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एक डॉक्टर की मौत – क्यों? कुछ बुनियादी सवाल

ऐसे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से रेजिडेंट डॉक्टरों को इतना कठोर कदम उठाने पर मज़बूर होना पड़ता है?
Tadvi
फोटो साभार: Hindustan Times

जब अस्पतालों में सुरक्षा की मांग को लेकर पूरे देश में रेजिडेंट डॉक्टरों की हड़ताल दूसरे दिन भी चल रही थी, तो एक रेजिडेंट डॉक्टर ने हरियाणा के रोहतक के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में आत्महत्या कर ली। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब अपनी पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर रही एक आदिवासी रेजिडेंट डॉक्टर पायल तडवी ने भी आत्महत्या कर ली थी। रोहतक के मेडिकल कॉलेज में रेजिडेंट डॉक्टर हड़ताल पर चले गए; वे बाल रोग विभाग की प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं जो संयोग से एक महिला हैं। पीड़ित डॉ. ओंकार, कर्नाटक से हैं, वे पीडियाट्रिक्स में अपने एमडी (डॉक्टर ऑफ मेडिसन) की पढ़ाई कर रहे थे। अन्य मांग के अलावा उनके  परिवार के सदस्यों को एक करोड़ रुपये मुआवज़ा देने की भी मांग की गई है।

ऐसा क्यों है कि जिन रेजिडेंट डॉक्टरों को प्रतिभा के मामले में सबसे ऊपर माना जाता है, वे ऐसे कठोर कदम क्यों उठाते हैं? केवल 63,000उम्मीदवार, सीनियर सेकंडरी से पास होकर, राष्ट्रीय पात्रता की प्रवेश परीक्षा (NEET) (2018 में NEET परीक्षा में 13,26,725 छात्र शामिल हुए) को उत्तीर्ण करते हैं और उनमें से केवल 25,000 स्नातकोत्तर की परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए योग्य पाए जाते हैं। ये वे लोग हैं जिनका एक सपना सच होने जैसा है। फिर ऐसे लोगों द्वारा आत्महत्या करना एक गंभीर चिंता का विषय है। यह एक ऐसी त्रासदी है कि जो लोग दूसरों का जीवन बचाने के लिए होते है, वे अचानक अपना जीवन समाप्त कर देते हैं

जबकि डॉ. पायल और डॉ. ओंकार दोनों की सामाजिक स्थिति उनके पीड़ित होने के पीछे की सच्चाई के रूप में पाई गई है, लेकिन इसके साथ ही ऐसा कुछ और भी है जो नीचे ही नीचे पक रहा है। डॉ. ओंकार के लिए एक कारण तो यह था कि उनकी छुट्टी मंजूर नहीं हुई थी। उन्होंने कर्नाटक जो उनका मूल निवास स्थान है, अपनी बहन की शादी में भाग लेने के लिए छुट्टी के लिए आवेदन किया था। यह कितना विचित्र लगता है।

इस तथ्य के बारे में कोई दो राय नहीं है कि अलग-अलग लोग उनके इर्द-गिर्द हालात में अलग-अलग ढंग से प्रतिक्रिया देंगे, लेकिन भारत में, यह एक स्वीकृत वास्तविकता है कि पीजी के छात्र या जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर (जैसा कि उन्हें कहा जाता है), अपने वरिष्ठ के कार्यक्रम को लागू करते हुए अपार दबाव में रहते हैं। यह दबाव मुख्य कारणों में से एक है जो उन्हें आत्महत्या करने जैसे कठोर कदम उठाने की ओर खींचता है।

एक व्यक्ति जो पोस्ट-ग्रेजुएशन करने और फिर पोस्ट-डॉक्ट्रेट या एमसीएच करने के दौर से गुज़रता है, न कि एक छात्र के रूप में, बल्कि एक पति या पत्नी के रूप में, आसानी से समझ सकता है कि उस व्यक्ति का रेजीडेंट होते हुए यह सब करते हुए उस पर किस तरह का दबाव होता है वह सिर्फ इतना नहीं होता कि वह दबाव सिर्फ  छात्र तक ही सीमित रहता है, बल्कि वह उन पर भी होता है जो उनके साथ जुड़े होते हैं। मेरी पत्नी जो हिमाचल प्रदेश में पहली महिला सर्जन (सामान्य सर्जरी) बन गई और फिर पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) चंडीगढ़ से पहली महिला कार्डियाओ-थोरेसिक सर्जन बनीं, को लगातार इस तरह के दबावों का सामना करना पड़ा। पूरी तरह से पुरुष डोमेन में प्रवेश करने वाली एक महिला होने के नाते उनके लिए वह एक वास्तविक अवरोधक था, लेकिन एक रेजीडेंट डॉक्टर होना भी उतना ही चुनौतीपूर्ण काम था। प्रारंभ में, यह सुनिश्चित करने के प्रयास भी किए गए थे कि वह सर्जरी के विषय को छोड़ दे और बाद में दबाव यह था कि वे अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में खुद को सक्षम साबित करें।

