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कर्नाटक में बीफ़ पर प्रतिबंध के पीछे का आर्थिक तर्कशास्त्र

कर्नाटक में 500 करोड़ रुपये के मूल्य की बीफ़ इंडस्ट्री है, जो 40 लाख परिवारों को रोज़गार उपलब्ध करवाती है। अब इन परिवारों के सामने एक अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया है।
कर्नाटक

जबसे कर्नाटक में मवेशी वध को प्रतिबंधित करने वाला कानून पास हुआ है, तब से मवेशी बाज़ार में चुप्पी छाई हुई है। कर्नाटक में 'गोवंश के मांस (बीफ़)' का उद्यम 500 करोड़ रुपये का है, जिससे करीब़ 40 लाख परिवारों का पेट पलता है। अब इस वर्ग के सामने एक अभूतपूर्व संकट आ चुका है। सागरी आर रामदास बता रही हैं कि इस प्रतिबंध से किस वर्ग को मुनाफ़ा होने वाला है।

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कर्नाटक में 'मवेशी वध रोकथाम एवम् संरक्षण विेधेयक, 2020' पारित हो चुका है। अब यह कानून बनने से बस एक कदम ही दूर है। विधेयक को अभी राज्यपाल की अनुमति मिलनी बाकी है। लेकिन इस विधेयक के पहले एक अध्यादेश लागू किया गया था, जिसके तहत पहले से ही गिरफ़्तारियां की जा रही हैं। 

जैसी चेतावनी देत हुए कहा गया था, दूसरे राज्यों में जो हो रहा था, अब वह कर्नाटक में भी हो रहा है। उत्पादन में अक्षम पशुओं का व्यापार करने वाले मवेशी बाज़ार और बीफ़ की दुकानों में अब मुर्दा शांति छाई हुई है। कर्नाटक में 'गोवंश के मांस (बीफ़)' का उद्यम 500 करोड़ रुपये का है, जिससे करीब़ 40 लाख परिवारों का पेट पलता है। अब इस वर्ग के सामने एक अभूतपूर्व संकट आ चुका है। फिर छोटे होटल और रेस्त्रां हैं, जहां बीफ़ परोसा जाता है, उनके मालिकों पर भी इसका असर पड़ेगा। यहां चमड़े का स्थानीय व्यापार भी दांव पर लगा हुआ है, जिसका मूल्य 2019-20 में 8.5 मिलियन डॉलर आंका गया था। 

दलितों, मुस्लिमों, आदिवासियों, ईसाईयों और बड़ी संख्या में छोटे और सीमांत किसानों, छोटे पशु व्यापारियों और मालवाहकों का जीवन और आजीविका भी दांव पर लगी हुई है। इन छोटे और सीमांत किसानों में ज़्यादातर बहुजन-पिछड़ा वर्ग से आते हैं, जो दूध और भारा ढोने के लिए पशुओं को पालते हैं।

चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने "पशुओं पर अत्याचार की रोकथाम (पशुधन बाज़ार नियंत्रक नियम), 2017" पर रोक लगा दी थी। लेकिन अब तक 2018 में मसौदे में संशोधित नियमों की संसूचना जारी नहीं की गई है। इससे भी स्थिति बदतर हुई है। 2019 में भैंस व्यापारी कल्याण संगठन ने 'पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण अधिनियम, 1960 (PCA, 1960)' के तहत बने 'प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू एनिमल्स (केयर एंड मेंटनेंस ऑफ केस प्रॉपर्टी एनिमल्स) रूल्स, 2017' और मसौदे के संशोधित नियमों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। PCA अधिकारियों को किसी मालिक से उसका पशुधन जब्त कर, उसे गौशाला में स्थानांतरित या पशुधन को किसी और व्यक्ति को सौंपने और कानून के तहत पुराने मालिक पर मुकदमा चलाने का अधिकार देता है।

कर्नाटक में गाय हैं डेयरी उद्योग का आधार

2019-20 में कुल 90.3 लाख टन दूध का उत्पादन हुआ, इसमें से 75 फ़ीसदी गाय, 23 फ़ीसदी भैंस और 1 फ़ीसदी से थोड़ा कम बकरियों से उत्पादित हुआ था। 1986 से 1987 के बीच गाय के उत्पादन में 20-30 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई थी, जबकि भैंस के दूध का उत्पादन कम हो गया था। गायों के दुग्ध उत्पादन में जरसी और होल्सटीन फ्राईसान जैसी "संकर नस्लों (क्रॉसब्रीड)" का प्रभुत्व है।

