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एनडीए की स्पष्ट जीत, लेकिन सवाल अभी बाक़ी!

मैक्रो-इकोनॉमिक मोर्चों पर विफ़लता के बावजूद सत्ता का राजनीतिक एकीकरण लगभग पूरे भारत में बीजेपी के लिए मुकम्मल हो गया है। ऐसे में अब राजनीतिक नाटक का बड़ा रंगमंच दक्षिण भारत होगा।
एनडीए की स्पष्ट जीत, लेकिन सवाल अभी बाक़ी!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए यह स्पष्ट जीत है। अब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की तैयारी शुरू हो गई है। और हमें इसके कारणों का भी पता लगाने की ज़रूरत है।

कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को लेकर दोपहर 12 बजे तक की स्थिति बताती है कि यह इस बार अपेक्षाकृत अधिक मज़बूत है हालांकि जीत से बहुत दूर है। और आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस, ओडिशा में बीजू जनता दल, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (बड़े पैमाने पर दक्षिण भारत में) को छोड़कर क्षेत्रीय दल हतोत्तसाहित हुए हैं। वामपंथी अपने गढ़ में ही हार गए हैं और दूसरी जगहों पर बेहतर करने में नाकाम रहे हैं।

विपक्ष के असफ़ल प्रचार क्या संकेत देते हैं?

चुनौती देने वाली कांग्रेस के बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे कमज़ोर थे। प्रशंसनीय घोषणापत्र और इसके एनवाईएवाई (हाशिए पर मौजूद लोगों के लिए न्यूनतम आय) के मूल प्रस्ताव में काफ़ी देर हो गई और पार्टी द्वारा ज़मीनी स्तर पर अच्छी तरह से लोगों को संवाद नहीं किया जा सका। ये पार्टी ज़मीनी स्तर पर संगठित नहीं है और अपनी बात कहने के लिए हमेशा मास मीडिया पर निर्भर रहती है जो कि इस चुनाव में मीडिया नहीं चाहती थी क्योंकि सत्ताधारी पार्टी से काफ़ी प्रभावित दिखाई दे रही थी।

दूसरा, प्रियंका गांधी के देर से आने से उत्तर प्रदेश कांग्रेस के कैडर को उत्साहित करने में बहुत मदद नहीं मिली साथ ही उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा और उन राज्यों में भी प्रचार नहीं किया जहाँ कांग्रेस अभी सत्ता (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) में आई थी। यह एक भारी ग़लती थी। यहाँ तक कि मध्य प्रदेश के सशक्त नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कमलनाथ के प्रति अपने मनमुटाव के कारण पश्चिमी यूपी के प्रचार में पुरज़ोर तरीके से लगे हुए थे जो कि एक ग़लत रणनीति थी।

तीसरा, सांप्रदायिक राजनीति के सामूहिक विरोध और बीजेपी के ध्रुवीकरण को विपक्षी पार्टियों द्वारा दबाया नहीं जा सका। पश्चिम बंगाल (वामपंथ या तृणमूल कांग्रेस के साथ), हरियाणा (जननायक जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के साथ), दिल्ली (आप के साथ) और यूपी (समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी के साथ) में गठबंधन बनाने में कांग्रेस बुरी तरह से नाकाम हो गई। सभी को ज़रूरत बीजेपी का मुक़ाबला करने का था न कि एक-दूसरे के प्रभाव क्षेत्र को सीमित करने का।

चौथा, विपक्ष के चेहरे की अनुपस्थिति और बीजेपी-विरोधी ताक़तों की एक सुसंगत राष्ट्रीय रणनीति की कमी आज सबकुछ बयां कर रही है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे तीन महत्वपूर्ण नवनिर्वाचित राज्यों को स्थानीय नेताओं पर पूरी तरह छोड़ना और संयुक्त विपक्ष की राष्ट्रीय रणनीति से इसे दूर रखना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भारी भूल थी। कांग्रेस ने अपने मज़बूत मुद्दों को संगठित करने के लिए काम नहीं किया और केरल को छोड़कर कमज़ोर क्षेत्रों की लड़ाई के लिए इधर उधर भटक रही थी।

एनडीए की स्पष्ट जीत क्या बताती है?