निश्चित रूप से, ऐसे घात देश भर में समान है, सभी मेडिकल कॉलेजों में।

सबसे पहले, यह सरकारी कॉलेजों और अस्पतालों में मरीजों की भारी भीड़ और स्वास्थ्य क्षेत्र में राज्य द्वारा निवेश में कमी से जुड़ा है। काम के दबाव का बड़ा हिस्सा सहने वाले रेजिडेंट डॉक्टर इस सबका सबसे बड़ा खामियाजा भुगतते हैं। उके पर, यहां तक कि न्यूनतम सुविधाएं जैसे कि विश्राम कक्ष, स्वच्छ पेयजल आदि भी उपलब्ध नहीं हैं।

दूसरा कारण इस पेशे की पूरी की पूरी अलोकतांत्रिक संरचना है, उसके काम करने की संस्कृति और अत्यधिक पदानुक्रम से जुड़ा हुआ है। बॉस,यानी विभाग के प्रमुख (HoD) या यहां तक कि यूनिट हेड के आदेश को बिना किसी रोक-टोक के लागू करना आवश्यक है। चिकित्सा और विशेष रूप से सर्जरी के कौशल को सीखने और विकसित करना, उनके मालिक की इच्छा और इच्छाशक्ति के अधीन है। ‘उस्ताद से ही सीखना,रेजीडेंट  डॉक्टरों के लिए सफलता का मंत्र है। तो, बॉस द्वारा अपने बॉस से सीखने की कहानी चलती रहती है। एक थीसिस पर हस्ताक्षर करवाने के लिए पीजी छात्र को बहुत निराशा हो सकती है, क्योंकि बहुत ही मामूली आधार पर उसे न सिर्फ फिर से लिखने के लिए कहा जा सकता है,बल्कि कई बार तो वह इसे ठुकरा भी देता है।

एक जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर, भले ही तेज तर्रार और समझदार हो, उसे अपने बॉस की 'परीक्षा उत्तीर्ण' करना आवश्यक बना देता है। अस्पताल में जबरदस्त मेहनत करने के बावजूद रेजिडेंट डॉक्टरों को अपनी पढ़ाई करनी पड़ती है, यह बॉस ही है जो आम तौर पर उनका भविष्य तय करता है।

यह वह सुपर पदानुक्रम का वातावरण तैयार करता है जो लोकतांत्रिक आवाज़ और पसंद को दबा देता हैं। इन सबसे ऊपर, मेडिकल कॉलेज परिसरों में लोकतांत्रिक छात्रों के आंदोलन की अनुपस्थिति में, यह श्रेणीबद्ध प्रणाली ज्यादा अधिक ढंग से संक्षरित है। दलित और आदिवासी पृष्ठभूमि के रेजीडेंट डॉक्टरों के लिए, हालात और भी बदतर हैं।

मुझे याद है कि 1990 के दशक के शुरुआती दिनों में मेरे विश्वविद्यालय के दिनों में, कुछ प्रोफेसरों ने शोध के स्कॉलर का उपयोग उनके अपने घरेलू काम करवाने के लिए किया था, जैसे कि सब्जियां लाना आदि। ऐसे शिक्षकों के खिलाफ कड़े विरोध प्रदर्शन हुए। लेकिन मेडिकल कॉलेज परिसरों में ऐसा कभी नहीं देखा गया। लेकिन, यह गाइड या ‘सलाहकारों’ की भूमिका को कम नहीं करता है, क्योंकि वे खुद को मेडिकल बिरादरी में  कौशल और ज्ञान प्रदान करने वाला मानते हैं। रेजिडेंट डॉक्टरों पर मालिकों का नियंत्रण कम होना चाहिए।

तीसरा, लंबे समय तक काम करने का समय और कोई भी काम का प्रोटोकॉल न होना भी रेजिडेंट डॉक्टरों को अधिक असुरक्षित बनाता हैं। एक रेजीडेंट डॉक्टर कभी-कभी छुट्टी लिए बिना 72 घंटे तक काम करता है। यह चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, आर्थोपेडिक्स, ज्ञान और प्रसूति आदि में काफी प्रचलित है। ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसे विस्तारित घंटों के लिए परिश्रम के साथ काम करना कैसे संभव है? इससे आघात और आवेग बढ़ाना लाजिमी  हैं, जो अलग अलग तरीकों में प्रकट होते हैं। मुझे इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज, शिमला में दो जर्मन छात्रों की  याद आती हैं, जो एक एक्सचेंज प्रोग्राम के लिए आए थे। उन्होंने शाम 5 बजे के बाद काम करने से मना कर दिया था। पश्चिम में इस तरह के काम का माहौल है, लेकिन भारत में हम उन्हें एक साथ कई दिनों तक काम करने के लिए मज़बूर करते हैं, जो पूरी तरह से अनुचित है।

यह आवश्यक है कि अधिक लोकतांत्रिक माहौल के लिए, एचओडी के पद को बदलते रहना चाहिए, काम के घंटों के लिए एक प्रोटोकॉल बनाना चाहिए और सबसे ऊपर, मेडिकल कॉलेजों में पोस्ट-ग्रेजुएशन सीटों की संख्या में वृद्धि करनी चाहिए। इस तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था से बाँधते बोझ को कम करने में मदद मिल सकती है जिसके तहत रेजीडेंट डॉक्टर काम करते हैं।

लेखक शिमला के पूर्व उप महापौर हैं।

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