए पर्याप्त नहीं होता।
अमेरिकी एस्ट्रोफिज़िसिस्ट नील डि ग्रेस टायसन के शब्दों में कहें तो ब्रह्मांड की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वो हमें मतलब साबित करता फिरे।
जैसा आइंस्टीन ने सुझाया था किसी समस्या पर गहराई से विचार करने के लिए हमें उसे ज़्यादा बेहतर समझने की जरूरत होती है।
वैज्ञानिक मनोवृत्ति बनाना वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारा समाज तर्कवादियों और आलोचनात्मक विचार प्रक्रिया अपनाने वालों के खिलाफ़ आगे हमले रोक सकता है। यह दाभोलकर और तार्किक समाज में विश्वास रखने वाले दूसरे शहीद लोगों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आइये हम इस यात्रा पर चलने का वायदा करते हैं।
अतिरिक्त: जो लोग प्राकृतिक विज्ञान को समझने की यात्रा शुरू करना चाहते हैं, उनके लिए लेखक ने कुछ किताबों की सूची दी है:
1) प्रियंपिया वॉल्यूम-II: द सिस्टम ऑफ़ द वर्ल्ड- आइज़ेक न्यूटन
2) ऑन द ऑर्जिन ऑफ़ स्पेशीज़- चार्ल्स डार्विन
3) द एज ऑफ़ रीज़न- थॉमस पेन
4) अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम- स्टीफन हॉकिंग
5) ब्रीफ आंसर्स टू द बिग क्वेश्चन- स्टीफन हॉकिंग
6) साइंस इन द सोल: सेलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ़ अ पैसेनेट राशनलिस्ट- रिचर्ड डॉकिन्स
7) एस्ट्रोफिजिक्स फ़ॉर पीपल इन अ हरी- नील डिग्रास टायसन
8) अ क्रेक इन क्रिएशन: जीन एडिटिंग एंड द अंथिकेबल पॉवर टू कंट्रोल इवोल्यूशन- जेनिफर डॉउडना और सेमुएल एच स्टर्नबर्ग
9) द एम्पेरर ऑफ़ ऑल मेलेडीज़- सिद्धार्थ मुखर्जी
10) नोबेल प्राइज डायलॉग, https://www.nobelprize.org/nobel-prize-dialogue/ पर उपल्ध
11) आर्टिक्लस फ्रॉम साइंटिफिक अमेरिकन, https://www.scientificamerican.com/ पर उपलब्ध
12) आर्टिकल्स फ्रॉम नेचर, https://www.nature.com/ पर उपलब्ध
13) द गार्डिनय साइंस कॉलम, https://www.theguardian.com/science पर उपलब्ध
(प्रशांत पद्मनाभन सुप्रीम कोर्ट में एक वकील हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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