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इतिहास के मिथकों का भंडाफोड़ करती श्रृंखला - III: आयुर्वेद - एक आधुनिक विज्ञान?

इस श्रृंखला का तीसरा भाग वर्तमान में प्रचारित किए जा रहे उस नेरेटिव पर रोशनी डालता है, जो कहता है कि आयुर्वेद आधुनिक विज्ञान की समझ और पद्धतियों के अनुरूप विचार की प्रयोगसिद्ध और तर्कसंगत प्रणाली पेश करता है।
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पिछले कुछ वर्षों में, इतिहास के बारे में कई बहसें और विवाद अकादमिक क्षेत्र से निकलकर व्यापक सार्वजनिक मंच पर आ गए हैं। एक युद्ध का मैदान उभर कर सामने आया है जहां विशेष संस्कृतियों, नेरेटिवों और विचारधाराओं को दूसरों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है ताकि एक को दूसरों पर हावी और सर्वश्रेष्ठ साबित किया जा सके। हिंदू दक्षिणपंथ ऐसे कई झूठे नेरेटिवों का प्रमुख समर्थक है, जिनका उद्देश्य भारत के विविधता वाले इतिहास और संस्कृति का एकमात्र और असली उत्तराधिकारी के रूप में हिंदू संस्कृति और विचारधारा के एक विशेष संस्करण को स्थापित करना है। इस तरह के झूठे नेरेटिव, अब तक अकादमिक जगत द्वारा सबूतों के आधार जो स्थापित किया है उसे त्याग देते हैं, और वे सोशल मीडिया सहित लोकप्रिय मीडिया के माध्यम से लोकप्रियता हासिल करने पर भरोसा करते हैं। न्यूज़क्लिक साक्ष्य-आधारित स्कोलर्स के शोध के आधार पर संक्षिप्त व्याख्याताओं की एक श्रृंखला प्रकाशित कर रहा है जो हिंदुत्व ताकतों द्वारा प्रचारित कुछ प्रमुख मिथकों का खंडन करता है। इस शृंखला के भाग 1 को यहां और भाग 2 को यहां पढ़ा जा सकता है।

एक राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा के बाद से, राजनीतिक नेताओं और इतिहासकारों ने अतीत की उपलब्धियों को जताने का प्रयास किया है, ताकि उन उपलब्धियों से समकालीन भारतीय प्रेरणा ले सकें। ये राष्ट्रवादी इतिहास, वास्तव में, किसी भी राष्ट्र-निर्माण परियोजना का हिस्सा होता है।

वर्तमान समय में, भारतीय सभ्यता की खोई हुई महिमा को सामने लाने के लिए अतीत में पीछे मुड़कर देखने की इस प्रवृत्ति का एक नया रूप सामने आया है। यह प्रवृत्ति, उन्नत विज्ञान के साथ-साथ चिकित्सा के ज्ञान और अभ्यास के साक्ष्य के मामले में वैदिक और बाद के ग्रंथों पर ध्यान केंद्रित करता है। ये इनके पैमाने के संदर्भ में भिन्न हैं: कुछ में तो यहां तक दावा किया जाता है कि महाभारत के समय परमाणु हथियार मौजूद थे, जबकि कुछ हल्के दावे यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि प्राचीन चिकित्सा की उन्नत वैज्ञानिक और प्रयोगसिद्ध प्रकृति पहले से मौजूद थी। इस तरह के नेरेटिवों के साथ, अतीत की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है और यहां तक कि उन्हें गलत साबित करने पर एक अनोखा ही खतरा सामने आता है।