निश्चित रूप से संघ परिवार द्वारा सामाजिक गुटबंदी का एक नया समूह विकसित किया गया है जिसमें दलित और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) भी शामिल हैं जो चुनावों से पहले उम्मीदों के विपरीत हैं। विपक्ष की यूपी की असफ़लता से पता चलता है कि सपा और बसपा के बीच वोटों का हस्तांतरण नहीं हुआ और बीजेपी ग़ैर-जाटव दलितों और ग़ैर-यादव ओबीसी के वोटों के एक बड़े हिस्से को पाने में कामयाब हो गई।

बीजेपी जाति से परे या तो मुख्यमंत्रियों के ख़िलाफ़ स्थानीय मुद्दों पर या राष्ट्रवाद और मोदी के नेतृत्व के मुद्दे पर बंगाल और मध्य भारत में हिंदू मतदाताओं के एक बड़े हिस्से का ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो गई।

दूसरा, विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ चयनात्मक कार्यवाही के लिए चुनाव आयोग का उपयोग और दुरुपयोग, विपक्षी नेताओं के घरों और कार्यालयों पर छापे के लिए प्रवर्तन निदेशालय का उपयोग और दुरुपयोग जबकि सत्ता पक्ष और उसके उम्मीदवारों द्वारा बड़ी मात्रा में धन का ख़र्च किया जा रहा था, चुनिंदा विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ अहम वक्त में सीबीआई द्वारा जांच, पुलवामा और बालाकोट प्रकरणों के दौरान सेना की वीरता और बलिदान, तथ्यों का चयनात्मक खंडन जिसे भारतीय वायु सेना के अपने ही विमान पर हमले, सैनिकों को मारने और विमान को नष्ट करने के मामले में देखा गया, कई फ़र्जी ख़बरों और वीडियो का प्रसार, कई स्थानों पर दोषपूर्ण ईवीएम के साथ चुनाव प्रक्रिया पूरा कराने के प्रयास और ईवीएम मशीनों के कथित हेर फेर ने भी बीजेपी को फ़ायदा पहुँचाया। भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए एनडीए के गौरव के क्षण में इन आलोचनाओं को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है (और याद के लिए मैं बता दूँ कि इंदिरा कांग्रेस ने भी अतीत में अपने ज़माने में चुनावों में भारी हेरफेर किया था)।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि पीएम पद के लिए कोई भी विपक्षी चेहरा नहीं था, कोई सुसंगत विपक्षी राष्ट्रीय रणनीति नहीं थी जो संघ परिवार के राष्ट्रीयकरण के लामबंदी का मुक़ाबला कर पाता और बहुलतावाद की पहचान के धरातल पर धार्मिक ध्रुवीकरण ने चिंताजनक आर्थिक स्थिति और बेरोज़गारी के साथ मैक्रो-इकोनॉमिक के मोर्चे पर असफ़लता, कृषि संकट, 2014 से पहले की तुलना में निम्न जीडीपी और प्रति व्यक्ति विकास, नोटबंदी और जीएसटी आदि के नकारात्मक प्रभाव के बावजूद बीजेपी को मदद की। ये मुद्दे देश की जनता पर हावी रहे जिसको बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने पार्टी को जीत की बधाई देते हुए भी अपने ताज़े ट्वीट में उल्लेख किया है।

अब भविष्य क्या है?

