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कृषि क़ानूनों के निरस्त हो जाने के बाद किसानों को क्या रास्ता अख़्तियार करना चाहिए

भारतीय किसानों को एमएसपी और अपनी उत्पादक सामग्री पर सब्सिडी की जरूरत है, लेकिन राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था को इस विचार से घृणा है। ऐसे में, अब यह किसानों पर निर्भर करता है कि वे समूचे देश के लिए कोई रास्ता तलाश करें। 
kisan andolan

गुरु नानक देव की जयंती के शुभ दिन पर प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि सरकार तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने जा रही है और फिर संसद के शीतकालीन सत्र में वास्तव में ऐसा कर भी दिया। यह किसान आंदोलन की एक महत्वपूर्ण जीत है। यह किसानों की दृढ़ता और शांतिपूर्ण दृढ़-संकल्प का ही परिणाम था जिसने आखिरकार भारतीय राज्य को इन कानूनों को निरस्त करने के लिए मजबूर कर दिया। व्यापक रूप से माना जा रहा है कि इसके पीछे कुछ राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश में होने जा रहे आगामी विधान सभा चुनाव, एक निर्णायक कारक थे। हालांकि, मेरे विचार में इसे निरस्त करने का प्राथमिक कारक किसानों का संघर्ष रहा, जो तमाम उकसावों के बावजूद अविचलित रहा। 

हालाँकि, किसानों का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि इन कानूनों के निरस्त हो जाने से ही कृषि का निगमीकरण रुकने नहीं जा रहा है। बल्कि इसके बजाय, निगमीकरण को अब अप्रत्यक्ष एवं जोड़-तोड़ वाले रास्ते से लाया जायेगा, क्योंकि यदि ध्यान दें तो शुरू से ही सरकार की सोच पर कृषि में पूंजी के केन्द्रीयकरण का विचार पूरी तरह से हावी रहा है। इसे देखते हुए, किसान यूनियनों को किसी भी कीमत पर अपनी चौकसी को कम करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए।

विश्व ने वैश्वीकरण के तीन दशकों से भी अधिक का अनुभव हासिल कर लिया है, और आज हम इस स्थिति में हैं कि इसके दुष्परिणामों का आकलन कर सकते हैं। वैश्विक स्तर पर जो उभर रहा है वह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिये धनी देश, और सभी देशों के संपन्न लोग अधिक से अधिक अमीर होते जा रहे हैं, जिसके चलते समूचे विश्व भर के राष्ट्रों और वर्गों के बीच में बड़े पैमाने पर गैर- बराबरी की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। बड़े-बड़े निगमों की आज विश्व पर हुकूमत है, और किसी अन्य भविष्य पर कोई रौशनी नहीं दिख रही है। ऐसी स्थिति में, कुछेक अपवादों को छोड़कर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी गायब हो चुकी है, और लोगों को उनके खुद के हाल पर छोड़ दिया गया है। पूंजीवाद में, सबसे पहले इंसानों को व्यक्ति के तौर पर अलग-थलग किया जाता है, और फिर उन्हें मशीनों के खांचों के तौर पर तब्दील कर दिया जाता है। इसके पीछे की अन्तर्निहित धारणा यह है कि लोग अब सामूहिक तौर पर संगठित नहीं हो सकते क्योंकि वे अब संकीर्ण व्यक्तिगत हितों के द्वारा संचालित होते हैं। वहीं यह देखना भी काफी दिलचस्प है कि पूंजीवाद ने व्यक्तिगत स्तर पर सूचना हासिल करने और सोशल मीडिया के जरिये अपनी चिंताओं को साझा करने के असीमित अवसर भी मुहैया करा दिए हैं। जैसा कि हमने किसानों के आंदोलन के माध्यम से देखा कि सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना प्रवाह को अब पूरी तरह से दबा पाना संभव नहीं रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ कि राज्य द्वारा किसानों के विरोध को अदृश्य कर देने या संघर्ष को बदनाम करने के लिए फर्जी खबरों को गढ़ने के सभी उपाय निरर्थक साबित हो गए। 

चूँकि किसानों और उनके नेताओं ने जिस प्रकार से अहिंसा की राह को अपनाकर अनुशासन और आपसी सहमति का परिचय दिया है, ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इस बारे में उपदेश देने की जरूरत नहीं है। फिर भी, एक हमदर्द और आंदोलन से सम्बद्ध शिक्षाविद के तौर पर, मैं कुछ विशिष्ट मुद्दों को अनुस्मारक के तौर पर और किसानों के पास उपलब्ध कुछ विकल्पों की ओर इंगित करना चाहता हूँ। (मैं उम्मीद करता हूँ इन्हें सही भावना से लिया जायेगा।) सबसे पहला, यह महत्वपूर्ण होगा कि किसान यूनियनों को न सिर्फ अपने-अपने क्षेत्रों में कामकाज को जारी रखना होगा, बल्कि एक-दूसरे की गतिविधियों में भी समन्यव स्थापित करना होगा और विचारों का आदान-प्रदान जारी रखना होगा। यह धारणा कि एक बार आंदोलन के समाप्त होने के बाद इसे फिर से खड़ा कर पाना संभव नहीं होगा, को किसी भी सूरत में सत्य नहीं समझना चाहिए। 