2018-19 में गाय से कुल 59.1 लाख टन गाय के दूध का उत्पादन हुआ। इसमें 77.6 फ़ीसदी संकर नस्ल की गायों और 22.4 फ़ीसदी देशी गायों की हिस्सेदारी थी। दुधारु मवेशियों की आबादी 1997-98 से 2018-19 के बीच 40 लाख से बढ़कर 49.6 लाख हो गई, जबकि देशी मवेशी और भैंसों की आबादी कम हुई, वहीं संकर नस्ल की गायों की आबादी में इज़ाफा हुआ है।

पशुओं के मांस के आंकड़े भी इस स्थिति को बयां करते हैं। भारत में मवेशी मांस दुग्ध उत्पादन और भारा ढोने वाले जानवरों का सह उत्पाद है। यहां किसान अपने जानवरों को मज़दूरों की कमी, सूखे, बीमारी, जनन संबंधी जटिलताओं, बाज़ार में दाम गिरने और कृषि के लगातार हो रहे यांत्रिकीकरण के चलते बेच देते हैं।

कर्नाटक में 'बोवाइन मीट (कुछ खास नस्ल के जानवर समूह का मांस)' का उत्पादन 1983-84 में 3.6 लाख टन से बढ़कर 2019-20 में 26.9 लाख टन पहुंच गया, जिसमें 70 से 77 फ़ीसदी योगदान गोवंश के मांस का था। गोवंश में पुरुष वर्ग की आबादी लगातार गिर रही है, इसकी वज़ह कृषि का निरंतर हो रहा यांत्रिकीकरण है, जिससे इस वर्ग की उपयोगिता कम हो गई है। 

कर्नाटक दुग्ध संग राज्य (KMF) में उत्पादित होने वाले कुल दूध का 88 फ़ीसदी इकट्ठा करता है। यह अमूल के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा डेयरी सहकारिता संस्थान है। दुग्ध उत्पादन में आए इस उछाल की वज़ह पिछली तमाम सरकारों द्वारा किसानों को गोवंश खरीदने में सब्सिडी देना है। नतीज़ा यह हुआ कि कुल उत्पादन के 60 फ़ीसदी हिस्से की कर्नाटक में ही खपत हो जाती है, वहीं 40 फ़ीसदी दूध का घी, दूध पॉउडर जैसे उत्पादों में परिवर्तन हो जाता है और इसे 17 राज्यों में बेचा जाता है, साथ ही विदेश भी निर्यात किया जाता है।

KMF का लक्ष्य है कि हर दिन 80 लाख से 1 करोड़ लीटर दूध का संग्रहण किया जाए, इसके लिए किसानों में गायों की संख्या को बढ़ाया जाए और पूरे भारत में नए बाज़ारों में पहुंच बनाई जाए, साथ ही दूध की कीमत बढ़ाने वाले उत्पादों जैसे- चीज़ और घी जैसे निर्यात योग्य उत्पादों का सिंगापुर और यूएई जैसे देशों में निर्यात किया जाए। KMF महाराष्ट्र में प्रसंस्करण ईकाईयों की खरीद कर रहा है। जल्द ही वो अपनी बिक्री को 15000 करोड़ से बढ़ाकर 25000 करोड़ करने के लिए तैयार है। भारत में दूध और दुग्ध उत्पादों की मांग, दूध से बने उत्पादों के व्यापारिक निर्यात से जोड़ दी जाए, तो 2030 तक 266.5 मिलियन मीट्रिक टन बैठती है।

यह लक्ष्य सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों का आधार हैं, जिसके तहत वित्त को उच्च क्षमता वाली संकर वर्णों की गायों, उनके भोजन, बीमारी रोकथाम और निगरानी में निवेश किया जाता है। साथ ही दुग्ध उत्पादन से जुड़े सहकारिता संस्थानों को इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करने के लिए भी निवेश दिया जाता है।