प्राचीन या 'वैदिक' चिकित्सा शब्द आम तौर पर शास्त्रीय या उत्कृष्ट आयुर्वेद के भीतर पाई जाने वाली प्रथाओं को संदर्भित करता है, जिसे अब आधुनिक चिकित्सा की तुलना में एक वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली माना जा रहा है। अथर्ववेद को आयुर्वेदिक परंपरा का पूर्ववर्ती माना जाता है, क्योंकि यह उन विभिन्न मंत्रों और उच्चारों के बारे में बात करता है जो बीमारियों को ठीक कर सकते हैं। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ, चरक संहिता और सुश्रुत संहिता हैं। चरक संहिता चिकित्सा के सिद्धांत और अभ्यास से संबंधित है जबकि सुश्रुत संहिता एक शल्य चिकित्सा ग्रंथ है। इन ग्रंथों का कालनिर्धारण यानि समय सटीक नहीं है और बहुत ही विवादित है। कुछ का मानना है कि इनकी रचना 200 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी के बीच हुई थी, अन्य का मानना है कि इनका संकलन कुछ शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 500 ईस्वी तक हुआ था और अंत में कुछ का मानना है कि इन्हें सामान्‍य युग की शुरुआत से कुछ समय पहले संकलित किया गया था और संभवतः 900-1000 . तक संपूर्ण संपादन किया गया था। इस प्रकार, हम समझ सकते हैं कि आयुर्वेद एक परंपरा है जिसमें कुछ वैदिक प्रभाव हैं लेकिन यह मुख्य रूप से एक ऐसी परंपरा है जो प्राथमिक वैदिक ग्रंथों की रचना के लंबे समय बाद उभरी है।

आयुर्वेद प्रणाली जिस तरह से संचालित होती है और स्वास्थ्य के साथ-साथ बीमारियों को कैसे तर्कसंगत बनाती है, उसके बारे में विस्तार से जाने से पहले, हमें यह समझने की जरूरत है कि विज्ञान और चिकित्सा की आधुनिक प्रणालियां कैसे काम करती हैं। आधुनिक विज्ञान प्रयोगसिद्ध है, जिसका अर्थ है कि यह अवलोकन और अनुभव पर आधारित होता है। इसका सत्यापन किया जाता है: जो भी अवलोकन किया जाता है उसे दूसरों द्वारा दोहराया जाता है। इसमें सिद्धांतों को सत्यापित करने या गलत साबित करने के मामले में प्रयोग करना शामिल है। वास्तव में, वैज्ञानिक माने जाने के लिए, किसी 'सिद्धांत' को इस तरीके से सत्यापन योग्य या मिथ्याकरणीय होना जरूरी है। यह दावा कि कोई बीमारी बुरी आत्माओं के कारण होती है, सत्यापन योग्य नहीं है और इसलिए उसका आधार वैज्ञानिक नहीं हो सकता है। आम तौर पर, कोई अवलोकन करता है, एक परिकल्पना बनाना शुरू करता है, उसकी जांच करने के लिए एक प्रयोग विकसित करता है और फिर परिणामों की जांच को पुख्ता बनाने के लिए अपने सहकर्मियों की जांच के लिए खुला छोड़ देता है।

वर्तमान में आयुर्वेद के बारे में जो प्रचार किया जा रहा है, वह यह है कि इसमें विचार की प्रयोगसिद्ध और तर्कसंगत प्रणालियाँ हैं जो आधुनिक विज्ञान की समझ और पद्धतियों के अनुरूप हैं। आयुर्वेदिक ग्रंथ वास्तव में सही निदान और उपचार पर पहुंचने के लिए शारीरिक लक्षणों का अवलोकन करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं। हालांकि, यह भौतिकवादी आयाम ग्रंथों में अपनाए गए दृष्टिकोणों में से केवल एक है। अवलोकन का इस्तेमाल गैर-भौतिक निष्कर्ष निकालने के लिए भी किया जाता है। उदाहरण के लिए, "आंख का झपकना" को पूर्ण आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण के रूप में लिया जाता है।