दूसरा, हरित क्रांति ने हमारे पर्यावरण और स्वास्थ्य पर कहर बरपा रखा है। इसकी एक वजह कुछ फसलों की सिंचाई के लिए भारी मात्रा में पानी का उपयोग है, जो हमारे जल संसाधनों को लगातार खत्म करता जा रहा है। दूसरी वजह है कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण ढंग से इस्तेमाल, जो लोगों के स्वास्थ्य को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचा रहा है और हमारे जल एवं जमीन को लगातार जहरीला बना रहा है। इसके बजाय मैं यह तर्क रखूंगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रणाली में एक अंतर्निहित व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में पारंपरिक तौर पर जिन फसलों की खेती की जाती रही है, उनको इसमें प्राथमिकता दी जाये। व्यापक रूप से इस बात को माना जाता है कि किसी भी व्यवस्था में यदि धन और लाभ का प्रवेश हो जाता है तो, नैतिकता सबसे पहले हताहत होती है। इसलिए, ऐसे कदम को लिया जाना तभी संभव है जब हमारे सामने वैकल्पिक साधन उपलब्ध हों और किसानों को स्वीकार्य हों। पिछले चार दशकों के दौरान मैंने देखा है कि कैसे पंजाब के कुछ क्षेत्रों में, जहाँ हमेशा से पानी का संकट था और जमीन भी अर्ध-बंजर थी, वहां के किसानों ने भी नहर का पानी उपलब्ध हो जाने के बाद धान की खेती करनी शुरू कर दी थी।

भारतीय कृषि के भविष्य की राह कृषि वस्तुओं के प्रचलन से निर्धारित होने जा रही है। इस बात को याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि बहुराष्ट्रीय निगम (एमएनसी) खुदरा स्तर पर मैदान में उतरने के लिए कमर कस रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा मांगी गई माफ़ी कोई बिना शर्त नहीं है। बल्कि, यह एक प्रकार से गैलीलियन है, इस अर्थ में कि वे इस बारे में स्पष्ट हैं कि कृषि कानून सही थे, लेकिन संगठित विरोध के सामने उनको महसूस हुआ कि उनकी सरकार किसानों को इनके फायदों के बारे में समझा पाने में विफल रही है। जब स्थिति सामान्य हो जायेगी, और एक बार जब किसान अपने-अपने गाँवों को लौट जायेंगे, तो फिर कृषि के उदारीकरण को शुरू कर दिया जायेगा। फर्क सिर्फ इतना रहेगा कि अब इसे अप्रत्यक्ष तौर पर किया जायेगा।

भारत सरकार में भले ही कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आ जाए, किंतु वह कभी भी कृषि में उस हद तक सब्सिडी नहीं दे पायेगी, जिस मात्रा में संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में यह उपलब्ध है। कारण स्पष्ट है: संपन्न देशों की तुलना में भारत जैसे देशों में कृषि का आकार और पैमाने में भारी अंतर है। भारत में, अभी भी खेतीबाड़ी का प्रचलन बड़े पैमाने पर व्याप्त है क्योंकि इसमें कुल श्रम शक्ति का 50% और सकल घरेलू उत्पाद का 17-18% हिस्सा बना हुआ है। इतनी विशाल आबादी को सब्सिडी दे पाना एक भागीरथ कार्यभार है, जिसे भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए वहन कर पाना संभव नहीं है। जबकि एमएसपी और इनपुट पर सब्सिडी के बिना भारतीय किसान अब और अधिक नहीं टिक सकते हैं। दुर्भाग्य से, वर्तमान राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के पास किसानों की मदद करने के बारे में सोचने की कोई मुरोव्वत नहीं बची है। 

मशहूर फ़्रांसिसी इतिहासकार मार्क ब्लोच ने लिखा है कि अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ दैनंदिन का प्रतिरोध समाज के रूपांतरण में क्रांति की तुलना में कहीं अधिक सफल रहा है। उन्होंने तर्क दिया कि अधिकांश मामलों में देखने को मिला है कि, क्रांतियों ने पहले की तुलना में कहीं अधिक दमनात्मक औजारों का इस्तेमाल किया। अब सवाल है कि कृषि के उदारीकरण के खिलाफ किसान कैसे दैनंदिन के प्रतिरोध को खड़ा कर सकते हैं। इसे सामूहिक और विनियमित कृषि उत्पादन के जरिये संभव बनाया जा सकता है, जिसमें गाँव से लेकर जिला स्तर तक वस्तुओं के भंडारण और मार्केटिंग के साथ जोड़कर संभव बनाया जा सकता है। इसमें यह फैसला लेना शामिल होगा कि किन फसलों की खेती की जाए, जिला-स्तर पर भंडारण की व्यवस्था कैसे की जाये और अखिल भारतीय जरूरतों पर आधारित बाजार-उन्मुख दिशा पर काम किया जाये।

इससे खेती के ‘ट्रेक्टरीकरण’ पर लगाम लगेगी, जो कि कृषक वर्ग के बीच उच्च स्तर की ऋणग्रस्तता के लिए महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। पंजाब के पास अपनी जमीन को जोतने के लिए जितने ट्रैक्टरों की जरूरत है, उससे कहीं अधिक यहाँ पर मौजूद हैं। पंजाब में कुछ गाँवों ने पहले से ही इस तरह के कदम उठाये हैं। हालाँकि, यदि उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर खेती करना जारी रखा, तो इससे किसानों के बीच में ही प्रतिस्पर्धा और संघर्ष को कायम रखने वाला सिद्ध होगा। सर्वश्रेष्ठ तरीका सहकारिता प्रणाली को खड़ा करना होगा, जिसका स्वरुप कंपनी से मिलता-जुलता है। हमारे कृषकों के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए और भी कई अन्य विकल्प कारगर हो सकते हैं, जो इसमें शामिल सभी लोगों के लिए बेहतर सार्थक अस्तित्व का निर्माण करने में मददगार साबित हो सकते हैं। 

लेखक गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में समाजशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर रहे हैं, और इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी, नई दिल्ली के अध्यक्ष हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Farm Laws Repeal: What Farmers Must Do Next

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