बड़े स्तर के इस दुग्ध उत्पादन का आधार संकर वर्ण की उच्च दुग्ध क्षमता वाली गाय हैं। अब नए कानून के चलते उत्पादन में अक्षम हो जाने वाले पुरुष वर्ग के गोवंश का बिक्री मूल्य बेहद कम हो जाएगा। कई राज्यों में इस तरह के कानून पास होने के बाद यह तथ्य पाए गए हैं: 1) किसानों द्वारा उत्पादन के लिए भैंसों की तरफ मुड़ना। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में 2012 से 2019 के बीच भैंसों की आबादी में 10 फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है। 2) आवारा गोवंश और भैंसों की आबादी में जबरदस्त इज़ाफा 3) बोझा ढोने वाले जानवरों की संख्या में और भी ज़्यादा कमी 4) गोरक्षकों के क्रियाकलापों में बढ़ोत्तरी और कई सीमांत किसानों द्वारा गोवंश से दूर हो जाना।

तो इन कानूनों का तर्क क्या है, जबकि इनसे राज्य दुग्ध संघ के 155 अरब रुपये की वार्षिक आय को ख़तरा पैदा हो रहा है, यह 18 लाख दुग्ध उत्पादकों (जिनमें ज़्यादातर महिलाएं हैं) के ज़रिए हासिल किया गया है, जो धीरे-धीरे दुग्ध उत्पादन से दूर जा रहे हैं। क्योंकि यहां उनकी गायों और भैंसों का बिक्री मूल्य बेहद कम हो गया है। क्या गाय की पूजा, संस्कृति और धार्मिक उत्साह अर्थशास्त्र को किनारे कर सकता है? आखिर इन कानूनों से संभावित तौर पर किसका और कैसे फायदा हो रहा है?

इसके लिए हमें राष्ट्रपति द्वारा 2017 में बनाए गए 15 वें वित्तआयोग द्वारा कृषि निर्यात पर गठित उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह (HLEG) की तरफ देखना होगा। इस समूह में कृषि व्यापार के प्रतिनिधि और सरकारी लोग शामिल थे। इसने जुलाई, 2020 में एक रिपोर्ट दी। रिपोर्ट में राज्यों को कृषि उत्पादों को निर्यात और जिन फ़सलों का आयात किया जाता है, उनकी 'भरपाई कर सकने वाली फ़सलों' को प्रोत्साहन का सुझाव दिया गया था। 2018 में घोषित भारत की कृषि निर्यात नीति, अब अधिशेष उत्पादन के निर्यात के बजाए, लक्षित निर्यात की तरफ अपना स्थानांतरण करने की घोषणा करती है।

समिति ने राज्यों को कृषि प्रतिस्पर्धा में मजबूती से खड़े होने के लिए एक ढांचा तैयार करके सौंपा था। इसको निम्न तरीकों से प्रभाव में लाया जा सकता है 1) एकल फ़सल समूह की मांग पर आधारित मूल्य श्रंखला (सप्लाई चेन) का निर्माण और मूल्य संवर्द्धन (वेल्यू एडीशन) के बाद बनने वाले उत्पादों के निर्यात, जो सभी राज्यों से जुड़े होंगे, जिसका आधार निजी क्षेत्र होगा 2) निजी क्षेत्र के निवेश में बाधा डालने वाले कारकों की पहचान 3) योजना को आगे बढ़ाने के लिए राज्यों को प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन। यहां भैंसों/गोवंश को भारत के लिए जरूरी फ़सल-उत्पाद निर्यात श्रंखला में चिन्हित किया गया था।

गोवंश की सप्लाई चेन सबसे उच्च निर्यात वस्तुओं में से एक है, जिसका मूल्य मौजूदा 3.6 बिलियन डॉलर से 2024 तक 7 बिलियन डॉलर बढ़ने का अंदाज़ा है

अपने विश्लेषण में समिति ने बताया, "भारत फिलहाल चौथा सबसे बड़ा गोवंश निर्यातक (1.7 मिलियन टन) है और दुनिया की 6 फ़ीसदी मांग की पूर्ति करता है। दुनिया की इस मांग की कीमत 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। हमारी मजबूती यह है कि हमारे पास दुनिया में गोवंश की सबसे बड़ी आबादी है, जिसमें एक बहुत बड़ा अधिशेष भी है। भैंसों को मांस निर्यात के लिए नहीं बल्कि दूध के लिए पाला जाता है, लेकिन आखिर में इनका वध कर दिया जाता है। गोवंश का यह उत्पादन प्रमुखत: उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में है, बाकि दूसरे राज्यों में बूचड़खानों की कमी के चलते यह सीमित है।"