किसी भी अनुशासन या प्रणाली को सिर्फ इसलिए वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता है क्योंकि वह अवलोकन पर जोर देती है। इन अवलोकनों को सत्यापित करने और सत्यापन योग्य सिद्धांत हासिल करने के लिए प्रयोग की जरूरत होती है। हालांकि, जैसा कि मानवविज्ञानी फ्रांसिस ज़िम्मरमैन ने तर्क दिया है, आयुर्वेद में पाए गए सिद्धांतों के भीतर इस तरह के प्रयोग का कोई सबूत नहीं है।

औषधीय पदार्थों को निर्धारित और वर्गीकृत करते समय, चार अलग-अलग श्रेणियों का इस्तेमाल किया जाता था, रस, विपाक, वीर्य और प्रभाव। प्रत्येक स्तर पर इन पदार्थों के विभिन्न प्रभावों को समझाने का प्रयास किया जाता है। जब प्रारंभिक स्तर पर इसने अपेक्षानुसार काम नहीं किया, तो इसे समझाने के लिए उच्चतर स्तर की भिन्नता पाए जाने की बात कही जाती थी। इसका जो अंतिम स्तर होता है वह अनिवार्य रूप से पदार्थ को तर्क से परे एक शक्ति के रूप में समझाता था जो अनिवार्य रूप से पदार्थ की प्रकृति में है। इससे औषधीय विसंगतियाँ अंततः तर्कसंगत व्याख्या से परे हो जाती हैं। जब तथ्य सिद्धांत में फिट नहीं बैठे तो प्रयोगसिद्ध तथ्यों से परे अवधारणाओं को लागू करके सिद्धांत को बचाया गया। यह आधुनिक विज्ञान की अवधारणाओं के विपरीत है।

ध्यान देने वाली अंतिम बात यह है कि उत्कृष्ट आयुर्वेद में जादू ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चरक संहिता में ऐसे कई अंश पाए जा सकते हैं जो स्पष्ट रूप से अंधविश्वास हैं। कुछ लोग इस बात की वकालत करते हैं कि कुछ आभूषण पहनने से उपचार होता है, एक पुरुष की एक छोटी सी मूर्ति भ्रूण के लिंग को पुरुष में बदलने में मदद करेगी, और रिश्तेदारों की छाया में कदम न रखने से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। सुश्रुत संहिता का दावा है कि एक निश्चित तेल किसी व्यक्ति को एक हजार साल तक जीवित रहने में मदद कर सकता है और जूते पहनने से व्यक्ति बुरी आत्माओं से बच जाता है।

कुछ ऐसी सीमाएं और बाधाएं भी थीं जो उस वक़्त के समाज ने चिकित्सा पद्धति पर थोप दी थीं। इसे बेहतरीन तरीके से तब देखा गया जब पाया गया कि आयुर्वेदिक परंपराओं के अनुसार शरीर की रचना का अध्ययन कैसे किया जाना चाहिए। किसी शव का अध्ययन करते समय डॉक्टरों को उसके सीधे शारीरिक संपर्क में आने की अनुमति नहीं थी। इसके बजाय, शव को सात दिनों तक सड़ने दिया जाता था, जिसके अंत में घास की जड़ों से बने कूंची का इस्तेमाल करके शरीर को साफ़ किया जाता था। इससे डॉक्टरों द्वारा की जा सकने वाली टिप्पणियां सीमित हो गईं क्योंकि वे शवों का विच्छेदन और उसमें हेरफेर नहीं कर सकते थे।

साइंस इन सैफ्रन में, विज्ञान की इतिहासकार मीरा नंदा उन विभिन्न तरीकों के बारे में बताती हैं जिनसे मानव शरीर रचना विज्ञान की समझ में बाधा उत्पन्न हुई। हृदय की बाहरी और आंतरिक संरचना तथा उसके कार्यों को पूरी तरह से गलत समझा गया। इसे कमल की कली के रूप में वर्णित किया गया जो जागते समय खुलती है और सोते समय बंद हो जाती है। मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के बारे में कुछ भी पता नहीं था। धमनियों और शिराओं के बीच का अंतर, साथ ही उनके द्वारा ले जाने वाले रक्त के बारे में भी कुछ जानकारी नहीं थी। शुद्धता और प्रदूषण की धारणाओं ने भी शारीरिक ज्ञान में प्रगति को पटरी से उतार दिया था। डॉक्टरों में यह भय व्याप्त था कि यदि वे शवों के संपर्क में आ जाएंगे तो उन्हें प्रदूषित होने का कलंक झेलना पड़ेगा। इस समय के आसपास की समकालीन सभ्यताओं, जैसे कि यूनानियों, में शुद्धता और प्रदूषण के बारे में समान धारणाएं नहीं थीं। परिणामस्वरूप वे अपने विचार में आयुर्वेद की तरह सीमित नहीं रहीं।