हालांकि भारतीय राजव्यवस्था की संवैधानिक प्रणाली ब्रिटेन की तरह संसदीय है और वास्तव में भारत अमेरिका जैसी राष्ट्रपतिय व्यवस्था (जो कि अभी भी शासन प्रणाली में ऐसा नहीं है) में बदल रही है। इसे भविष्य में शामिल किया जा सकता है। हम 370, 35ए, सरकार के प्रकार, संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के लक्ष्यों आदि के संबंध में संविधान संशोधन ला सकते हैं। ट्रिपल तलाक़, मंदिर निर्माण, राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण और नागरिकता, राजद्रोह को लेकर संवैधानिक संशोधन ला सकता है। ये समाज को और भी विभाजित कर सकते हैं।

विपक्ष के तौर पर क्षेत्रीय दलों को झटका लग सकता है और कांग्रेस के इर्द-गिर्द की शक्तियों का एकत्रीकरण हो सकता है। हालांकि कांग्रेस का नेतृत्व अभी भी दक्षिण भारत में सीमित है। कुल मिलाकर क्षेत्र और जाति-विभाजित विपक्ष कभी भी अपने दम पर बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकता जो स्पष्ट है।

एनडीए के भीतर भी बीजेपी हिंदुत्व पर टिकी शिवसेना की राजनीति और जनता दल (युनाइटेड) को हड़प लेगी क्योंकि नीतीश कुमार की व्यक्तिगत खींचतान और प्रभावशीलता में भारी गिरावट आई है और यह बीजेपी ही है जो लंबे समय के लिए बिहार और महाराष्ट्र में प्रमुख भागीदार बनने के लिए आगे बढ़ने को तत्पर है।

अब बीजेपी के लिए भारत के अधिकांश हिस्सों में सत्ता का राजनीतिक सुदृढ़िकरण लगभग पूरा हो गया है अब राजनीतिक के बड़े नाटक का रंगमंच दक्षिण भारत होगा जहाँ बीजेपी केरल में वाम दलों को विस्थापित करने के लिए अपने प्रयासों को बल देगी, आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस के साथ और तेलंगाना में टीआरएस के साथ मिलकर काम करेगी आंध्र और कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल सेक्युलर सरकार को किसी भी तरह हटाने का लक्ष्य बनाएगी। इसके अलावा तमिलनाडु में एआईएडीएमके भी आधारहीन हो जाएगी और अपनी सीमित प्रासंगिकता के लिए आगे बढ़ते हुए बीजेपी के लिए सहायक की भूमिका निभाएगी। ओडिशा में भी बीजू जनता दल राज्य के हितों के लिए बीजेपी के साथ मिल जाएगी।

इसके अलावा दिल्ली और बंगाल भी इस बड़े नाटक का रंगमंच होगा क्योंकि इन राज्यों के विधानसभा चुनावों कुछ ही वर्षों में होने वाले हैं। सत्तासीन तृणमूल कांग्रेस और चुनौती देने वाली बीजेपी दोनों की प्रतिस्पर्धी हिंसा और सांप्रदायिकता के साथ बंगाल में बड़ी लडा़ई के बारे में सोच सकते हैं क्योंकि दोनों एक दूसरे को एक इंच भी जगह देने को तैयार नहीं है। उधर 'आप' जनता को अपने सरकारी कामकाज के बारे में बताएगी और बीजेपी दिल्ली वासियों को अपनी सहायता देने को लेकर जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगी। इससे चुनावी लड़ाई बेहद दिलचस्प हो जाएगी।

साथ ही यह उम्मीद की जाती है कि मोदी सरकार द्वितीय में इसके मंत्रिपरिषद की बेहद अलग संरचना होगी। और यह बताना दिलचस्प होगा कि एक तरफ़ जहाँ उन मंत्रियों के नए समूह जिनके युवा होने की उम्मीद की जाती है वहीं दूसरी तरफ़ मोदी-शाह के नेतृत्व के प्रति अधिक फ़रमाबरदार होने की भी उम्मीद है।


लेखक पत्रकारिता के अध्यापक, स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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