हम फिलहाल विएतनाम को 49 फ़ीसदी, मलेशिया को 10 फ़ीसदी, इंडोनेशिया को 8 फ़ीसदी, इराक को 5 फ़ीसदी और फिलिपींस को 3 फ़ीसदी निर्यात करते हैं। आगे हमारी निर्यात विस्तार योजना में दुनिया के दो सबसे बड़े आयातक देश- चीन और अमेरिका शामिल हैं, जिनके लिए अभी बातचीत चल रही है, इसलिए अब निर्यात बूचड़खाने और प्रसंस्करण करने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया जा रहा है।

2018 में वैश्विक व्यापार के शिखर पर पहुंचने के बावजूद भी गोवंश के मांस निर्यात में भारत में रिकॉर्ड गिरावट आई। इसकी वज़ह भारत के गैरकानूनी मांस आपूर्तिकर्ताओं पर विएतनाम के रास्ते चीन द्वारा कार्रवाई करना था। भारत के पास मौजूदा 12.36 लाख से 18 लाख टन तक का विस्तार करने की क्षमता मौजूद है, जिसकी कीमत 7 अरब अमेरिकी डॉलर होगी।

कॉरपोरेट की समस्याएं और कॉरपोरेट के समाधान

HLEG समिति ने मूल्य श्रंखला में आने वाले समस्याओं की पहचान की। भैंसों का पालन छोटे और सीमांत कृषकों में बंटा हुआ है, जो 2 से 20 जानवर तक पाले जाते हैं। यह कुल उत्पादन का 85 फ़ीसदी हिस्सा उपलब्ध करवाते हैं। यह लोग सीधे तौर पर निर्यातकों से नहीं जुड़े हैं। किसान अपने उत्पादन में अक्षम जानवरों को छोटे व्यापारियों के ज़रिए भेजते हैं, ना कि यह सीधे निर्यातकों से व्यवहार करते हैं। इसलिए यह टूटी हुई आपूर्ति श्रखंला बनाती है। मतलब यहां अपर्याप्त पशुधन बाज़ार और एक असंगठित व्यापार की उपस्थिति है। हर साल 10 लाख पुरुष लिंगी बछड़े पैदा होते हैं, जो भूखे मर जाते हैं या उन्हें जल्द ही वध के लिए भेज दिया जाता है। जबकि इन्हें इनके मांस के लिए पाला पोसा जा सकता है। कई राज्यों में भैंसो के वध पर मौजूदा प्रतिबंध से भी निर्यात की असल संभावना को चुनौती मिलती है। 

दुग्ध सहकारिता संस्थानों और मांस उद्योग के बीच संपर्क की कमी है, जबकि गोवंश का मांस डेयरी इंडस्ट्री का सह उत्पाद है। अधिशेष भैंस उत्पादन वाले राज्य, जैसे- मध्यप्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और गुजरात में अब नए बूचड़खानों की स्थापना और पुरानों का विस्तार करने की जरूरत है (जिनमें से बड़ी संख्या उत्तरप्रदेश में मौजूद है), इससे मूल्य श्रंखला में सुधार होगा। यहां कोल्ड-चेन की अनुपलब्धता भी बड़ा मुद्दा है, इसके लिए उत्तरप्रदेश की भौगोलिक स्थिति और बंदरगाहों तक पहुंच में कठिनाई जिम्मेदार है। अभी कच्चे माल पर 67 फ़ीसदी की निर्यात शुल्क लगाई जाती है, जिससे निर्यात बाज़ारों की प्रतिस्पर्धा में मांस की कीमतों में 3-4 फ़ीसदी का इज़ाफा हो जाता है।" 

समिति की रिपोर्ट दिक्कतों को मुनाफ़े में बदलने के लिए सुझाव भी देती है:

"दुग्ध सहकारिता संस्थानों को पुरुष लिंगी भैंसे के पालन की सुविधा देनी चाहिए, ताकि वे सीधे बूचड़खानों में इन्हें बेच सकें, ताकि हर साल 800 मिलियन अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त आय हो सके। दुग्ध सहकारिता संस्थानों के साथ जुड़ने से सार्वजनिक वित्त द्वारा किसानों को भैंसे पालने मदद मिलेगी। यह 11 राज्यों में प्रस्तावित FMD डिस्ट्रिक्ट में होना चाहिए। ट्रायल के दौरान जिलाधीश और पशुपालन विभाग को एक 'सतर्क' और सक्रिय किरदार निभाना चाहिए। (यहां सतर्क का मतलब नहीं बताया गया। क्या यहां इनका मतलब किसानों और व्यापारियों को भैंसो के बछड़े बेचने से रोकने का है?)