अलेक्जेंड्रिया में, चेल्सीडॉन के हेरोफिलस (330-260 ईसा पूर्व) ने मानव शरीर के व्यवस्थित विच्छेदन का कार्य किया। उन्हें मस्तिष्क की झिल्लियों की पहचान करने और तंत्रिकाओं, रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क के बीच संबंधों का पता लगाने का श्रेय दिया जाता है। चिओस के एरासिस्ट्रेटस (330-255 ईसा पूर्व) हृदय के बाइसीपिड और ट्राइकसपिड वाल्व और रक्त के एकतरफा प्रवाह को निर्धारित करने में उनकी भूमिका को समझने में कामयाब रहे।

इसका मतलब यह नहीं है कि पुरानी/उत्कृष्ट और यहां तक कि वर्तमान आयुर्वेदिक चिकित्सा में कुछ बीमारियों से राहत देने की क्षमता नहीं है। जांच और त्रुटि की प्रक्रिया के माध्यम से, कुछ पौधे-आधारित अर्क को औषधीय पदार्थों के रूप में पहचाना गया। पेट दर्द, दर्द और अन्य छोटी-मोटी बीमारियों से पीड़ित होने पर इनका उपचारात्मक प्रभाव पड़ता था। अब भी आधुनिक विज्ञान के आने के बाद, चिकित्सा की इन पारंपरिक प्रणालियों का इस्तेमाल होता है क्योंकि वे स्थानीय रीति-रिवाजों का हिस्सा हैं और आधुनिक चिकित्सा की तुलना में तुलनात्मक रूप से सस्ती हैं। तथ्य यह है कि ये 'इलाज' कभी-कभी उन्हें निरंतर समर्थन हासिल करने के लिए पर्याप्त होता है। यह वह समर्थन है जो परंपरा और उसके अतीत को महिमामंडित करने के राजनीतिक एजेंडे का आधार बनता है।

अतीत को महिमामंडित करने और वर्तमान समाज को प्रोत्साहित करने के लिए उसकी याद दिलाना एक फिसलन भरी ढलान है। किसी को अतीत की खोजों में विज्ञान और चिकित्सा की आधुनिक समझ को न थोपने के बारे में सावधान रहना होगा। सिर्फ इसलिए कि प्राचीन भारतीय डॉक्टर जानते थे कि हृदय एक अंग है, इसका मतलब यह नहीं है कि वे इसके उद्देश्य को समझते थे या यह उसी तरह से काम करता था जैसे हम अब करते हैं। जिन महान और उन्नत चीजों के बारे में हम स्पष्ट रूप से जानते थे, उनके बारे में जानने के लिए अतीत की 'गौरवों' की ओर देखने के बजाय, हमें शायद इसके विपरीत देखना होगा।

भारत में चिकित्सा का इतिहास लगातार महान उपलब्धियों में से एक नहीं है, बल्कि नकारात्मक सामाजिक मानदंडों के कारण उत्पन्न ठहराव का है। हमें अतीत से सीखना चाहिए ताकि ये मानदंड हमें वर्तमान में पीछे न ले जाएं।

लेखक न्यूज़क्लिक के साथ इंटर्न है। विचार निजी हैं। 

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

History Myth Busting Series - III: Ayurveda -- A Modern Science?

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