लक्षित राज्यों को अपने भैंस वध नियमों में संशोधन करना चाहिए और उन्हें उत्तरप्रदेश और पंजाब में लागू हुए कानूनों से मेल करवाना चाहिए। दुग्ध सहकारिता संस्थानों से संबंध बनाकर बीच के दलालों से छुट्टी और किसानों को सीधे अंतिम बाज़ार से जोड़ना चाहिए। राज्य सरकार को नए केंद्रों के लिए अनुमतियां देने में तेजी दिखाना चाहिए, ताकि किसानों की आय बढ़ाई जा सके और गोरक्षा के नाम पर अराजकता फैलाने वालों को गोवंश के परिवहन और श्रंखला आपूर्ति में व्यवधान पहुंचाने से रोकना चाहिए।

सिंतबर, 2019 में चालू किए गए एक राष्ट्रीय पशु बीमारी नियंत्रण कार्यक्रम के ज़रिए देश में FMD मुक्ति का प्रबंध है। इस कार्यक्रम के तहत पशुओं पर निगरानी भी रखी जा सकती है। कार्यक्रम के तहत वैक्सीन लगाए गए जानवरों का एक UID नंबर जारी होता है, जिसका डाटा पशु उत्पादन और स्वास्थ्य के सूचना तंत्र (INAPH) पर डाला जाता है।

भैंसों से संबंधित कच्चे उत्पाद पर लगने वाली 67 फ़ीसदी निर्यात शुल्क को ख़त्म किया जाना चाहिए। बंदरगाहों के नज़दीक कोल्ड स्टोरेज की सुविधा वाले बड़े फूड पार्क और प्रसंस्करण केंद्र बनाए जाने चाहिए। निर्यातकों को अपने प्रसंस्कृत मांस के पोर्टफोलियो में विविधता लानी चाहिए और भारतीय गोवंश मांस, जो जैविक पद्धति से उत्पादित किया गया है, (जो हार्मोन्स और एंटीबॉयोटिक्स का इस्तेमाल ना किए गए जानवरों से हासिल किया गया है),उसकी ब्रॉन्डिंग करनी चाहिए।

वध क़ानूनों के कृषि-व्यापार आर्थिक तर्क को मौजूदा कृषि क़ानूनों का सहारा

कर्नाटक में संशोधित वध कानूनों को जब पशु अत्याचार निवारण के 2017 के नियमों और मौजूदा कृषि कानूनों के साथ पढ़ा जाता है, तो इससे निम्न लिखित तरीके से कृषि व्यापार में आर्थिक मुनाफ़े को निश्चित कर कर्नाटक में गोवंश निर्यात को सुविधा मिलती नज़र आती है: 

किसानों से लेकर उनकी अंतिम मंजिल तक मौजूद, पशु व्यापार के अच्छे ढंग से सुचारू जटिल तंत्र में फौरी तौर पर बाधा आई है और उसे नुकसान हुआ है। चाहे वह किसान की बात हो या कई व्यापारियों से कच्चा माल लेने वाले बूचड़खानों या APMC कानून के दायरे में आने वाले पशु बाज़ारों की। मौजूदा पशु वध कानूनों में विजिलेंटिज़्म (अतिसतर्कता) के लिए कोई सजा का प्रावधान ना होने से कोई भी किसान या छोटा व्यापारी अपनी जान की बाजी नहीं लगाएगा। पहले ही गोवंश पर गोरक्षकों की यह मार जारी है।

राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर विस्तार, निर्यात और डेयरी विकास ने संकर वर्ण के जानवरों के उत्पादन पर भार बढ़ा दिया है, इसमें यह मायने नहीं रखता कि कौन सा संकर ज़्यादा पुरुष लिंगी बछड़ों का उत्पादन कर रहा है या फिर किसान भैंसों की तरफ मुड़ रहे हैं। किसी भी स्थिति में किसानों को अपनी 5वीं या 6वी दुधारू गाय बेचने की जरूरत होगी। जबकि भैंस के मामले में किसानों को अपनी 9वीं भैंस बेचने की जरूरत पड़ेगी। 

तो फिर यह जानवर जाएंगे कहां? कर्नाटक में 80 गौशालाएं हैं, जिनमें हर गौशाला में 200 जानवरों की जगह है। अब घोषणा की जा रही है कि हर तहसील में 2 नई गौशालाएं बनाई जाएंगी। अब तक गौशालाएं गोवंश को ही रखती रही हैं। इसलिए इनमें अब बड़ी संख्या में मवेशी और भैंसे भरी जाएंगी। कोई भी मौजूदा गौशाला सीधे उन जानवरों को रखने में अक्षम रहेगी, जो किसानों के घर से पैदा हुई हैं (जिसमें भैंस का बछड़ा भी शामिल है)। पंचगव्य, गोबर-गौमूत्र बेचने और 'पवित्र गाय के दूध' वाली बातें सिर्फ निर्यात योजना पर बाहरी पर्दा डालने की योजनाएं हैं। 

3) यहीं नए कृषि कानून कॉरपोरेट को अपने मवेशी निर्यात में सक्षम बनाते हैं। वे उत्पादक के घर से सीधे जानवरों को खरीदने की आजादी देते हैं। इससे मौजूदा APMC बाज़ार को बायपास किया जा सकता है। इस तरह कॉरपोरेट लॉजिस्टिक्स कंपनियां सीधे उत्पादन में अक्षम जानवरों को गांवों से उठा सकती हैं। पहले से मौजूद संगठित किसान मंच- जैसे गांव दुग्ध सहकारी समितियां (HLEG द्वारा इसी का सुझाव दिया गया है) इन मवेशियों को 'बीमारी मुक्त क्षेत्रों' में निर्यातकों तक पहुंचाने में मदद कर सकती हैं। लेकिन अभी कर्नाटक द्वारा इन्हें बनाया जाना बाकी है।

कर्नाटक के पड़ोसी महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश "बीमारी मुक्त क्षेत्र" घोषित होने के बेहद करीब़ हैं। भारत ने इस तरह के प्रमाणीकरण के लिए OIE के पास अपील की है। इसी तरह भैंस के बछड़ों का कांट्रेक्ट फार्मिंग के तहत पालन किया जा रहा है और उन्हें सीधे खरीद कर बूचड़खानों तक पहुंचाया जा सकता है।

इस कार्य में लगे कॉरपोरेट की गोरक्षकों से सुरक्षा हो सकेगी क्योंकि 1) तथाकथित APMC बायपास कानून के अध्यया 5 की धारा 14 और कांट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट की देश में किसी भी कानून पर अवरोही शक्ति होगी 2) धारा 13 के तहत केंद्रीय या राज्य सरकार, सरकार के कोई अधिकारी या किसी और व्यक्ति के खिलाफ़ कोई मुक़दमा या कानूनी प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकती। (कृषि कानूनों में कोई व्यक्ति का तात्पर्य कोई शख़्स, पार्टनरशिप फर्म, कंपनी, LLP, सहकारी समिति या कोई संगठन से है।)

धारा 15 के तहत कोई भी सिविल कोर्ट इस मामले में क्षेत्राधिकार नहीं रखता। इसके बावजूद कानून में वर्णित किसी सशक्त अधिकारी या प्रशासन द्वारा किसी मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लिया जा सकता है और वह इसका फ़ैसला कर सकता है।

पशुवध कानूनों में गोरक्षकों को प्रश्रय मिलता है और वे छोटे व्यापारियों, परिवहनकर्ताओं, बूचड़खाने में कार्यरत स्थानीय लोगों और पशुधन ले जाने वाले किसानों पर हमले के लिए प्रेरित होते हैं।

सरकार द्वारा जिस उच्च स्तरीय योजना का गठन किया गया है, अगर उसे लागू किया जाता है, तो इसमें कोई शक नहीं कि देश में बीफ़ खाने की तश्तरियों से पूरी तरह गायब हो जाएगा। ढांचागत तरीके से यह गोवंश के मांस को देश के बाहर भेज देगा और यह ब्राह्मणवादी सोच के मुताबिक़ गोवंश के मांस से मुक्त भारत का निर्माण करेगा, जिसमें कॉरपोरेट को खूब मुनाफा होगा। इस तरह पूंजीवाद और पवित्र गाय की राजनीति दोनों की ही जीत हो जाएगी।

पशुवध, डेयरी और गोवंश के मांस के निर्यात के पीछे की कुटिल योजना से छोटे और सीमांत किसान पशुधन पर आधारित आजीविका से दूर होंगे और हमारे खाने व जिंदगी पर ब्राह्मणवादी पूंजीवाद का नियंत्रण मजबूत होगा।

(सागरी रामदास भारत स्थित 'फूड सोवरीनिटी अलायंस' से जुड़ी एक वेटेरिनरी साइंटिस्ट हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Economic Rationale of Slaughter and Beef Ban in Karnataka

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